वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1737
From जैनकोष
न तत्र बांधव स्वामी मित्रभृत्यांगनांगजा:।
अनंतयातनासारे नरकेदुत्यंतभीषणें।।1737।।
अनंत यातनावों का धाम―वह नरक अत्यंत यातनावों का घर है । यहाँ के मनुष्य तो जरा-जरा से दुःख को पाकर घबड़ा जाते हैं । थोड़ासा भी घर में क्लेश हुआ तो ऐसा अनुभव करते कि हमारा घर तो एक नारकी जीवन सा बन गया, लेकिन और जीवो के दुःख को देखकर यह निर्णय होता कि हम आपको इस पर्याय में कठिन से भी कठिन. दुःख आये तो वे कुछ भी दुःख नहीं हैं । क्या दुःख आ गया?....इष्ट वियोग हो गया । यही तो दुःख मानते हैं ये जीव, पर: वह दुःख की क्या चीज है? अरे जीव हैं, जन्म लेते हैं, मरण करते हैं, कोई यहाँ
आ गया, इस भूमि में कुछ दिन रहकर चला गया । यह तो संसार है । यहाँ तो आना जाना लगा ही रहता है । इसमें मेरा क्या बिगड़ा, पर कल्पनाएँ करते हैं और उन कल्पनाओं से अपना दुःख बढ़ाते हैं । कौनसा और दुःख हो गया? मान लो कि हजारों का घाटा पड़ गया तो क्या हो गया? यह वैभव तो आता जाता रहता है, इसकी ऐसी प्रकृति ही है, और वह पुण्यवान का आश्रय करता है तो उसे छोड़कर चला जाता है । इतने पर भी हम मनुष्य है तो पुण्यवान तो हैं ही, और जीवों की अपेक्षा तो हमारा पुण्य विशेष है ही । कितनी ही दरिद्रता की स्थिति आ जाय, पर मनुष्यभव का पाना स्वयं एक पुण्य का फल है, और फिर उदरपूर्ति के लायक तो वैभव बना ही रहता है । प्रत्येक मनुष्य अपनी उदरपूर्ति अपने-अपने उदय के अनुसार करता ही रहता है । कौनसा दुःख आ गया? और भी' दुःख सोच लो, शरीर में बाधा बढ़ गई, कोई रोग हो गया, कठिन वेदना हो गयी तो यह जीव बड़ा दुःख मानता है । हो इसे थोड़ा दुःख कह सकते, लेकिन जिस समय भेदविज्ञान जगता है, शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न दिखते हैं उस समय शरीर की वेदना भी शांत हो जाती है । मनुष्यभव में और विशेषकर जैन शासन का शरण पाकर हम अपने को दुःखी अनुभव करें तो यह हमारे लिए एक मूर्खतापूर्ण बात होगी । कोई भी परिस्थिति आये पर अपने को दुःखी अनुभव न करें और बहुत सुखी हैं, शांत हैं, पवित्र हैं इस प्रकार की अपनी दृष्टि बनाएँ । देखिये ये नारकी जीव नरक में कैसे घोर दुःख भोगते हैं, उनका वहाँ न कोई बंधु है, न कोई स्वामी है, न कोई हितू है, न कोई मित्र है, न कोई नौकर है, न कोई स्त्री है । मनुष्यभव में तो अनेक नौकर स्त्री पुत्रादिक होते हैं, पर उन नारकियों के ये कोई भी नहीं हैं । तिर्यंचों के―गाय-भैस, पशु-पक्षी इनका तो एक दूसरे से प्रेम हो जाता, एक दूसरे के मित्र बन जाते, एक दूसरे के सहयोगी हो जाते, जितना बन सकता उतनी सेवा करते, पक्षी भी एक दूसरे की सेवा करते हैं, उनके पास रहना, उनको दाना चुगाना, उनको अपने पंजे से पकड़कर कहीं का कहीं अच्छे स्थान पर रख देना, तो तिर्यन्चों में भी मिलेंगे बंधु मित्र, पर नारकियों के बंधु मित्र होने असंभव हैं । वहाँ कोई गर्भ जन्म की बात है नहीं जिससे कि कुटुंब मान लिया जाय । सभी नारकी जमीन में ऊपर से उनके उत्पाद स्थान हैं क्रूर भयानक, वहाँ से वे औंधे मुंह होकर नीचे टपक जाते हैं, ऐसा ही उनका जन्म है, फिर वहाँ कुटुंब का कुछ नहीं है । मित्र होने का यों प्रश्न नहीं कि वे सभी प्रकृति से क्रूर स्वभाव वाले हैं, एक दूसरे को सुहाते भी नहीं हैं, तौ उनके न कोई मित्र है, न स्त्री है, न पुत्रादिक हैं । केवल एक अनंत यातनावों का वहाँ स्थान है । ऐसी अत्यंत भीषण यातनाएँ वे नारकी जीव अनगिनते लाखों वर्षों तक सहते रहते हैं ।
नरकदुःख परिचय से आत्महित कर लेने का शिक्षण―हम आप सबका यह मनुष्यभव एक कितना अच्छा स्थान है, हित करने का कितना अच्छा मौका है, अपने आपको शांति के पथ में ले जाने का कितना अच्छा साधन मिला है, पर इस साधन को हम उपयोग में न ले और विषय कषायों की वान्छा में ही इसको खो दें तो यह सब तो हमारे अनर्थ की बातें हैं । कितना श्रेष्ठ भव है, कितना ज्ञान मिला है, कैसा ज्ञानावरण का क्षयोपशम है, कितना हम उत्कृष्ट विचार कर सकते हैं? एक बाह्य की ओर से अपना मुख मोड लें, अपने आपकी ओर उन्मुख हो जायें तो हम आप अपना कितना भला कर सकते है, अगला भव भी हमें धर्म से पूरित मिलेगा, जैनशासन की उपासना कर सकेंगे, निकट काल में हम मुक्त हो सकेंगे । अपने जीवन का लक्ष्य बनायें कि हमें तो अष्टकर्मों के बंधन से छूटना है । छूटे चाहे जब, पर लक्ष्य अपना यहीं बनायें, धनी बनने का, एम- एल. ए., मिनिस्टर आदि बनने का लक्ष्य बनाने से कुछ भी आत्मसिद्धि न मिलेगी बल्कि मलिनताएँ और बढ़ जायेंगी, छल कपट और विशेष आ जायेंगे, अपवित्रता और बढ़ गयी, पापकर्मों का और अधिक बँध होगा । तो लाभ कुछ नहीं मिला । लाभ मिलेगा इस ही लक्ष्य में कि हमें तो कर्मों से मुक्ति पाना है । बहुत भव बिताये, अनंत जन्ममरण किए, अनेक संग प्रसंग किए उनमें कोई सार नहीं निकला । जैसे अनंत भव गवां दिये वैसे ही आज यह मनुष्यभव भी मिला है । इस मनुष्यभव में पूर्वभव की नाई विषयों के प्रसंग में क्षण गवां दिए तो आत्मा को क्या लाभ है? बहुत बड़ी जिम्मेदारी का भव है यह मनुष्यभव । हम चाहे तो इस संसार के संकटों से सदा के लिए छूट जाने का उपाय बना सकते हैं, अगर हम चाहे तो निगोद में भटकते रहने का भी उपाय बना सकते हैं । हमारी स्थिति संसारी अन्य जीवों की अपेक्षा बहुत उत्तम है मगर सदुपयोग करें तो उत्तम है । यदि सदुपयोग न किया, अन्य मोही प्राणियों की भांति ही हम भी बाहर की चीजों में मुग्ध हो गए, उन बाहरी व्यासंगों में ही रत बन गए तो हमने और की भांति और अपने पूर्वभव की भांति इस भव को बरबाद ही किया समझे ।