वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1736
From जैनकोष
वैक्रियकशरीरत्वाद्विक्रियंते यदृच्छया।
यंत्राग्निश्वापदांगैस्ते हंतुं चित्रैर्वधै: परात्।।1736।।
विक्रियानिर्मित शस्त्रों द्वारा हनन की वेदना―उन नारकियों का शरीर वैक्रियक है, वे अपनी इच्छा के अनुसार जैसी उनकी भावना है उस भावना के अनुकूल अपना रूप बना लेते हैं । कभी वे ही नारकी पानी बन जाते हैं । पाप का कितना तीव्र उदय है कि उनके दुःख के साधन यहाँ वहाँ से खोजकर नहीं लाने पड़ते, उनका शरीर ही घानी बन जाता है, दो नारकी मिलकर एक नारकी को मार रहे हों तो उनमें से एक नारकी घानी बन गया और एक नारकी बैल बन गया । झट उसे घानी में पेल देते हैं । उस नारकी की भावना हुई कि मैं इसे अग्नि में जलाकर भस्म कर दूं तो उनका ही शरीर अग्नि बन जाता है । उनका ही शरीर हिंसक जंतु बन जाता है । उसकी इच्छा हुई कि मैं शेर बनकर इसकी हड्डियों का चूर-चूर कर दूं तो उसका ही शरीर शेररूप बन जाता है । उनके शरीर की रचना ही ऐसी है जो दुःख देने का जो साधन चाहे, तुरंत उनका ही शरीर उस साधनरूप बन जाता है । औदारिक शरीर नहीं है किंतु वह शरीर ही इस प्रकार का विलक्षण है कि जो शरीर दुःख का
बहुत-बहुत कारण बन सकता है । तो वह नारकी जीव अपनी इच्छा से नानारूप बनाता है और अनेक प्रकार से परस्पर एक दूसरे को मारने के लिए वह विक्रिया करता रहता है । अभी यही देख लो―नाटकों में लोग कोई भयानक चेहरा अपने मुख के सामने लगा लेते हैं तो वे कितने भयानक लगते हैं? फिर जिन नारकियों के शरीर में ऐसी विक्रिया है कि वे जैसा चाहें भयानक रूप धारण कर लें तो फिर उनकी भयानकता का तो कहना ही क्या है? ऐसी भयानक मुद्रा को देखकर यदि मनुष्य हों तो कहो अपने प्राण ही खो दें । पर वे नारकी इतना अभ्यस्त हैं कि वे परस्पर में लड़कर कटा मरा करते हैं ।