वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1812
From जैनकोष
सौधर्मोऽयं महाकल्प: सर्वामरशतार्चित: ।
नित्याभिनवकल्याणवार्द्धिवर्द्धनचंद्रमा: ।।1812।।
उत्पन्न देव को जन्मस्थान के संबंध में प्रबोधन―हे नाथ ! यह सौधर्म नाम का महा स्वर्ग है । महा स्वर्ग इसलिए कहा गया है कि सबसे अधिक विमान, सबसे अधिक संख्या के स्वर्ग ये हैं, और साथ ही एक इस बात पर ध्यान दीजिये कि जब कभी तीर्थंकर के पंचकल्याणक होते हैं और ऐसे अद्भुत समारोह होते हैं मानो सारा सौंदर्य स्वर्ग में इकट्ठा हो गया है । यह सौधर्म इंद्र का स्वर्ग महान स्वर्ग है । यह सैकड़ों हजारों देवों से सेवित है । अनेक देव इस स्वर्ग में निवास कर के अपना सुख भोगते हैं और इस स्वर्ग को बहुत बड़े महत्व की दृष्टि से देखते हैं । कवियों की एक कहावत है―जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादिपि गरीयसी । जननी माता और जन्मभूमि हमें बहुत साधक है और जन्मभूमि को बताया है कि जो उत्पन्न करती है वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ होती है । तो बतलावो जिसकी स्वर्ग से उपमा दी जा रही है, जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है, तो जो देव स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं उनकी जन्मभूमि तो स्वर्ग है । उस भूमि के आश्रय से वे इन सांसारिक सुखों को भोगते हैं और वहां के आधार को समय-समय पर धर्म समारोहों मे सम्मिलित होकर पुण्यबंध करते हैं । वे अपनी योग्यता के अनुसार धर्मपालन करते हैं । तो स्वर्ग उनकी जन्मभूमि है, और उन देवों के द्वारा पूज्य है । जैसे इस भारतभूमि के लोग इस भारत को माता कहते हैं और इसकी पूजा करते हैं, भारत माता की जय आदिक बोलकर एक अपना भाव प्रदर्शित करते हैं । यों ही समझिये कि वहाँ के देव अपनी जन्मभूमि स्वर्ग के प्रति क्या-क्या उच्च कामनाएँ न रखते होंगे? तो यह स्वर्ग हजारों देवों से सेवित है । उन देवों के समस्त कल्याण की वृद्धि के लिए वह स्वर्ग निमित्त है अर्थात् उन देवों का सर्व मंगल, सर्व मनोरथ, सर्वकल्याण जैसी उनकी भावना है उन सबकी सिद्धि इस स्वर्ग में होती है।