वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1811
From जैनकोष
प्रसीद जय जीव त्वं देव पुण्यस्तवोद्भव: ।
भव प्रभु: समग्रस्य स्वर्गलोकस्य संप्रति ।।1811।।
उत्पन्न देव से उपस्थित देवों द्वारा प्रसन्नता की अभ्यर्थना―हे नाथ ! आप प्रसन्न हूजिये, आप चिरंजीव रहिये । आपका उत्पन्न हुआ पुण्यरूप है । आप पवित्र हैं, आप इस स्वर्गलोक के स्वामी हूजिये । सौधर्म इंद्र परिणाम कल्प के आधे से अधिक स्थान के विमान के अधिकारी होते हैं । स्वर्ग की रचना में कहीं अलग-अलग रचना नहीं है कि यह सौधर्म स्वर्ग है और यह ईशान । किंतु वहाँ पटल की रचना है । तो इस मेरु पर्वत के ऊपर एक पल के अंतर पर ऋजु विमान है, इंद्र का विमान है, उसके चारों ओर पटल पर श्रेणीबद्ध विमान हैं और बीच में प्रकीर्णक विमान हैं । उनमें से दक्षिण पूरब पश्चिम दिशा के विमान और इनके बीच के विदिशा के विमान और इनके बीच के अन्य सब प्रकीर्णक विमान―ये 31 पटलों में ऐसे-ऐसे घटते हुए भी जो विमान ऊपर चले गए हैं उन सबके वे अधिकारी होते हैं, और शेष बची हुई उत्तर दिशा, दो विदिशा और उसके मध्य के प्रकीर्णक देव अधिकार ऐसान इंद्र होते हैं । सौधर्म स्वर्ग का अधिकारी सौधर्म इंद्र तो है ही किंतु जब तीर्थंकर का जन्म होता है तो सौधर्म इंद्र उन तीर्थंकर देव का पंचकल्याणक मनाते हैं । सौधर्म देव की बहुत बड़ी हस्ती है । मंत्री जन सौधर्म इंद्र का जयवाद कर रहे हैं । हे नाथ ! आप प्रसन्न हूजिये । आप चिरंजीव हूजिये । हम सब पर आपकी कृपा बनी रहे । आपका जन्म बड़ा पवित्ररूप है, आपके जन्म से आज यह स्वर्ग कृतार्थ हुआ है ।