वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 773
From जैनकोष
प्राय:शरीरशैथिल्यात्स्यात्स्वस्था मतिरंगिनाम्।
यौवने तु कचित्कुर्याद्दृष्टतत्त्वोऽपि विक्रियाम्।।
गुरुसेवा व वृद्धसेवा की ब्रह्मचर्यसाधनता- समस्त व्रतों में प्रधान व्रत है ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचर्य की व्याख्या उत्कृष्ट से उत्कृष्ट होती चली गयी है। परम ब्रह्मचर्य है आत्मा, आत्मा में लीन हो जाय तो ऐसा कार्य करने के लिए व्यवहार के सदाचार भी हमें अच्छी तरह निभाने पड़ेंगे, तब इतनी पात्रता जग सकती है कि हम अपने स्वरूप में लीन हो सकें। जो व्यवहार के सदाचार से भी गिरा है उसमें यह योग्यता नहीं आ सकती कि वह आत्मा की सुध पा सके और व्यवहार की सदाचारता आये इसके लिए मुख्य सहायक है सत्संग, गुरुसेवा, वृद्धसेवा। जो ज्ञान में तप में बढ़े हुए हैं, जो अपनी निर्मलता में बढ़े हुए हैं, ऐसे पुरुषों की संगति से वे सब गुण आ जाते हैं जिससे आत्मा आत्मा में लीन होने का पात्र बन सकता है। तो यहाँ वृद्ध पुरुषों का लक्षण कहा जा रहा है। वृद्ध का अर्थ है बढ़ा हुआ। अवस्था में बढ़ा हुआ हो उस ही का नाम वृद्ध नहीं। अवस्था में चाहे बड़ा हो या छोटा, जिसके ज्ञान, ध्यान, धैर्य, विवेक, व्रत, संयम बढ़े हुए हों वे वृद्ध पुरुष कहलाते हैं और उनकी सेवा से ब्रह्मचर्य व्रत की साधना होती हैं।
मोह की वैरीरूपता- जीव के बैरी है 6- मोह, काम, क्रोध, मान, माया और क्षोभ। जो जीव ऐसा समझते हैं कि हमारे अमुक पुरुष विरोधी है वह उनका बड़ा भ्रम है और बड़ा अज्ञान है और इस भ्रमों में वे अपने आपको दु:खी कर डालते हैं। और विकट कर्मों का बंध करते हैं, जितने जीव है सब अपने-अपने कषाय के अनुसार अपनी-अपनी चेष्टा करते हैं। जिसे हम शत्रु मानते हैं वह भी जो उसमें बात कषाय आयी है उसकी शांति के लिए चेष्टा करता है, हम उसे प्रतिकूल समझकर शत्रु मान लेते हैं। जगत में अनंत जीव हैं और सभी जीवों का स्वरूप अपना-अपना जुदा है, अपनी-अपनी सत्ता से सब हैं। और, सत्ता का अर्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन चार से है। हमारी सत्ता हममें है, दूसरे की सत्ता दूसरे में है, तो हमारी करतूत पर में कैसे जा सकती है, हम कल्पनाएँ भर कर रहे हैं, और संसार में रोग केवल यही है कर्तृत्व का रोग। यह मुझे करने को पड़ा है ऐसी जो चिंता बनी रहती है यही संसार का महान रोग है। भगवान सर्वज्ञ कृतकृत्य कहलाते हैं, अर्थात् जिसने सब कुछ कर लिया, जिसे पर में कुछ करने को नहीं रहा उसे कृतकृत्य कहते हैं। काम कर करके कृतकृत्य कोई नहीं बन सकता। काम से निवृत्त होकर कृतकृत्य बन सकते हैं। जब कभी हम आप लोगों को कोई सुख होता है तो वह सुख काम करने से नहीं होता किंतु अब मुझे करने को नहीं रहा, इस आशय का सुख है। जैसे आपने कोई मकान बनवाया तो बाद में जो आप सुख का अनुभव करते हैं वह मकान बनवाने का सुख नहीं है, किंतु मकान बनवाने का काम अब नहीं रहा, इस बात का सुख है।
यदि कोई पुरुष परपदार्थ को पर जानकर पहले से ही सोच ले कि मुझे पर में करने को कुछ है ही नहीं तो वह सुखी है। ऐसा सुख उन्हें भी नहीं हो सकता जो बड़े-बड़े मकान महल बनवाने वाले है, बड़े-बड़े राजपाट चलाने वाले हैं। सुख तो विश्राम का है। मन विश्राम पाये उसका आनंद आता है। अब मन किसी का ज्ञान द्वारा विश्राम पाता है तो जिसका ज्ञान द्वारा विश्राम पाता है उसका तो स्थिर विश्राम है, क्योंकि ज्ञान द्वारा विश्राम पाता है। जब चाहे ज्ञान का प्रयोग कर लें और अपने को सुखी बना लें। और ,जो परपदार्थों की परिणति बनाकर विश्राम चाहते हैं प्रथम तो परिणति उनकी इच्छानुकूल बनती नहीं और बन भी जाय तो भी अपेक्षा होने के कारण वह विश्राम नहीं मिल सकता जो कार्य की निवृत्ति के आशय में विश्राम मिलता है। जो पुरुष ज्ञान में वृद्ध हैं, तपश्चरण में वृद्ध हैं वे वृद्ध संत पुरुष हैं। उनकी सेवा से छहों बैरी, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह दूर होते हैं। मोह तो एक अज्ञान का नाम है। जब संत पुरुषों की सेवा में रहें तो यह अज्ञान दूर होता है, मोह दूर होता है। जहाँ मोह दूर होने लगता वहाँ कुछ आत्मा की बात सुनने को जानने को भी अपने आपको खबर होती है। मोह दूर हो।
कामविजय का महत्त्व- मोह के अतिरिक्त अन्य प्रवृत्तियों में सबसे भंयकर खोटी प्रवृत्ति है काम की। क्रोध, मान, माया, लोभ में जितना बिगाड़ है, मनुष्य का उससे कहीं अधिक कामवासना में बिगाड़ है। उसका मूल से विध्वंस हो जाय, भगवान से वह प्रार्थना करे कि रही सही भी काम संबंधी पुरानी वासना मेरी समाप्त हो और मेरे परम ब्रह्मचर्य प्रकट हो। वो पुरुष धन्य हैं जिन्होंने जवानी अवस्था में अपनी बुद्धि को स्वस्थ रखा, अपने आपकी सुध रखी उनके आत्मा में ज्ञान का बल भरा हुआ है। जीव स्वभावत: निसर्गत: पापों की ओर दौड़ता है, बुद्धि पापों की ओर जाती है। अनादि से यह मलिन है। ऐसी स्थिति में भी कोई ज्ञानी पुरुष बाह्यविषयों में अपनी बुद्धि को न फंसाये, अपनी ओर ही अपना चित्त रखे तो सोचिये उसका कितना बड़ा ज्ञानबल है? तो शरीर के शिथिल होने से बुद्धि प्राय: स्वस्थ हो जाती है, वह भी कोई नियम नहीं। शरीर के शिथिल होने से इंद्रिय के विषयों में जोश नहीं रहता और ऐसी स्थिति में यदि कुछ ज्ञान है तो शरीर जहाँ पड़ा है पड़ा रहने दो, यदि आत्मा अपने आपमें अपना गुंतारा लगाये तो यह आत्मा तो आनंदमग्न हो जायेगा। शरीर कहीं पड़ा है तो पड़ा रहे, उसके पड़े रहने से क्या हानि है? जो चीज दु:खदायी मालूम की जाती है लौकिक लोगों के द्वारा उस ही का ज्ञान में उपयोग किया जाता है। लोग बुढ़ापे को दु:खदायी मानते हैं लेकिन ज्ञान है तो बुढ़ापा हमारे हित में बहुत कारण पड़ सकता है। जो गुण बुढ़ापे में आ सकते हैं बुढ़ापे के कारण वे गुण जवानी में कठिन है। यह विशेषता शरीर की अवस्था से भी चलती है। बहुत कुछ देख चुकने के बाद उसकी इच्छायें भी कम हो जाती हैं। जिसमें थोड़ा भी विवेक हो तो उसमें बुढ़ापे से बड़े गुण प्रकट होते है, इच्छायें कम होती हैं। जैसे जवानी में एक नया पौरुष मिलने से बड़ी-बड़ी इच्छायें होती हैं लेकिन वृद्धावस्था में उन सारी इच्छावों में कमी हो जाती है और साथ ही इंद्रिय के विषयों की अभिलाषा भी कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में ज्ञानी पुरुष उस बुढ़ापे का भी लाभ ले सकता है जो अत्यंत अधिक लाभ है। नहीं तो एक समस्या का उत्तर दो। बुढ़ापा यदि कष्टदायी चीज है तो जवानी में भी तपश्चरण करने से लाभ क्या? क्यों बूढ़े बनेंगे, बुढ़ापे में सारे तपश्चरण देर हो जायेंगे। फिर तपश्चरण क्यों करते हैं इसका उत्तर दो। इसका उत्तर यह है कि बुढ़ापा कष्टकारी दु:खकारी नहीं है, यदि ज्ञानी मनुष्य है और अपने ज्ञान को अपने आपमें कुछ निरखने का उद्यम बनाये रहता है तो शरीर कैसा ही रहे उससे आत्मा का अहित नहीं होता। समाधिमरण प्राय: बुढ़ापे में ही होता है। तो समाधि की पात्रता बुढ़ापे में विशेषतया है कि अपनी सारी जिंदगी के अनुभव हैं। समाधिमरण में आहार जल वगैरह के त्याग की विशेषता नहीं है किंतु समता परिणाम की विशेषता है। नाना इच्छायें न जगें इसकी विशेषता है समाधिमरण में। जब इच्छायें नहीं रहती तो फिर आहार जल आदिक का त्याग भी महत्त्व पाता है। मुख्य तो कषायों का त्याग है। तो वे मनुष्य धन्य हैं जो वृद्धावस्था में भी अपनी बुद्धि को स्वस्थ रखते हैं और वे मनुष्य भी अधिक धन्य हैं जो जवान अवस्था में भी अपनी बुद्धि को स्वस्थ रखते हैं।। जिन्होंने तत्त्व का स्वरूप जाना है, जो कुछ विकार उत्पन्न नहीं करते, जो युवावस्था में भी चलायमान नहीं होते वे पुरुष धन्य हैं।
सल्लेखना का अंतरंग आचार- सल्लेखना का अर्थ है- सत् मायने भली प्रकार लेखन कहते हैं घिसने को, कुरेदने को। जैसे लोग कागज में लिख देते कहते हैं, कि हमने यह निबंध लिखा, हमने यह भजन लिखा तो इसे लिखना नहीं कहते हैं। इसे कहते हैं लेपना। बोलना तो यों चाहिए कि हम निबंध लेप रहे हैं, भजन का लेपन कर रहे हैं। लिखना नाम उसका है तो ताड़पत्रों पर लोहे की कलम से कुरेद करके फिर उसमें स्याही भरते हैं। ताड़पत्र पर लिखा जाता है और कागज पर लेपा जाता है। चूँकि पुराने जमाने में ताड़पत्र पर लिखा जाता था, और आजकल चल गए कागज, तो कागज पर लेपन करने को भी लोग लिखना कहते हैं। तो जो भली प्रकार कुरेदा जाता है उसका नाम है सल्लेखना। कुरेदना होता है धीरे-धीरे कुरेदना, और कुदरे अंश को दूर कर देना। जैसे ताड़पत्र पर हम धीरे-धीरे कुरेदते हैं ऐसे ही अपने में अपनी जो परिणति बन रही है कषाय भावों की उन कषायों का कुरेदना इसका नाम है सल्लेखना। और, सल्लेखना मरण का अर्थ है भली प्रकार से इन कषायों को फेंकते हुए, त्यागते हुए मरण करना। और संन्यासमरण किसका नाम है? संन्याससहित जो मरण हो उसका नाम है संन्यासमरण।
अपने सहज स्वरूप का सहज विकास- अपने आपकी उन्नति के लिए हमें अपने आपमें कोई नई चीज नहीं बनाना है। बनी बनाई चीज है, स्वरूप है, अनादि से है। केवल वह जो विकृत हो गया है उपाधियों के कारण से उन उपाधियों को हटाने भर की जरूरत है। जैसे पत्थर में से मूर्ति बनानी है तो कारीगर कुछ नई चीज नहीं लगाता हैं उसमें, केवल जो बनी बनायी चीज भीतर में है जिसे कि वह प्रकट करेगा उसको ढकने वाले जो विकार है, पत्थर हैं उन पत्थरों को दूर करता है। उन विकारों को दूर करने के बाद जो चीज प्रकट हो जाती है वह कारीगर ने बनाया नहीं। उसी का ही अंश प्रकट होता है। इसी तरह यह समूचा आत्मा परमात्मा है, स्वरूप है, ज्ञानमय है, चैतन्यमात्र है, वही केवल रह जाय उसी का नाम परमात्मा है।
परमात्मत्व का प्रयोजन- हमें परमात्मा होने की क्या जरूरत है। हम यह नहीं चाहते कि हमारे ऐसा ज्ञान प्रकट हो कि तीन लोक और अलोक को जान जायें। क्या गर्ज पड़ी हैं तीन लोक और अलोक को जानने की? हम यह नहीं चाहते कि जो कहते आये लोग कि परमात्मा में अनंत सुख होता है, यह भी कुछ चाह में नहीं है, मुझे उस अनंतज्ञान का भी लोभ नहीं हैं। लोग कहते हैं कि परमात्मा में अनंतशक्ति प्रकट हो जाती है। मुझे अनंतशक्ति का भी लोभ नहीं है। ज्ञानी पुरुष की भावना की बात कह रहे हैं। उसे न कोई लोभ है, न कुछ चीज है, न परमात्मपद चाहता है, किंतु जब एक सही ज्ञान बन गया, भ्रम दूर हो गया तो अब भ्रम वाली बात को कैसे मन में लाये? इस कारण से जैसा आत्मा का सहजस्वरूप है वैसा उसकी निगाह में रहता है। अब उस सहजस्वरूप की दृष्टि बन जाने से अपने आप ही केवलज्ञान होगा, अनंतशक्ति होगी, अनंतसुख होगा वह उसका फल है। वह तो केवल एक सत्य की खोज है। जो सत्य स्वरूप है, आत्मा का सहज भाव है वह निगाह में आ गया तो उसी को दृष्टि में लिए रहता है। मिथ्यावाद को वह कैसे ग्रहण करे? बस यह ज्ञानी की वृत्ति चलती है कि मुझे चाह कुछ नहीं है तभी तो लिखा है कि जिसके मोक्ष की भी इच्छा नहीं है, मोक्ष को भी नहीं चाहता वह मोक्ष को प्राप्त होता है। तो मोक्ष को न चाहे ऐसा वह कौनसा ज्ञान है, बस यही ज्ञान है कि चाहना कुछ नहीं है। जो सत्य और सहजस्वरूप है उसका भान हो गया तो जब सत्य का ज्ञान हो गया तो फिर सत्य का ज्ञान करते रहना है और कुछ नहीं करना है, मोक्षमार्ग में और करना क्या है? जो सत्यस्वरूप है उसका ज्ञान करते रहना यही मात्र एक मोक्षमार्ग में है। दूसरा नहीं है। पर ये अनेक काम जो बीच में किए जाते हैं व्रत समिति पालें, यों आहार ग्रहण करें, यों पिछी लें, यों चलें, यों उठें ये काम क्यों करने पड़ते? यों करने पड़ते कि हमारे उस सत्यस्वरूप के ज्ञान रहने के काम में जब बाधायें आ जाती हैं तब अन्य इच्छायें होती हैं उन इच्छावों के समय हमारा ऐसा विवेक रहे कि हम एकदम तो विषयों की इच्छा में न बह जायें, इसके लिए ये सभी प्रवृत्तियाँ करते रहने के लिए नहीं हैं। करते रहने का काम तो सत्यज्ञान है। जो सहजस्वरूप है, सत्यस्वरूप है उसका ज्ञान करते रहें, यही मात्र मोक्षमार्ग में करने का काम है और दूसरा काम कुछ नहीं है।
स्वरूप का यथावत् प्रकट होने अथवा ज्ञान के ज्ञानस्वरूप में रहने में चारित्र की प्रकटरूपता- चारित्र अन्य किसी चीज का नाम नहीं, सिवाय इसके कि ज्ञान ज्ञान में स्थिर बना रहे, ज्ञान ज्ञान के स्वरूप को जानता रहे, यही चारित्र है और इसी कारण से सिद्धभगवान में चारित्रगुण नहीं बताया है। सिद्ध प्रभु में जो 8 गुण बताये हैं उनमें सम्यक्त्व तो अलग है- समकित, दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघुत्व अवगाहना, सूक्ष्मत्व, अनंतवीर्य, अन्यावाध, पर चारित्र कुछ अलग चीज नहीं है। ज्ञान-ज्ञानरूप रहे इसी का नाम चारित्र है। तो केवल एक ज्ञान करते रहना, यही तो है मोक्षमार्ग और एक ज्ञानरूप रह जाना, यही है मोक्ष। अब सिर्फ ज्ञानरूप रह जाने पर उसकी पहिचान कैसे बने, उस पहिचान के लिए अपेक्षा लगाकर और गुण बताये हैं। जैसे 8 गुण कुछ नहीं हैं अलग से। केवल एक ज्ञानस्वरूप है वही एक महागुण है पर पूर्वकाल में मिथ्यात्व कर्म की उपाधि से सम्यक्त्व नहीं था। मिथ्यात्व था तो यह बताने के लिए कि अब सिद्धों में मिथ्यात्व का अंश नहीं है, सत्यक्त्व गुण बताया है। संसार अवस्था में यह आत्मा छोटा बड़ा कहलाता था। गोत्र नामकर्म के उदय से नीचकुल, उच्चकुल छोटा बड़ा कहलाता था, हम सिद्ध भगवान का परिचय पाने के लिए उस पुरानी स्थिति की अपेक्षा रखकर बतलाते हैं कि अब सिद्ध भगवान छोटे नहीं हैं। और न परस्पर कोई छोटे बड़े हैं।
संसार अवस्था में यह जीव कर्मों के विपाक से नाना शरीरों में रहा करता था। तब एक जीव दूसरे जीव में न समा सकता था। आपका जीव वहाँ बैठे, हमारा यहाँ बैठे, कितना ही प्रेम हो, पर आपके जीवप्रदेश में हमारे प्रदेश समा नहीं पा रहे। प्रेम में चाहे यह सोचें कि प्रदेशों में प्रदेश समा जायें लेकिन नहीं समा सकते। अब सिद्ध भगवान में यह दुराभाव नहीं रह पाया। जहाँ एक सिद्ध है वहाँ अनंत सिद्ध समा सकते हैं। यह बात बताने के लिए अवगाहना गुण बताया है। जैसे संसार अवस्था में नाना प्रकार की बाधायें होती थी कर्मोदय में अब वहाँ बाधायें नहीं हैं तो यों सिद्ध भगवान का परिचय कराने के लिए गुणभेद बताये गए हैं। गुण नाम उसका है जिसके द्वारा भेदा जाय, विशेषण किया जाय, परिचय कराया जाय। किसी मनुष्य का जब हम परिचय कराते हैं तो उसके गुणों का वर्णन करते हैं ना। तो नाना गुण इसलिए बताये जा रहे हैं कि लोगों को परिचय हो जाय। वस्तु का परिचय कराने के लिए गुणों का कथन है। वस्तु तो अखंड है, स्वभाव अखंड है, उसका प्रतिसमय का परिणमन अखंड है। एक समय में वस्तु का जो भी परिणमन है वह अखंड है। तो अखंड द्रव्य का अखंड वस्तु का परिचय कराने के लिए गुण की कल्पना है, पर्यायों की कल्पना है। वह तो जो है सो ही है। जो अनुभव द्वारा ही गम्य है, इंद्रिय से अगोचर है ऐसा यह आत्मा जब सही रूप में जैसा उसका अपने सत्त्व के कारण स्वरूप है वैसा ही रह जाय, बस इसी के मायने है परमात्मा हो जाना।
केवल होने के लिए अपना कर्तव्य- सिद्ध अथवा केवल बनने के लिए हमें क्या करना है? अभी से हम उस केवलस्वरूप को समझते रहें यही करना है। हमें अकेला बनना है, परमात्मा बनना है। रागद्वेष, क्रोध, माया, लोभ सब झंझटों से अलग रहकर केवल अपने स्वरूप में रहना है, इसके लिए हमें यहाँ यह ज्ञान करना ही होगा कि ऐसा केवल मेरा स्वरूप है। यह स्वरूप जब हमें अपने केवल की एकत्व की निजस्वरूप की श्रद्धा न हो तो बन कैसे सकता है? हम यहाँ तो यह मानते रहें कि शरीर को निरख कर यह ही मैं हूँ, द्वितीय भाव में, द्वितीय पदार्थ में अपने आत्मीयत्व की श्रद्धा रखें और चाहें कि हम परमात्मा बन जायें, केवल बन जायें, यह नहीं हो सकता है। केवल बनना है तो केवल की श्रद्धा अभी से करनी होगी। मैं केवल हूँ, अपने स्वरूपमात्र हूँ, ऐसी श्रद्धा अभी से बनानी होगी तो उसी श्रद्धा और उसी ज्ञान के बल से हम केवल बन जायेंगे। इन कर्मों को हम हाथ पैर से नहीं हटा सकते और कोई प्रकार की क्रिया से दूर कर नहीं सकते। योग से भी दूर नहीं होते। बस सबसे बड़ा उपाय निवृत्ति का है। एक कहावत है कि भली मार करतार की, दिल से दिया उतार। यह लौकिक कहावत है। जब कोई मनुष्य हमें अपने दिल से उतार दे, वह हमारी चाह न करे तो हम कहते हैं कि इसने हमें बहुत बड़ी मार दी, इसने हमें दिल से उतार दिया। तो दिल से उतार देना यह सबसे बड़ी मार है। तो कर्मविकार रागद्वेष इन सबसे बड़ी मार यह है कि इनको हम दिल से उतार दें। इनको हम अपने उपयोग में न बसायें तो ये अपने आप नष्ट हो जायेंगे। विकारों से उपेक्षा करना तब यह बनता है जब हम यह भान कर सकें कि मैं स्वयं ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, परिपूर्ण हूँ, मुझमें कोई अधूरापन नहीं है और न मुझे जगत में कुछ करना है, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, इसे जानता रहूँ बस यही करना है। जानना भी नहीं करना है किंतु ज्ञानस्वरूप हूँ तो जाने बिना रहता तो नहीं ना, इसलिए मैं केवल जानता भर रहूँ इतना ही मात्र करने को मेरा काम पड़ा है, अन्य कुछ भी जगत में मेरे करने को काम नहीं पड़ा है। यों समझिये कि जगत के सब जीवों के लिए हमारी कोई सत्ता नहीं है। मैं हूँ ही नहीं। ये सारी बातें वृद्ध होने पर प्राप्त होती है। जो वृद्ध हैं अर्थात् जो ज्ञान में, तपश्चरण में बढ़े हुए हैं ऐसे संत पुरुषों की संगति से चित्त में एक ऐसा उत्साह बनता है कि मैं केवल ज्ञानविकास के लिए ही हूँ, विकार भावों के लिए मैं नहीं हूँ ऐसा एक दृढ़ संकल्प बनता है। तो प्रभुभक्ति में हम यही चाहें कि हे प्रभो ! मेरे में परमब्रह्मचर्य प्रकट हो। सर्वसंकल्प विकल्प मेरे से दूर हों, जैसा मेरा सहजज्ञानस्वरूप है मैं वैसा ही रह जाऊँ। इसके लिए परमब्रह्मचर्य की उपासना करना हमारा परम कर्तव्य है।