वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 774
From जैनकोष
वार्धक्येन वपुर्धत्ते शैथिल्यं च यथा यथा।
तथा तथा मनुष्याणां विषयाशा निवर्त्तते।।
वार्द्धक्य से शरीर की शिथिलता होने के साथ साथ विषयाशानिवृत्ति की विशेषता- बुढ़ापे के कारण जैसे जैसे मनुष्यों का शरीर शिथिलता को धारण करता जाता है वैसे ही वैसे विषयों की आशा भी घटती जाती है, परंतु युवावस्था में ही जिनकी आशा घट जाय, नष्ट हो जाय यह बात विशेषता की है। वृद्ध पुरुषों का लक्षण कहा जा रहा है। अवस्था से वृद्ध होने पर इंद्रियाँ शिथिल हो ही जाती हैं और कुछ न कुछ सभी इंद्रियाँ एक साथ शिथिल होने लगती हैं। और, जहाँ इंद्रियाँ शिथिल हुई वहाँ विषयों की आशा नहीं रहती। चाहे कोई बूढ़ा मन में इच्छा रखे, परविषय भोग लूँ, यह चीज मिल जाय, ऐसी आशा उनके नहीं रहती है। बूढ़े हो गए, दाँत गिर गए, कोई कड़ी चीज चख नहीं सकते तो उसके मिलने की आशा ही वे क्या करेंगे? यों ही वृद्धावस्था में सभी विषयों के भोगने की आशा दूर हो जाती है, पर इस तरह की आशा दूर अगर युवावस्था में की हो तो वह सही मायने में ज्ञानबल के कारण होता है। छहढाले में लिखा है- बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणीरत रह्यो, अर्द्धमृतकसम बूढ़ापनो, कैसे रूप लखे आपनो? बालपने में तो ज्ञान प्राप्त नहीं किया, युवावस्था में स्त्री में रत रहा, वृद्धावस्था में अर्द्धमृतकसम रहा तो यह अपने स्वरूप को कैसे लख सकता है? बालपने में तो ज्ञान न था, आत्मस्वरूप लखेगा ही क्या? तरुण समय में स्त्री में लीन रहा, उसी में अपना बड़प्पन माना और बुढ़ापे में अधमरा जैसा शरीर रहा तो आत्मस्वरूप को कैसे लख सकता है? इस संबंध में एक शंका की जा सकती है कि जितने भी ऋषि संत मुनिजन होते हैं तो वे बूढ़े तो होंगे ही, बूढ़े होने पर ही आत्मस्वरूप तो लख न पायेंगे तो क्या उन सबकी दुर्गति ही होगी? तो इस श्लोक में इसका अर्थ यों लगाना चाहिए कि जिस पुरुष ने बालपने में ज्ञान नहीं पाया उसी पुरुष ने तरुण समय में स्त्री में आसक्ति रखा तो वही पुरुष जब बूढ़ा होता है तो आत्मस्वरूप नहीं लख सकता। किंतु जिन्होंने ज्ञान प्राप्त किया है और जवानी में भी विषयों से उनकी अरुचि रही है वे बूढ़े हो जायें, अधमरे की तरह शरीर हो जाय तो भी वे आत्मस्वरूप को लख सकते हैं। तो वृद्ध नाम है उनका जो ज्ञान में संयम में बढ़े हों। मुख्य बात तो ज्ञान की है और जिनका ज्ञान सही मायने में बना है, बढ़ा है उनके संयम तो होता ही है अर्थात् ज्ञान ज्ञानरूप ही रह जाय इस तरह की ज्ञानवृत्ति जिनकी चल रही हो उन्हीं का नाम संयमी है। मैं ज्ञाता हूँ ऐसी श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है और अपने आपका ऐसा ज्ञान रखना इसका नाम है सम्यग्ज्ञान और अपने आपमें ज्ञान की लीनता होना इसका नाम सम्यक्चारित्र है। ये तीनों धर्म ज्ञान पर अवलंबित हैं सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र। इनको ही अमृतचंद्रसूरि इस तरह कहते हैं कि पदार्थ के यथार्थ श्रद्धान्रूप से होने का नाम सम्यग्दर्शन है और पदार्थों के ज्ञान के रूप से ज्ञान के होने का नाम सम्यग्ज्ञान है और रागादिक का परिहार करते हुए के स्वभाव से ज्ञान के होने का नाम सम्यक्चारित्र है। सब कुछ एक ज्ञान ही हो- धर्मज्ञान, चारित्रज्ञान, श्रद्धान ज्ञान, मोक्षमार्ग ज्ञान, मोक्षज्ञान सब कुछ ज्ञानमात्र ही तत्त्व है। अनेक जो संयम धारण करने पड़ते हैं वे ज्ञान में भेद डालने वाले की विभिन्नता से भेद पड़ते हैं तो जिनके ऐसा ज्ञानबल प्रकट है वे युवावस्था से ही वृद्ध कहलाते हैं।
वृद्धों के अनुभव की प्रामाणिकता- वृद्धों का अनुभव सत्यार्थ हुआ करता है। लोक में भी किसी भी बात की सलाह बुजुर्गों से ली जाती है। छोटी अवस्था वालों का चित्त जो अपने दिल की इच्छा के अनुकूल हुआ करता है। वे सही कोई बात का निर्णय कर लें यह कुछ कठिन है, किंतु जिनकी अवस्था अधिक है उन्हें चूँकि अनेक मार्गों से अपने जीवन में गुजरना पड़ता है और सभी बातों का अनुभव भी होता है तो वे सुलझी हुई बुद्धि के हो जाते हैं। यों ही जो ज्ञान में वृद्ध हैं, विवेकशील मनुष्य हैं, उन्हें अपने ज्ञान को सही रखने के सारे अनुभव होते हैं, उन्होंने ज्ञानतत्त्व का अधिकाधिक अभ्यास किया है। उन्हें ज्ञानसंबंधी, धर्मसंबंधी, मोक्षमार्गी संबंधी सारे अनुभव ठीक-ठीक होते हैं जिन्होंने यह समस्त ग्रंथ लिखा है, बाँचने में ये सभी उपदेश सीधे लगते है कि ऐसा तो जो चाहे उपदेश कर सकता, लिख सकता लेकिन अनुभव करने वाले संत पुरुषों ने जिस शैली से, जिस दृष्टि से लिखा है वे सब शब्द भावों को जल्दी प्रकट करने वाले होते हैं। और साधारणजन उन्हीं शब्दों को कहें तो उनका वह भाव प्रकट नहीं हो पाता है। तो प्रकरण की बात यह कही गयी कि व्रती मनुष्य वे हैं जो विषयों से निवृत्त हैं और ज्ञान का अधिकाधिक अभ्यास करते हैं, मैं ज्ञानमात्र हूँ ऐसी उस ज्ञानस्वरूप की भावना जगना और इस तरह से अपने आपका मनन करना और ऐसा मनन करना कि जिस अन्य किसी बात का मनन करने पर यह केवल उस ही रूप सा बन जाता, इसी प्रकार मैं ज्ञानमात्र हूँ ऐसा मनन करने पर अपने को ज्ञानमात्र अनुभवने लगें और विकल्प दूर हों, इस शैली से जो अपने को ज्ञानमात्र भावना करते हैं वे मनुष्य वृद्ध हैं। उनकी सेवा दुर्धर ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने में साधक होती है।