वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 806
From जैनकोष
दहति दुरितकक्षं कर्मबंध लुनीते
वितरति यमसिद्धिं भावशुद्धिं तनोति।
नयति जननतीरं ज्ञानराज्यं च दत्ते ध्रुवमिह मनुजानां वृद्धसेवैव साध्वी।।
वृद्धसेवा से पापों का दहन- यह प्रकरण चल रहा है ज्ञानी संतजनों की संगति करने का। इसका संक्षिप्त नाम है वृद्धसेवा। वृद्ध के मायने उमर में बड़े नहीं, किंतु जो ज्ञान, संयम, तप में बढ़े चढ़े हैं ऐसे पुरुषों को वृद्ध कहते हैं। उनकी उपासना करना, संगति करना, सेवा करने ये अनेक अनर्थों को, संकटों को दूर करते हैं और गुणों का विकास करते हैं और साक्षात् काम जैसे विकारों को सुगम उपाय से नष्ट कर देते हैं। सज्जन पुरुषों के सत्संग में निवास हो, भक्तिपूर्वक उनकी सेवा का भाव हो तो उस अवसर में काम विकार नहीं जगता। ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के लिए संत पुरुषों की संगति एक अपूर्व औषधि है। यहाँ सज्जन पुरुषों की सेवा करना ही उत्तम है क्योंकि यह वृद्धसेवा अर्थात् सज्जन पुरुषों की सेवा उपासना पापरूपी वन को दग्ध कर देती है। वृद्धसेवा के प्रतिकूल कुसंग का अनुभव देखिये- जब मोही जनों के बीच ही रात दिवस रहना होता है और उस ही रागद्वेष में निरंतर चित्त बना रहता है उस समय जीवन प्रगतिशील तो रहता नहीं, कुछ दूभर सा जीवन लगने लगता है, और सत्पुरुषों की सेवा में निर्विकाररूप से समय के व्यतीत होने में ऐसा आत्मबल प्रकट होता, भावशुद्धि प्रकट होती कि पापरूपी वन जल जाता है अर्थात् पापों का नाश होता है।
वृद्धसेवा से कर्मबंधविनाश तथा भावशुद्धिविकास- यह सत्संगति कर्मों के बंधन को काट देती है, और उपाय ही क्या है इस जीव की उन्नति के लिए? प्राथमिक उपाय यही है सत्संगति। जिन जिन मनुष्यों ने कुछ भी तरक्की की है उनकी तरक्की का मूल कोई न कोई सत्संग रहा है, बड़े-बड़े पुरुषों के जीवन पढ़ लीजिए पुराण पुरुषों के चरित्र पढ़ लीजिए। आज के भी जो नायक पुरुष हैं, धर्म के नायक, समाज के नायक, देश के नायक उनके चरित्र को भी देख लीजिए- उनकी उन्नति का प्रारंभ किसी न किसी सत्संग से हुआ है। यह सत्संग चारित्र की शुद्धि को प्रदान करता है। अकेले रहने में या मोही जनों के बीच रहने से धीरता का भाव शिथिल होता है और चारित्र को भी नष्ट कर देता है। जैसे कितने ही लोग कहा करते कि अमुक ने अमुक प्रतिमा ली, अमुक व्रत लिया, अमुक त्याग किया, कुछ दिन तो चला और बाद में फिर न चला, इसका मुख्य कारण क्या है? सत्संग नहीं किया। सत्संगति न हो तो धीरे-धीरे वह भाव शिथिल हो जाता है और जब कुछ समृद्धि होती हैं, आनंद के दिन कटते हैं, सांसारिक मौज में समय व्यतीत होता है तो व्रत नियम की ओर उत्कंठा नहीं रहती, शिथिल हो जाते हैं। किसी जंगल में एक पुरुष एक खजूर के पेड़ पर चढ़ गया, चढ़ तो गया, जब बिल्कुल ऊपर पहुँच गया और नीचे निगाह डाली तो उसे बड़ा भय लगा, कहीं मैं गिर न जाऊँ, कैसे उतरेंगे? जब दिल में भय बैठ जाता है तब कुछ शूरता नहीं रहती, बल काम नहीं देता। तो सोचने लगा कि हे भगवन् ! यदि मैं अच्छी तरह से उतर गया तो 100 ब्राह्मणों को जिमाऊँगा। थोड़ा साहस किया तो वह कुछ दूर खिसक आया। अब सोचता है कि 100 तो नहीं, पर 50 ब्राह्मणों को जरूर खिलाऊँगा, जब और कुछ नीचे खिसक आया तो सोचता है कि 50 तो नहीं पर 5 ब्राह्मणों को जरूर खिलाऊँगा। जब बिल्कुल नीचे उतर आया तो सोचता है- वाह उतरे तो हम हैं, क्यों हम ब्राह्मणों को खिलायें? यह एक दृष्टांत मात्र कहा है। जब कोई आपत्ति आती है, तब धर्म की बड़ी भावना होती है। जैसे जब कभी रोगादिक में या किसी घटना में जब यह संदेह होता है कि प्राण न बचेंगे तो सोचते हैं कि इस बार अगर हम बच गए तो खूब धर्म करेंगे, इस सारे जगजाल से कुछ मतलब न रखेंगे, पर जब उस आपत्ति से बच गए तो फिर वे सारी बातें भूल जाती हैं, और जैसे का तैसा रवैया फिर चलने लगता है। तो यह जीव अनादिकाल से विषयों की ओर लगा है, वही चित्त में पड़ा है, उसका ही संस्कार है तो उस संस्कार से हटना एक बहुत बड़ा काम है। यह अपने आप अकेला अपने मन के अनुकूल कुछ से कुछ गुनता रहे जिससे कि भावों में निर्मलता जगे। कुछ समय सत्संग भी चाहिए, उससे फिर अपने आपका बड़ा संवेदन बढ़ता है। तो यह संवेद्य भावों की शुद्धि को उत्पन्न करता है और अधिक क्या फल बताया जाय, सत्संगति के प्रताप से भावों की निर्मलता का परिहार होता है जिससे संसार से पार होकर, ज्ञानसाम्राज्य को यह आत्मा प्राप्त कर लेता है। सत्संगति के प्रताप से उत्तरोत्तर निर्मल भावों को बनाता हुआ यह जीव सदा के लिए संकटों से छूट जाता है, निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्मचर्य की सिद्धि के प्रयोजक सत्संग से होने वाले लाभों के वर्णन का समापन- यह प्रकरण सत्संगति का चल रहा था, यहाँ समाप्त होने को है। सत्संग का प्रकरण इसलिए दिया गया है कि ध्यान साधना में अंग है एक सम्यक्चारित्र। उससे ब्रह्मचर्य व्रत का वर्णन चल रहा है। ऐसे ब्रह्मचर्य व्रत की सिद्धि सत्संग से होती है, ऐसा बताने के लिए सत्संग का वर्णन किया था। संसार में भ्रमते हुए हम आप सब जीवों को केवल अपने आत्मा का ध्यान ही शरण है अन्य कुछ समागम शरण नहीं है। अनेक बातें तो जीवन में ही अनुभव कर ली गई हैं कि कौन शरण होता है? सब अपने अपने विषय और कषायों के भावों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं, हमारा उनसे कुछ हित नहीं है। ऐसी बात सुनकर कोई सोचे कि ये तो सब मतलबी हैं, स्वार्थ के साथी हैं, इन्हें ठुकरावो, इनसे घृणा करो, ऐसी बात नहीं कही जा रही है, यह तो एक वस्तु का स्वरूप बताया जा रहा है। कोई भी पदार्थ कुछ भी बनता है तो वह खुद अपने लिए बनता है। जीव अजीव सबकी भी यही बात है। प्रत्येक पदार्थ अपने प्रयोजन के लिए परिणमता है। जीव जो भी कार्य करता है वह अपनी शांति के लिए करता है और इन भौतिक पदार्थों में जो जिस रूप परिणमता है वह अपना अस्तित्व रखने के लिए परिणमता है, क्योंकि परिणमे बिना वस्तु की सत्ता नहीं रहती, तो समस्त पदार्थों का प्रयोजन खुद अपने आप है, यह वस्तु का स्वरूप है। तो इन जीवों ने अपने ही स्वार्थ के लिए काम किया, अपनी ही कल्पना की, अपने ही सुख शांति के लिए किया, इसमें घृणा करने की कोई बात नहीं है, यह वस्तु का स्वरूप है, जान लीजिए कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं अपने प्रयोजन के लिए परिणमता है। इससे यह शिक्षा लेना है कि जब जगत का ही ऐसा स्वरूप है, प्रत्येक जीव जो कुछ करते हैं वे अपने लिए ही करते हैं, तो मैं भी जो कुछ कर रहा हूँ अपने लिए कर रहा हूँ। अब मैं ऐसा कौनसा काम करूँ जो अपने लिए हितकर हो? तो इसका सीधा उत्तर है कि रागद्वेष मोह का जो हमने परिणाम किया है, परवस्तुवों से ममता की है वह अपने बुरे के लिए ही किया। मैं केवल अपने इस कारणपरमात्मतत्त्व ज्ञानमात्र निज स्वभाव की दृष्टि करूँ और यह मात्र मैं हूँ ऐसी उपासना करूँ तो यह कार्य है अपने पूर्ण भले के लिए। और, इसके बीच जितने भी पुण्यकार्य हैं वे इसको इस बात का पात्र बनायें रख सकते हैं कि उनमें यह धर्मकार्य कर सकें।