वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 940
From जैनकोष
न्यायमार्गे प्रपन्नेऽस्मिन् कर्मपाके पुर:स्थिते।
विवेकी कस्तदात्मानं क्रोधादीनां वशं नयेत्।।940।।
क्रोध करने की अयुक्तता का कथन― वे ज्ञानी संतपुरुष ऐसा विचार करते हैं कि यह जो कर्मों का उदय है, सो न्यायमार्ग में प्राप्त है, अर्थात् जो किया है उसका उदय आना ही चाहिए यह न्याय की बात है। पापकर्म के उदय में कोई जीव सुखी हो जाय तो यह बात नीति के विरुद्ध होगी, पर पाप का उदय हो और वह दु:खी हो रहा है तो वह तो एक सही काम हो रहा है। तो ज्ञानी पुरुष विचारता है कि यह जो कर्मों का उदय है सो बिल्कुल न्यायमार्ग की बात है। इसके निकट होने पर, कर्मों का उदय आने पर फिर ऐसा कौन विवेकी है जो अपने को क्रोधादिक के वश में कर डाले। जो कोई अपना बिगाड़ करता है तो अपने पूर्व जन्म के बद्ध कर्मों के उदय के अनुसार करता है। कर्म बंधते हैं और उनका उदय आयगा यह न्यायमार्ग की बात है। इस कारण यदि ऐसा ही कर्मोदय आया है, जिसमें मुझ पर विपदा और उपसर्ग आ रहे हैं, तो मुझे क्रोध करना युक्त नहीं है। क्रोध करने से फिर नये कर्म की उत्पत्ति होती है और आगे की संतति चलती रहती है। जिसने अपने आपके कल्याण मार्ग का निर्णय कर लिया उसे तो संसार संकटों से, विकारों से छूटने का ही काम पड़ा हुआ है। लोक में और कोई मेरे को काम नहीं है ऐसी जिसे आत्महित की धुन बनी है वह पुरुष विचार कर रहा है। जब कभी क्रोधादिक के कारणभूत उपसर्ग आयें, जिन उपसर्गों से साधारणजन व्यथित हो जाते हैं, क्रोधमग्न हो जाते हैं उनके आने पर विचार करता है ज्ञानी कि यह न्याय की बात हो रही है। जो पूर्वजन्म की खोटी कमाई है उसे क्यों न सहना चाहिए, वह तो न्याय की बात है। किसी का कर्ज लिया हो तो वह कर्ज तो उसका चुकाना चाहिए और उसके घर जाकर चुकाना चाहिए। और, यदि वह खुद ही आ रहा है तो वह अच्छी ही बात है। चुका दें कर्ज। ऐसे ही ये कर्म जो हमने खोटे किये उनका मुझ पर कर्जा चढ़ा हुआ है और वे सब निरखने के लिए आ रहे हैं, मुझे ऋणमुक्त करेंगे तो यह भली बात है। ज्ञानी पुरुष कभी किसी भी उपद्रव में दूसरे पुरुषों पर क्रोध नहीं करते। क्या किया दूसरे ने। मेरा ही उदय खोटा था। हो गया मेरा खोटापन। पर मुझे कोई दूसरा पुरुष बिगाड़ दे या दु:खी कर दे यह बात संभव नहीं है। सब अपने-अपने परिणामों के अनुसार दृष्टि बनाते चले जाते हैं। में दु:खी रहूँगा तो यह भी न्याय की बात है। जब हम किसी दूसरे पुरुष को दु:खी देखते हैं तो यह कह बैठते हैं कि इसने बहुत बुरा कार्य किया है सो उसका फल मिला है, यों यहाँ ठीक है, कर्म का उदय आया तो विपदा आनी ही चाहिए। ऐसा जो चिंतन करते हैं वे क्रोधभाव नहीं लाते और जो उपसर्ग आये हैं उन्हें समता से सह लेते हैं। यों क्रोध के विजय करने के लिए ज्ञानी संत पुरुष चिंतन कर रहे हैं कि क्रोध दूर होगा तो विवेक हमारा सही रहेगा और उस सद्विवेक में अपने कल्याण का उपाय बन सकेगा, अतएव ज्ञानी पुरुष क्रोधभाव नहीं लाते।