वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 106
From जैनकोष
सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं ।
मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धबुद्धोणं ।।106।।
मोक्षमार्ग का निर्देश―इस गाथा में मोक्षमार्ग की सूचना दी हे । मोक्षमार्ग की प्रसिद्धि के लिए इस अधिकार में 9 पदार्थों का वर्णन किया जायगा । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान से युक्त जो सम्यक्आचरण है वह मोक्ष का मार्ग है अर्थात् सप्त तत्त्वों का यथार्थज्ञान, यथार्थ श्रद्धान और यथार्थ श्रद्धान के अनुरूप अपनी सिद्धि बने, इसके लिए चारित्र का धारण यह मोक्षमार्ग है । यह मोक्षमार्ग रागद्वेष रहित समतारस से परिपूर्ण है । यह मोक्षमार्ग बुद्धिमान पुरुषों के, विवेकी जनों के प्रकट होता है, जो कि भव्य हैं, मोक्षमार्ग के सन्मुख हैं ।
विधि व प्रतिषेध से विशेषणों की विशेषकता―इस गाथा में जितने शब्द दिए गए हैं वे शब्द प्रस्तावित बात का समर्थन करते हैं और उनसे विपरीत बात का खंडन करते हैं ।जैसे यह बताया है कि सम्यक्त्व ज्ञान से सहित चारित्र मोक्ष का मार्ग है तो इसका अर्थ प्रतिषेध रूप में यों ले लीजिए कि सम्यक्त्व और ज्ञान से रहित प्रवृत्ति, मोक्ष का मार्ग नहीं है । चारित्र मोक्ष का मार्ग है । तो प्रतिषेध में यहाँ लीजिए कि अचारित्र मोक्ष का मार्ग नहीं है ।इसका प्रतिषेधक अर्थ यह ले लीजिए कि रागद्वेष से सहित जो प्रवर्तन है वह मोक्ष का मार्ग नहीं है । यह मार्ग मोक्ष का बताया जा रहा है । मोक्ष का है, इसका प्रतिषेधक अर्थ यह लीजिए कि यहाँ बंध का मार्ग नहीं कहा जा रहा है । यह मार्ग है अमार्ग नहीं है । यह मार्ग भव्यजीवों को कहा जा रहा है या भव्य जीवों के हुआ करता है । इसका प्रतिषेधक अर्थ यह है कि यह मोक्षमार्ग अभव्य जीवों के नहीं होता है । यह मोक्षमार्ग लब्धबुद्धियों के होता है । जिसे भेदविज्ञान होता है उन ही जीवों के यह मोक्षमार्ग होता है, अलब्धबुद्धियों के मोक्ष का मार्ग नहीं होता है । जब कषाय नष्ट हो जय तब ही यह मोक्षमार्ग होता हैं, कषाय से मोक्षमार्ग नहीं होता है ।
प्रायोजनिक ज्ञान की विशेष अपेक्षा―कथनी तो बहुत हुई है, वर्णन का विस्तार भी गहन है, पर यह विस्तार भी जिन्हें नहीं मालूम वे भी आत्मस्वरूप की दृष्टि की सम्हाल करें ।जिन्हें यह भी नहीं मालूम कि कर्म कैसे कटते हैं, कैसे क्लेशों का खंडन होता है, वे भी निजस्वरूप की दृष्टि से इस आत्मज्ञान के प्रताप से इन सब कार्यों को कर लेते हैं । ज्ञान कर सकते हैं और समय हो बुद्धि हो तो प्रत्येक दशा का ज्ञान करना चाहिए । नाना विषयों का ज्ञान करे, शब्दशास्त्र, न्यायशास्त्र, व्यवहार शास्त्र विज्ञानवाद सबका अध्ययन करे, जिसकी दृष्टि आत्महित होती है वह प्रत्येक स्थितियों में अपने मर्म की बात निकाल लेगा । उसको वृत्ति तो आत्महित में भली प्रकार होती है लेकिन जो विविध विषयों के ज्ञान करने में समर्थ नहीं हो रहे हैं वे भी यदि प्रयोजनभूत स्वपर भेदविज्ञान की बातों को भली प्रकार समझ लें, श्रद्धा में लायें और इस ही प्रकार का भाव करें, अपने आपकी ओर ठहरें तो वे भी कुछ समय बाद सर्व प्रकार का ज्ञान करके निर्विकल्प स्थिति में आ जाते हैं और वे रत्नत्रय की अवस्था से पार होकर कैवल्य, अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं । हम आपका कर्तव्य यह है कि जो चौबीसों घंटों में दिल पीड़ित हो जाता है उसकी थकान को मेटने के लिए, उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए निज सहज चैतन्यस्वरूप का चिंतन और ध्यान करना चाहिए । मोक्षमार्ग के लिए हम आपका यह कदम बहुत उपयोगी है ।