वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 107
From जैनकोष
सममत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं ।
चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ।।107।।
नव पदार्थ व व्यवहार रत्नत्रय―यह दूसरा अधिकार 9 पदार्थों का चल रहा है । इसमें जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष―इन 9 पदार्थों का वर्णन चलेगा । यह वर्णन मोक्षमार्ग से संबंधित है । नौ पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान होना सो सम्यग्दर्शन है और उनका ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है और समतापरिणाम होना, विषयों में प्रवृत्ति न करना सो सम्यक्चारित्र हैं । ये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व्यवहारदृष्टि से कहे गए हैं । इस ही व्यवहार रत्नत्रय का इसमें प्रतिपादन है । वीतराग सर्वज्ञदेव के द्वारा प्रणीत जो भाव है उस भाव का श्रद्धान करने वाला जो परिणमन है उसका नाम है सम्यग्दर्शन । इससे पहिले अधिकार में जो 5 अस्तिकायों का वर्णन किया है और काल सहित 6 द्रव्यों का वर्णन हैं, उनके ही भेदरूप ये नौ पदार्थ हैं । इन नौ पदार्थों में उत्तर के 7 पदार्थ परिणमन तो जीव और पुद्गल के हैं, किंतु उन परिणमनों में किसी न किसी प्रकार से शेष के द्रव्य निमित्तभूत हैं, अत: नौ पदार्थ सबके सब इन 6 द्रव्यों से संबंध रखते हैं ।
अश्रद्धानपरिहार व श्रद्धान―नौ पदार्थो का मिथ्यादर्शन के उदय से अश्रद्धान उत्पन्न हुआ करता था, अब उस अश्रद्धान का अभाव हो गया, अब इन्हीं का श्रद्धान अन्य अपूर्व भाव पद्धति से होने लगा । यह मिथ्यादृष्टि जीव पहिले अपने आपको शरीर निरखकर 'यह मैं हूं' ऐसी प्रतीति रखता था, अब यह सम्यग्दृष्टि जीव सर्व से न्यारे एक चैतन्य स्वभावमात्र अपने आपको परखकर अपने आप में आनंद बढ़ा रहा है । आनंद तो जब कभी भी मिलेगा हम आपको कोई भी चेतन हो, उन परपदार्थों के विकल्प से हटकर अपने आपके स्वरूप में हम समायेंगे तब आनंद मिलेगा । शेष प्रक्रियाएँ तो सब मेलजोल की हैं । यह अज्ञानी उन प्रक्रियावों में अपने उपयोग का व्यर्थ का विस्तार बढ़ा बढ़ाकर हैरान हो रहा है । मैं क्या हूँ, इसका निर्णय सही जब तक नहीं हो पाता है तब तक यह जीव गरीब है ।
आनंदधाम के परिचय में अमीरी―भैया ! जो आनंदधाम है, जिसमें इसे आनंद प्रकट होता है उस आनंदधाम की पकड़ न हो तो वह तो नितांत गरीब है । ये संसारी मनुष्य जन बाहरी अचेतन पदार्थों का संचय कर के उनको निरखकर मानते हैं कि मैं बड़ा हूँ, किंतु है वहाँ इसका कुछ? कुछ भी नहीं । जब आनंद सुधारस इसके भर नहीं सकता तो वह अमीर कैसे? 3 लोक के जड़ पदार्थ भी समक्ष आ जायें तो भी वह गरीब है, क्यों गरीब है कि आत्मा का शुद्ध आनंद सुधारस का पान यह नहीं कर सका है । संसार की विधि संसार की तरह है, मोक्ष की विधि मोक्ष की तरह है । यह श्रद्धान 9 पदार्थों का यथार्थ ज्ञान ही शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व के परिचय का बीजभूत है अर्थात् व्यवहार सम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्दर्शन का कारण है । 9 पदार्थो की यथार्थ श्रद्धा निज शुद्ध चैतन्यस्वभाव के यथार्थ अनुभव का कारण बन सकती है ।
मिथ्यात्व में विपरीत श्रद्धा―मिथ्यादर्शन के उदय से इसका ऐसा संस्कार बना है कि जिससे यह अपने बारे में उल्टा ही समझता है । जैसे नाव में बैठा हुआ पुरुष अपना चलना नहीं देख पाता, अन्य स्थिर जो तट के निकट पेड़ खड़े हैं उनका चलना निरखता है अथवा कभी-कभी रेलगाड़ी में बैठा हुआ मुसाफिर यों निरखता है कि ये पेड़ जल्दी-जल्दी चले जा रहे हैं । मुसाफिर अपने आपकी कुछ परिणति नहीं निरख पाता है, किंतु बाहरी-बाहरी ही परिणमनों को सारभूत निरखता जाता है ।
अंतस्तत्त्व में संशय विपर्यय व अनध्यवसाय―इस मिथ्यादृष्टि जीव को संशय विपर्यय और अनध्यवसाय तीनों ज्ञानाभास बने हुए हैं । मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्वों में इसे संशय है, ऐसा है या ऐसा है, ऐसा संशय बना रहता है । एक तो मिथ्यादृष्टि जीव इस तरह के होते हैं । कोई विपर्यय ज्ञानी होते हैं, हो तो कुछ और प्रकार, मानेंगे कुछ और प्रकार । जैसे जीव है तो चेतन, पर मानेगा भौतिक । इन पृथ्वी आदिक महाभूतों से यह उत्पन्न होता है । कुछ लोग अनध्यवसाय वाले हैं, वे इस संबंध में कुछ जानने की उत्सुकता ही नहीं रखते हैं । यों संशय विपर्यय अनध्यवसाय से अंधेरे में पड़े हुए मिथ्यादृष्टि जीवों के जब, विवेक भाव होता है, तत्त्वज्ञान का पुरुषार्थ होता है तो ये सब कुज्ञान दूर होते हैं और स्पष्ट अपने आपका निश्चय हो जाता है ।
निजविनिश्चय की आवश्यकता―जिसे सुखी होना है उस ही का कुछ जब पता नहीं है तो सुखी होने का मार्ग कहाँ से पावेगा? सुखी होने के लिए समझ लो कि आखिर जिसे सुखी होना है वह मैं हूँ क्या? एक अपने आपके स्वरूप का विनिश्चय हुए बिना कोई सुखी नहीं हो सकता । 9 पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । इसका विस्तार से वर्णन स्वयं गाथावों में आयगा कि 9 पदार्थ क्या हैं और उनका क्या स्वरूप है? यह तो हुआ व्यवहार सम्यग्दर्शन ।
सम्यग्ज्ञान―सम्यग्ज्ञान क्या है? जैसा यह पदार्थ है उसका उसके स्वरूप से ज्ञान करना सो सम्यग्ज्ञान है । यह सम्यग्ज्ञान ज्ञानचेतना प्रधान है अर्थात् यह ज्ञानस्वरूप के निकट है, इस कारण यह आत्मतत्त्व की उपलब्धि का बीज है । 9 पदार्थों के यथार्थ ज्ञान के उपाय से यह ज्ञानी पुरुष इस निज विशुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि के निकट पहुंच जाता है, यही है सम्यग्ज्ञान ।
सम्यक्चारित्र―सम्यक्चारित्र―जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का प्रकाश बन गया तो यह जीव कुमार्ग से छूटकर अपने ही आत्मतत्त्व में विशेष रूप से लगता है । जब अपने स्व-तत्त्व में यह ठहरने लगता है, इंद्रिय और मन के विषयभूत पदार्थों में रागद्वेष पूर्वक विकार नहीं रहा करते हैं उस समय इसका निर्विकार ज्ञानरूप परिणमन होने लगता है । वही समभाव है, इसी का नाम चारित्र है । यह समभाव जिस व्यक्ति में प्रकट होता है उस समय भी यह अति रमणीक है, अपने आपको अपने आप में बड़ा आराम मिलता है । जब किसी भी अकार का विकल्प उठता रहता है तो यह आत्मा थक जाता है । अंतर में जब किसी भी प्रकार का राग परिणाम जगता है उस थकान को मिटाने में समर्थ यह समतापरिणाम है । जिस समय में समतापरिणाम जगता है, किसी भी परवस्तु में 'यह मेरा है' इस प्रकार का विकल्प नहीं उठता, उस ही समय यह अपूर्व विश्राम को प्राप्त होता है और भावीकाल में तो यह अति उत्कृष्ट अपुनर्भव के आनंद का कारण बनता है ।
व्यवहारसम्यक्चारित्र का प्रभाव―व्यवहारसम्यक्चारित्र की भी कितनी अपूर्व महिमा है? कोई इंद्रिय और मन के विषय को छोड़कर परख कर सकता है। सर्व जीवों में राग और द्वेष करने की परिणति न करके एक समतापरिणाम से विश्राम से रहकर अनुभव कर सकता है कि सम्यक्चारित्र में कितनी सामर्थ्य है । ऐसा यह त्रिलक्षण मोक्षमार्ग को आगे निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों दृष्टियों से बतायेंगे । यह तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का अथवा दर्शनज्ञान के विषयभूत जो 9 पदार्थ हैं उनकी सूचना भर दी गई है कि 9 पदार्थ ये हैं । यों 9 पदार्थों का वर्णन करने के रूप में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की बात कही गई है ।
विवेक और विवेकफल―भैया ! हम अपने आपके बारे में मोटे रूप में इतना तो समझते ही रहें कि यह देह मैं नहीं हूँ । मैं एक जाननदेखनहार चैतन्यतत्त्व हूँ । इन देहादिक अचेतन पदार्थों में जब मैं आकर्षित होता हूँ तो कर्मों का आस्रव होता है, कर्मरूप परिणमन होता है और उन कर्मवर्गणावों की कषायों के अनुसार स्थिति बँध जाती है, ये कर्म कितने वर्षों तक रहेंगे―यह स्थिति पड़ जाती है और कषायों के अनुसार फल देने की शक्ति उनमें पड़ जाती है, यों ये कर्म बँध जाते हैं और बाह्यपदार्थों में विकल्प न रक्खें, उनका आश्रय न करें तो यह उन आस्रव और बंधों से दूर हो जाता है, तब पहिले के बंधे हुए कर्म खिरने लगते हैं । इस पुरुषार्थ के प्रताप से इस जीव का निर्वाण हो जाता है । यों 9 पदार्थों को स्थूल रूप से जानने की प्रारंभिक बात यह है । अब उन पदार्थों का नाम और स्वरूप बतला रहे हैं ।