वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 29
From जैनकोष
जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरिसी य ।
पप्पोदि सुहमणंतं अव्वाबाधं सगममुत्तं ।।29।।
शक्ति और व्यक्ति―यह चेतयिता स्वयं सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर अनंत अव्याबाध सुखों को प्राप्त करता है । यह आत्मा ज्ञान दर्शन सुखस्वभाव वाला है । जो शक्ति जिस द्रव्य में नहीं होती है उसका विकास कहाँ से होगा? कोई-सा भी विकास, परिणमन किसी अन्य द्रव्य से नहीं आता । अपने में ही रहने वाली शक्ति का विकास ही परिणमन है । ज्ञान, दर्शन, आनंदस्वभाव वाला होकर भी संसार अवस्था में अनादिकाल से कर्म संक्लेश के कारण इसकी आत्मशक्ति संकुचित हो गयी है । अब परद्रव्यों के संपर्क से क्रम-क्रम से कुछ-कुछ जानता है, देखता है और ऐसे सुख का भी कदाचित् अनुभव करता है जो पराधीन है, मूर्तिक पदार्थों के संबंध से हुआ है, जिसमें अनेक बाधायें हैं, ऐसे सांसारिक सुख का अनुभव भी वह करता है ।
सांसारिक सुखों की पराधीनता―संसार में जितने भी सुख हैं वे सब सुख परापेक्ष हैं, यद्यपि वह सुखपरिणमन आत्मा की आनंदशक्ति का ही विकास है, फिर भी किसी परपदार्थ की दृष्टि हुए बिना, किसी पर को कल्पना में लाये बिना सांसारिक सुख की प्रादुर्भूति नहीं होती है, इस कारण ये समस्त सुख पराधीन हैं । जैन नाम तो वास्तव में उसका है जो जिन भगवान के इस तात्विक उपदेश को अपने चित्त में उतारे । न अपने चित्त में उतारे कोई तो, जैन नाम कहलवा लेने से कहीं शांति का मार्ग नही मिलता । शांति तो शांति की पद्धति से ही होती है ।
वास्तविक देवभक्ति―अधिक आसक्ति हो, तृष्णा हो, यह मेरा है यह पराया है इस प्रकार की कुवासना होना, ये सब बातें चित्त में हों तो हमने भगवान की क्या भक्ति की? भगवान की आज्ञा के विरुद्ध चलें और वचनों से केवल भगवान की प्रशंसा कर दें तो इतने मात्र से भक्ति भी नहीं होती । सही भक्ति आज्ञाकारिता में है । चित्त में कभी-कभी तो सब जीवों का समान स्थान आ जाना चाहिए । अरे किसी दिन तो माने हुए परिजनों को छोड़कर जाना ही होगा । फिर ये परिजन क्या तुम्हारे कुछ होंगे? भला हो कि अपने ही इस जीवन में गृहस्थ होकर भी चित्त को इतना उदार बनायें कि इसमें यह मेरा है, यह पराया है―इस तरह की कुवासना की मुद्रा न बने तो यह पुरुष, अर्थात् आत्मा ज्ञान दर्शन सुख स्वभाव वाले अपने स्वभाव को निहार सकता है । यदि यह निहारता है अपने स्वरूप को तो इसका विकास कर लेगा । नहीं निहारता है तो अन्य पदार्थों की भीख माँगना, आशा करना यह अपने क्लेश संक्लेश से पाप का बंध करेगा । ये सांसारिक सुख पराधीन हैं । सिद्ध भगवान का आनंद स्वाधीन, है, यही तो अंतर है, नहीं तो सिद्ध पूज्य किस बात से होंगे?
सांसारिक सुख की पराधीनता का संक्षिप्त विवरण―भैया ! कितनी अधीनताएं हैं सांसारिक सुख में? मूल में तो अनुकूल कर्मोदय हो, साथ ही कुछ उदय के विपाक के सहारे नोकर्म, साधन, विषयों का संबंध मिले । अब व्यवहारदृष्टि से देखो―लौकिक समागम जिनको प्राप्त है वे प्रसन्न रहें, अनुकूल रहें, उन्हें अपनाये, सब बातें बने तो सांसारिक सुख मिले, किंतु ऐसा होना इनके अधीन नहीं है । सभी चीजें अपना-अपना अस्तित्व लिए हुए हैं । उनकी कषाय उनमें उनके रूप है । कोई जीव वस्तुत: मुझे चाहता नहीं है, वे अपने आपके ही विषय को चाहते हैं । दूसरों के चाहने में उनकी पूर्ति में यदि मैं निमित्त हो सकता हूँ तो उसका ख्याल कर के वे लोग कहा करते हैं कि हमें इनसे प्रेम है । कोई जीव किसी दूसरे से प्रेम कर ही नहीं सकता, चाहे वह पिता-पुत्र हो, चाहे पति-पत्नी हो, कोई हो, यह वस्तु का अकाट्य स्वरूप है । कोई किसी से न प्रेम कर सकता है, न द्वेष कर सकता है । क्या वास्ता है? प्रत्येक पदार्थ अपना स्वरूप लिए है, अपने आपमें परिणमता है । इस कारण अपने में कितनी भी चाह बनाये तो भी पर की सिद्धि नहीं होती । सांसारिक सुख में बड़ी पराधीनता है और कदाचित् पुण्य का ऐसा ही सुयोग मिल रहा है, सुख मिलता जा रहा है, वर्ष दो वर्ष 10 वर्ष बीत गये, बड़ा मौज रहा । किसी दिन बिगड़ गयी तो सारा पन्ना पलट गया । अब जितना अधिक इष्ट माना जाता था उससे कई गुणा अनिष्ट माना जाने लगा । तो ये सांसारिक सुख पराधीन हैं और फिर इनमें है क्या?
कामस्पर्शन में पराधीनता व असारता―सांसारिक सुख 6 भागों में बंटे हुए हैं―स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र और मन के सुख । 6 भागों में बंटे हुए इन सुखों में से प्रत्येक पर दृष्टि डालें तो किसी सुख में सार नजर न आयगा । स्पर्शनइंद्रिय के सुख में लोग कामवासना की पूर्ति को प्रधानता देते हैं । वहाँ भी है क्या? हाड़, मांस, लहू आदि अपवित्र चीजों का यह पिंड है । जब रागभाव न हो उस समय देख लो सारा शरीर गंदा दिखता है कि नहीं, पर जब राग होता है, कामवेदना होती है तो वह गंदा शरीर भी उसको गंदा नहीं नजर आता, किंतु जब शांतचित्त हो, वेदना रहित हो उस समय परख लो, अपना शरीर भी गंदा मालूम होगा, अपना शरीर भी बोझ मालूम होगा, पर का शरीर भी बोझ मालूम होगा । और फिर उस क्षणिक सुख से आत्मा को लाभ क्या होता है? अंत में तो यह पछताता ही है ।
स्पर्शन में अहितता―अन्य भी जो स्पर्शनइंद्रिय के सुख हैं, स्पर्शन से ठंडी चीज छू ली, सुहा गयी, गर्म चीज छू ली, सुहा गयी, ये भी तो स्पर्शनइंद्रिय के सुख है । किन्हीं की ऐसी इच्छा होती है कि मुझे शीत और उष्ण का भी समय-समय पर आनंद रहा करे । हाँ संयम का साधन वर्तमान में यह शरीर है, अकाल के समय में यों ही क्यों इसे गुजार दें, इसलिए तेज लू में न बैठना, कहीं लू लगने से प्राणांत न हो जाय, अत्यंत ठंडी शीत जगह में न बने रहना, कहीं निमोनिया होकर प्राणांत न हो जाय, यह तो विवेक की बात है, लेकिन थोड़ा भी ठंड गर्मी सहने का भाव ही न हो तो यह तो इंद्रियविषय है । इसमें भी क्या तत्त्व भरा है? थोड़ी-थोड़ी ठंड गर्मी से दूर रहने के परिणाम में केवल विकल्पजालों मे गुँथा रहेगा और उन्हीं कल्पनाओं में दुःखी होगा ।
रसनेंद्रियज सुख की असारता―रसनाइंद्रिय का सुख ले लो । उसमें भी क्या तत्त्व है? प्राण रखने के लिए थोड़ा-सा भोजन पानी चाहिए यों समझ लो । यह भी तो इज्जत है, भोजनपान चाहिए । ठीक है, अब उसमें रसीला ही मिले, स्वादिष्ट ही भोजन करें, उससे कौन-सा लाभ लूट लिया? क्षणिक सुख का मौज आ गया, वह तो रौद्रध्यान है । उसमें भी लाभ क्या हुआ? रसीला, गरिष्ठ और इतना ही नहीं भरपेट भोजन भी विषय में शामिल है । कोई यह सोचे कि हम बहुत गरिष्ठ नहीं खा पाते, नहीं मिलता, किंतु बहुत ठूंस कर खा लें तो ऐसा खाना भी विषय में शामिल है । खाने के बाद खाट पर लेट जाना पड़े, चाहे अनेक कष्ट भी आ जायें, पर हमारा पेट खूब भरा रहे, ऐसी दृष्टि तो रखी तो ऐसा भरपेट भोजन भी रसनाइंद्रिय के विषय में शामिल है । रसीले स्वादिष्ट भोजन भी रसनाइंद्रिय के विषय में शामिल हैं । परिणाम क्या होता है? पीछे दु:खी होता है । अपना ही शरीर अपने को बोझल हो जाता है । परिणाम क्या निकला?
घ्राणेंद्रियज सुख की असारता―घ्राणइंद्रिय का विषय तो बिल्कुल व्यर्थ-सा लगता है । कुछ इत्र फुलेल आदि सुगंधित पदार्थ सूँघ लिये या कपड़ों में रख लिए ताकि सुगंध मिलती रहे यह तो बिल्कुल बेकार सी चीज है । सारे इंद्रिय सुखों को देखते जाइये कितने पराधीन हैं और उन विषयसुखों में कितनी दीनता करनी पड़ती है? अंतरंग का परिणाम कितना कायर बनाना पड़ता है इन विषय सुखों के भोगने के लिए?
नेत्रेंद्रियज व कर्णेंद्रियज सुख की असारता―नेत्रइंद्रिय का सुख तो बड़ा भोंदूपने से भरा हुआ है । कई हाथ दूर वस्तु है । जरा शकल सूरत रूप आकार प्रकार सुहा गये, अब टकटकी लगाये देख रहे हैं, पराधीन हो रहे हैं । ये सब विषय दीनता से ही भोगे जा सकते हैं । शांति और वीरता से विषय नहीं भोगे जाते । शांति और वीरता तो आत्मउत्थान में मदद देती है । कर्णइंद्रिय का सुख राग रागिनी के भले शब्द सुन लिये, ठीक है, सुनने की कुछ बात नहीं, किंतु उसमें आसक्त होना और सुनकर चित्त में राग काम आदि भाव उत्पन्न होने लगना ऐसी आसक्ति कर्णइंद्रिय के विषय में होती है । कितनी पराधीन बात है? इतने समागम जुटावें, मनावें, खर्च भी करें और फिर दिल भी रखे, इतने पर भी अपने को दीन बनाये बिना कोई-सा भी सुख भोगा नहीं जा सकता।
मानसिक सुख की असारता―मन का सुख यश नामवरी, प्रतिष्ठा, नेतागिरी ये सारी बातें मन के सुख की हैं । इनमें कितना पराधीन बनना पड़ता है? आप लोग तो जानते हैं जब कोई चुनाव का समय आता है तो उम्मीदवार लोग वोटरों को उस समय भगवान मानते हैं । ये हमारा पद रखने वाले हैं । बहुत से तो वोटरों के पैर तक छू डालते हैं । ये सारे सुख पराधीन हैं । ये मूर्त पदार्थों के संबंध से होते हैं । अमूर्त वस्तु का ध्यान करके कोई विषयसुख हुआ करता है क्या? आप एक शंका कर सकते हैं कि अमूर्त धर्म, अधर्म, आकाश, कालद्रव्यों के संबंध में चर्चा चलती है और उस चर्चा के भी प्रसंग में सुख होता है तो देखो ना, अमूर्त पदार्थ के संबंध से भी सांसारिक सुख मिला है या नहीं? नहीं मिला । वह जो सुख लूट रहा है वह अमूर्त पदार्थ के ध्यान का सुख नहीं लूट रहा है, किंतु जिन लोगों में हम चर्चा करते हैं, जिनसे बात करते हैं उनको मन का विषय बनाया है और उनको विषय बनाकर उस संबंध में वे सुख लूट रहे हैं ।
प्रभु के सहजानंद का विस्तार―ये समस्त सांसारिक सुख बाधासहित हैं, ये दुःखरूप हैं, जिनको प्राप्त करने के लिए लोग अपना जीवन लगा देते हैं । ये सांसारिक सुख नियम से नष्ट होंगे । भगवान सिद्धप्रभु ऐसे सुखों से आत्यंतिक दूर हो गये हैं । वे तो अव्याबाध आत्माधीन अमूर्त अनंत सुखों को प्राप्त करते हैं । जिस समय इस आत्मा के कर्म क्लेश समस्त रूप से नष्ट हो जाते हैं तब अनर्गल अर्थात् बेरोक-टोक आत्मशक्ति विस्तृत हो जाती है तब यह प्रभु एकसाथ समस्त परिणमनों को जानते और देखते हैं, और साथ ही साथ अपने ही आपके निमित्त से बाधारहित अनंत सुख का अनुभव करते है।
सर्वज्ञसिद्धि की झांकी―इस गाथा में दो बातों पर दृष्टि दिलायी है―एक तो यह कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप सर्वज्ञता का है, इसका स्वभाव अथवा इसका स्वाभाविक कार्य सबको जानने का है, जानने के लिए यत्न नहीं करना है, जानन का तो स्वभाव ही बना हुआ है, पर यह स्वभाव कैसे विकसित होता है उसका उपाय केवल पारमार्थिक अंतस्तत्त्व का आलंबन है । कुछ लोग कहते हैं कि सर्वज्ञ नाम की कोई चीज नहीं है, क्योंकि वह दिख ही नहीं रहा है । सर्वज्ञ का निषेध करने में कुछ ज्यादा बात नहीं करना है, दिख नहीं रहा―इतना ही कह दो । हो सर्वज्ञ तो बता दो । इसका समाधान सुनिये―यह तो बतावो कि सर्वज्ञ नहीं है ऐसा जो तुम कहते हो तो इस देश में सर्वज्ञ नहीं है या सर्व देशों में सर्वज्ञ नहीं है, इस काल में सर्वज्ञ नहीं है या भूत वर्तमान के सब कालों में सर्वज्ञ नहीं है । सर्वज्ञ का निषेध करने में तुम्हारा मतलब है क्या? यदि कहोगे कि इस देश और इस काल में सर्वज्ञ नहीं है तो यह तो सही बात है, इसमें गलत कुछ नहीं है । यदि यह कहें कि सारे जगत में और समस्त काल में सर्वज्ञ नहीं है तो यह बतावो कि तुम सारे जगत को देख करके कह रहे हो या सारे जगत को देखे बिना कह रहे हो । तुम समस्त काल की बातों को जानकर कह रहे हो कि सर्वज्ञ नहीं है या बिना जाने कह रहे हो? बिना जानकर कह रहे हो तो तुम्हारी बात प्रामाणिक नहीं है, तुमने सर्व देशों को देखा ही नहीं है । सब जगह देख लो और फिर न मिले सर्वज्ञ तो मना करो । सर्वदेश सर्वकाल में देख लो, यदि नहीं है सर्वज्ञ तो यह बात कही जा सकती है कि सर्वज्ञ नहीं है । यदि कहो कि हाँ हमने सर्व देश सर्व काल में देख लिया, कहीं सर्वज्ञ नहीं है तब तो हम आपकी पूजा शुरू कर दें, क्योंकि तुम्हीं सर्वज्ञ हो गये । समस्त लोक को समस्त काल को तुमने देख लिया तो तुम्हीं सर्वज्ञ हो गये । मना क्यों करते हो?
सर्वज्ञत्व के निराकरण के हेतु का निराकरण―सर्वज्ञसिद्धि के संबंध में दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञ न मिल रहा हो तो आपको ही वह अनुपलब्ध है या तीन लोक तीन काल में सबको अनुपलब्ध है? आपके अनुलब्ध मात्र से सर्वज्ञ का अभाव न हो जायगा । कई लोगों को अमेरिका, कनाडा या और छोटे देश जिन में गति नहीं है उनकी अनुपलब्धि है तो क्या उनकी अनुपलब्धि से उन देशों का अभाव हो जायगा? आप यहाँ बैठे हैं, आपको यह पता नहीं है कि पीठ पीछे कौन बैठा है तो क्या उस पीठ पीछे बैठे हुए का अभाव हो जायगा? दूसरें के चित्त की बात की भी हमें अनुपलब्धि है, हमें दूसरे के मन की बात मालूम है क्या? नहीं मालूम है तो क्या उस दूसरे की चित्त की बात का अभाव हो जायगा? नहीं हो जायगा । यदि यह कहो कि तीन लोक तीन काल वाले सब पुरुषों को भी सर्वज्ञ की अनुपलब्धि है तो तुमने उन सबकी परख कर ली क्या? कर ली तो तुम्हीं सर्वज्ञ हो गये । (हँसी) । ये समस्त पदार्थ किसी न किसी के द्वारा अवश्य ज्ञेय हैं, क्योंकि ये हैं ।
सर्वज्ञत्व स्वभाव की सिद्धि―भैया ! सीधा यह प्रकाश भी देखें कि जब ज्ञान का स्वभाव जानन का है तो जानने में बाधा देने वाली ये इंद्रियाँ, शरीर कर्म जब नहीं रहे, फिर जानने का स्वभाव तो बेरोक-टोक सर्वत्र विकसित होगा ना, उसमें सीमा अब कौन करेगा कि यह ज्ञान अब यहाँ तक ही जाने । जब तक इंद्रिय का संपर्क है तब तक इनके विकास में सीमा है, जब अवरोधक नहीं रहता तो सीमा क्यों रहेगी? यों यह प्रभु ज्ञानावरण, दर्शनावरण के क्षय से सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं और मोहनीय और अंतराय के क्षय से ये अपूर्व आनंद को भोग रहे हैं । सिद्ध भगवान जो समस्त पदार्थों को स्वयमेव जानते देखते हैं वे स्वयमेव ही आत्मीय आनंद का अनुभव करते हैं और ये स्वयं के लिए सब कुछ हैं । इनका पर से कुछ प्रयोजन नहीं रहा । यों सिद्ध भगवान का उपाधिरहित ज्ञान है, दर्शन है, आनंद है । इसका समर्थन इस गाथा में किया गया है ।