वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 30
From जैनकोष
पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं ।
सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो ।।30।।
प्राणों से जीवत्व―इस गाथा में जीवत्वगुण की व्याख्या की गई है । जो चार प्राणों कर जीवित है, जीवित रहेगा अथवा जीवित था उसे जीव कहते हैं । वे चार प्राण हैं―बल, इंद्रिय, आयु और श्वासोच्छ्वास । यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से यह जीव शुद्ध चैतन्य आदि प्राणों से जीवित रहता है तो भी अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से देखा जाय तो द्रव्यरूप प्राणों से जीवित रहता है और अशुद्ध निश्चयनय से देखा जाय तो भावरूप प्राणों से जीवित रहता है । जो जीवित है इन प्राणों से वह जीव है । जो जीवित था इन प्राणों से वह जीव है, जो जीवित रहेगा इन प्राणों से वह जीव है । तीन प्रकार के काल के नाम से जो प्राण जीवन का वर्णन किया है वह साधारण, बहिरात्मा जीव में तो अच्छी प्रकार घटित होता है, किंतु जो शुद्ध हो गये हैं उनमें वर्तमान में ये प्राणों से जीवित हैं यह घटित नहीं होता और आगामीकाल में इन प्राणों से जीवित रहेंगे, यह भी घटित नहीं होता । भूत नैगमनय की अपेक्षा यह कहा जायगा कि यह इन प्राणों से जीवित था, इस कारण जीव है । पर निश्चयनय की दृष्टि से तो ज्ञान-दर्शनरूप जो शुद्ध चैतन्य प्राण हैं उनसे यह जीवित रहता है ।
प्राणविवरण―प्राण 4 प्रकार के हैं―इंद्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास । ये चारों के चारों प्राण चित्सामान्य के अनुयायी हैं अथवा चेतना के विवर्त हैं, इस रूप में देखा जाय तो ये ही चार भाव प्राण होते हैं और ये चार पुद्गल से अन्वयी हैं, इस प्रकार निरखा जाय तो ये द्रव्यप्राण होते हैं । जैसे इंद्रिय प्राण इंद्रियावरण के क्षयोपशम से जो आत्मा में उस-उस प्रकार का इंद्रिय द्वारा बोध होता है इंद्रिय ज्ञान है वह है भाव प्राण । और जो ये दिखती हुई इंद्रियाँ हैं, ये हैं द्रव्यप्राण । इसी प्रकार मन, वचन, काय के संपर्क में भी इस योग्य जो अपना बल है वह है भावप्राण और तन, मन, वचन का जो बल है, पौद्गलिक शक्ति है वह हैं द्रव्यप्राण । ऐसे ही आयु के संबंध में जो आयु का उदय है, उदय कर्म का संबंध है वह तो है द्रव्यप्राण और आयु का संबंध होने से जिस प्रकार का इसका जीवन चल रहा है, उस आयु का निमित्त पाकर जो अंतर में तद्विषयक भाव चल रहा है वह है भावप्राण । यों ही जो वायुरूप उच्छ्वास है वह है द्रव्यप्राण । और उस वायुरूप उच्छ्वास के निमित्त से जो आत्मा में एक कुछ जीवन से संतुष्टि संतोष आदिक के ढंग से उच्छ्वास संबंधित भाव चलता है वह है भावप्राण । इस प्रकार यह जीव इन प्राणों से जीवित रहता है ।
संसारावस्था में विभावप्राण का अविच्छेद―उन दोनों प्राणों में से द्रव्यप्राण अथवा भावप्राण उनमें तीनों कालों में कोई-सा भी समय ऐसा नहीं आया कि जिसमें बीच में धारा छूटी हो, बीच में प्राण न रहे हों और बाद में फिर प्राण आ गये हों । चाहे इन प्राणों के भेद प्रभेद की दृष्टि से कमी-बेशी हो आयी है, लेकिन ऐसा कोई समय नहीं हुआ संसार अवस्था में जिस समय इस जीव में इनमें से कोई प्राण न रहा हो । बाद में प्राण आते हों । अनविच्छिन्न धारा से इन प्राणों को धारण कर रहा है यह जीव । इस प्रकार संसारी जीव के जीवत्व की सिद्धि हुई है । हाँ मुक्त जीव में एक शुद्ध ज्ञान, दर्शनरूप भावप्राणों के धारण से जीवत्व का निश्चय करना है ।
प्राणप्रकरण से शिक्षा―यह जीव प्राणों से जीवित है, ऐसा समझाने से हम को किस कर्त्तव्य की शिक्षा मिली है? इन प्राणों की रक्षा करें, अपना ही मतलब रखें, क्या यह शिक्षा मिली है? इसमें यह शिक्षा बसी हुई है कि ये चारों के चारों द्रव्यप्राण मेरे स्वरूप नहीं हैं । ये पौद्गलिक हैं, इनके संबंध से संसार भ्रमण ही रहा करता है । मैं इन प्राणों से भिन्न अपने शुद्ध ज्ञान दर्शनरूप अव्यय प्राणों से युक्त हूँ । मेरा कर्तव्य है कि मैं मन, वचन, काय का निरोध करके पंचेंद्रिय के विषयों से विविक्त होकर शुद्ध चैतन्यभाव प्राणों से युक्त शुद्ध जीवास्तिकाय को दृष्टि में लूं, वह ही उपादेय है । देखिये जहाँ इन प्राणों की रक्षा को उपादेय नहीं कहा है वहाँ धन वैभव के रक्षा की तो कहानी ही कौन करे? केवल एक शुद्ध जीवस्वरूप को दृष्टि में लेकर सोचिये ―शरीर का संबंध, मन का संबंध, इन इंद्रियों का संबंध इस जीव को अनर्थ का ही कारण बन रहा है । जीव का स्वभाव तो समग्र लोक और अलोक की जानकारी कर लेना है, और विशुद्ध निराकुल आनंद में लीन बने रहना है, किंतु हो क्या रहा है? यह सब किसकी करामात है? यह सब द्रव्यप्राणों के संबंध की करामात है । यदि मैं केवल रहता, शरीर तो परद्रव्य है, बंधन में आये हैं, यह शरीर भी साथ नहीं रहता, कर्म भी साथ नहीं रहते, मैं अपने सहज स्वरूप में जैसा हूँ वैसा ही केवल होता तो ये संसार के झंझट क्यों लदते? केवल रहने में ही सुख है, आनंद है, ये द्रव्यप्राण उपादेय नहीं हैं, किंतु विशुद्ध सहजस्वरूप ही उपादेय है ।
दृष्टि का हितकर विषय―देखिये भैया ! जैन होने का लाभ लूटना है तो कहाँ दृष्टि दे? इसको समझिये । यह तो बड़े खेद की बात होनी चाहिए, पछतावा की बात होनी चाहिए कि थोड़े समय को मैं आया हुआ हूँ, कुछ ही समय बाद यहाँ से विदा होना पड़ेगा, कुछ भी मेरे साथ न रहेगा । लोक में कैसा अविवेक हो रहा है कि इन रूपी पौद्गलिक जड़ पदार्थों में सने जा रहे हैं और थोड़ीसी राग चेष्टा दिखा देने वाले इन स्त्री पुत्रादिक परिजनों में सने चले जा रहे हैं । यह तो बड़े खेद की बात होनी चाहिये थी जो कि मोह में मौज की बात मानी जा रही है । अरे अपने आपको यह निरखो कि मैं इन प्राणों से भी जुदा हूँ । जिन प्राणों की लोग रक्षा करते हैं वे प्राण भी संचय और रक्षा के योग्य नहीं हैं । जाना हो तो जावो ।
प्राणरक्षण की परिस्थिति―प्राण को रक्षा के योग्य उस स्थिति में बताया है जब कि यह जीव कल्याण की दृष्टि करने लगा है, किंतु कल्याण के कार्य में पूर्ण निपुणता नहीं प्राप्त हुई है ऐसी स्थिति में बताता गया है कि तुम इन प्राणों की रक्षा बनाये रहो । शरीर संयम का साधन है । अत: कुछ भोजन पान कर लिया करो, यह उस स्थिति की बात है । यदि कोई जीव निपट अज्ञानी है तो प्राण रक्षा से उसको लाभ क्या है? उसका तो जिंदा रहना और न रहना सब बराबर है । जीवित रहकर भी उसने क्या लाभ लूट लिया? और जो जीव आत्मकल्याण की दृष्टि में अभ्यस्त हो चुके हैं और आत्म समाधि में अभ्यस्त हो गये हैं उन पुरुषों को प्राण रक्षा के विकल्प से क्या लाभ है? प्राण रक्षा की तो ज्ञान के अभ्यासी को जरूरत है । प्राणों की रक्षा की जरूरत होने पर बे जरूरत उसको है जो ज्ञानी हुआ है और ज्ञानबल से संयम साधन में लग रहा है । जैसे सरकार जरूरत की जमीन को एक्वायर कर लेती है, ऐसे ही ज्ञानीपुरुष, सम्यग्दृष्टि पुरुष, ज्ञान में अभ्यस्त पुरुष प्राणों को प्रयोजन के अर्थ एक्वायर कर लेते हैं । उन्हें प्राण रक्षा की जरूरत रहती है । वे अपने कल्याण का उद्योग करने वाले हुआ करते हैं, फिर भी यह ज्ञानी इन द्रव्यप्राणों को उपादेय नहीं मानता । ज्ञानी जीवों का एक शुद्ध आत्मतत्त्व का अवलोकन, आश्रय, आलंबन ही उनकी दृष्टि में उपादेय बताया गया है ।
जीवत्वस्वभाव की दृष्टि―इस प्रकरण में जो सबसे पहिली गाथा थी, जिससे यह सूचित हो रहा था कि जीव को इन 9 अधिकारों में बताया जायगा । यह जीव के जीवत्व की बात चल रही है । मैं जीव हूँ क्योंकि मैं स्वत: सहजसिद्ध अपनी प्रतिभास शक्ति से जीवित रहा करता हूँ । समस्त द्रव्यों में विलक्षण सारभूत उत्कृष्ट यह जीवतत्त्व है । जीवतत्त्व के सिवाय अन्य समस्त पदार्थ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल मूर्त हैं, अमूर्त हैं, अनेक चमत्कार इसमें भी हैं, पर एक प्रतिभासशक्ति न होने से ये सब जहाँ के तहाँ धरे हैं । न व्यवस्था अपनी जान पाते हैं, न अपने पराये किसी का कुछ ख्याल है । जीव एक ऐसा विलक्षण पदार्थ है कि वह अनेक पदार्थों की जानकारी करता है, जिसका इतना फैलाव है भावों द्वारा, ज्ञानद्वारा कि लोक में भी क्या अलोक में भी यह फैल जाय ऐसे अपने जीवत्वस्वभाव का आदर करो । मोहममता में कुछ तत्त्व न मिलेगा, जिंदगी व्यतीत हो जायगी और अंत में पछतावा रहेगा ।
आकस्मिकतायें―अच्छा कल की ही बात बतावो―जो जो मोह ममता किया था? जिन जिनके पीछे अपने तन, मन, धन, वचन की चेष्टायें की थीं उन सबके फल में कल के शाम तक कुछ नजर आया था क्या? और अब भी कुछ हाथ है क्या? यों ही आज की भी बात समझ लो । जो-जो मोह ममता की जायगी, जिन जिनको मना-मनाकर खुश रखकर अपने को शांत किया जायगा उनसे कुछ मिलेगा क्या आपको? ऐसे-ऐसे कितने दिन खो दिये । मान लो किसी की आज 60 वर्ष की उमर है तो 365 का गुणा करके देख लो, लगभग 20 हजार दिन गुजर गये, एक दिन की बात नहीं, कौनसा लाभ पाया, कौन सी तृप्ति पायी? बिना प्रयोजन ही जैसा मिला सुंदर असुंदर किसी भी प्रकार का जो भी संबंध मिला, बस ये दो चार जीव तो मेरे प्राण हैं और बाकी सब जीवों में शायद प्राण हों या न हों―ऐसा मतलबी बनकर अपना जीवन गुजार दिया और अंत में यह हालत कर ली ।
ज्ञान के अभाव में क्लेशजाल―भैया ! ज्ञान न हुआ तो जीवन में बड़ी बुरी हालत रहती है । प्रथम तो यह प्रकृति सहयोग नहीं दे रही है । जब पैदा हुए तब रंगा चंगा शरीर रहा, फिर जवान हुए तो बड़ा बलिष्ट शरीर हो गया । जीवन भर सब कुछ किया, अंत में दशा कैसी होती है? शरीर की दृष्टि से बुढ़ापा आता है, शिथिलता होती है, खून नहीं बढ़ता, कमजोरी आ जाती है, जहाँ खाट से भी नहीं उठा जाता, ऐसी-ऐसी कठिन हालत हो जाती है । अंत में भोगा कष्ट, क्लेश, लोग तो ऐसा उद्यम करना चाहते है कि मैं पहिले कष्ट भोग लूँ, बाद की जिंदगी तो सुख में रहे । इसीलिए तो लोग धन कमाते हैं । पहिले कष्ट सह लें, कंजूसी करके, यत्र तत्र भ्रमण करके, जैसी चाहे नीति अनीति करके, दूसरों के लाठी मुक्के सहकर, भूखे प्यासे रहकर रात दिन जुट करके धन कमा लें ताकि ब्याज ही ब्याज से आराम से जिंदगी कटे । लोग तो ऐसा करते हैं कि पहिले कष्ट सह लें, पीछे सुख मिलेगा मगर प्रकृति उल्टा काम कर रही है । तुम सुख खूब भोग लो, पीछे बुढ़ापा के रूप में हम सब सुख की कसर खूब निकाल लेंगे । प्रकृति यह काम कर रही है । कुछ दिखता ही नहीं, अंधेरा है, सब विरुद्ध है, प्रकृति भी विरुद्ध हो रही है, तब कौनसा सुख लूटना, कहां मजे में रहना, क्या ढंग बना? कोई बात ही फिट नहीं बैठती।
ज्ञानभावना की मुक्तता―भैया ! फिट बैठने वाली बात है तो केवल एक ज्ञान है । क्या करना है? खूब ज्ञानभावना बनायें जब तक बल है, जीवन है, सामर्थ्य है तब तक खूब ज्ञानभावना बनाये । अपनी संभाल खूब कर लीजिए । समस्त परपदार्थों से न्यारा केवलज्ञानमात्र यह मैं आत्मा हूँ, इसकी खूब दृढ़ भावना बना लीजिये । फिर डर नहीं बुढ़ापे का । फिर किसी भी चीज का डर नहीं है । नहीं उठा जाता खटिया से तो न उठा जाने दो । हम अपने आप में स्थित उस ज्ञानप्रकाश को निहारते रहें । यह शरीर जैसा वर्तता है वर्तने दो । कोई अशांति नही हो सकती । ज्ञानबल जिसने बनाया है उसको जीवन में अशांति का काम नहीं है । जो अपना ज्ञानबल नहीं बना पाया वह धनी हो जाय तो भी, अथवा बड़ा नेता हो जाय तो भी, कुछ भी पा ले तो भी शांति का कुछ काम नहीं, उसे शांति न मिलेगी ।
आत्मसाधना में सफलता―भैया ! अनवरत अविच्छिन्न धारा से इस भेदविज्ञान द्वारा निज आत्मस्वरूप को भान में लो । यह मैं सबसे जुदा केवल भावमात्र हूँ, ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूँ । भले ही यह आज निमित्तनैमित्तिक संबंध में बढ़-बढ़कर शरीर में बंधा है, लेकिन शरीर में बँधा रहकर भी यह मैं केवल चिन्मात्र स्वरूप हूँ । शरीर से मेरा कुछ नाता नहीं है । जब मैं शरीर भी नहीं हूँ तो अन्य पदार्थों से मेरा नाता क्या है? मैं सबसे विविक्त एक ज्ञानस्वभावमात्र हूँ इस प्रकार की बारंबार भावना की जाय तो सब सफलता है । आप सफल हो गये तो देश को सफल कहा जाता है, काल को सफल कहा जाता है, इस पर्याय को सफल कहा जाता है । मात्र पर्याय की सफलता का क्या अर्थ है? उसका तो अहितरूप अर्थ है, हमारी पर्याय सफल हो जाय, मायने इस पर्याय के बाद पर्यायें और मिले । तो उस पर्याय के फल तो पर्यायें-पर्यायें हैं । जीव की अपने आत्मा की सिद्धि है तो इस पर्याय की वास्तविक सफलता है । आत्मदृष्टि नहीं है तो सफलता का नाम मत लीजिए । न वहाँ शांति हो सकती, न वहाँ निराकुलता आ सकती ।
सहजस्वभाव के उपादेयत्व की शिक्षा―देखो यहाँ यह दृष्टि करायी गयी है कि 5 इंद्रिय, 3 बल, आयु और श्वासोच्छ्वास―इन 10 प्राणों से मेरा स्वरूप अत्यंत न्यारा है, ये भी मेरे कुछ नहीं हैं । इनसे विविक्त केवल चैतन्यमात्र मैं हूँ । जब ये प्राण भी, इंद्रिय भी, शरीर भी, कुछ भी मेरा नहीं है तो अन्य देश, घर, वैभव, परिजन, यश सोचते जावो ये सब भी मेरे नहीं हैं । यदि इन सबसे विविक्त निज अंतस्तत्त्व की दृष्टि नहीं की जा सकती है तो अपने को धर्मी मानने का अभिमान छोड़ दीजिए । धर्म वहाँ ही आयगा जहाँ इस आत्मस्वरूप का भान हुआ । जहाँ आत्मस्वरूप का भान होता है वहाँ सहज वैराग्य प्रकट होता है । इन प्राणों से भी भिन्न केवल ज्ञानदर्शन प्राणों में तन्मय निज आत्मस्वरूप की भावना में ही हमें शांति का मार्ग मिल सकता है ।