वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-25
From जैनकोष
परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।।6-25।।
(97) नीचैर्गोत्र कर्म के आस्रवों के मुख्य कारण―दूसरों की निंदा करना, अपनी प्रशंसा करना, दूसरे में गुण विद्यमान हैं तो भी उनको ढक देना याने वे प्रकाश में न आ सकें ऐसा प्रयत्न करना और अपने में गुण मौजूद न भी हों तो भी उन गुणों का ढिंढोरा पीटना यह नीच गोत्र के आस्रव का कारण है । निंदा में दूसरे के दोष प्रकट करने की इच्छा रहती है, रुचि रहती है, दूसरे को दोष प्रकट करने का प्रयत्न चलता है । चाहे वे दोष वास्तव में हों अथवा न हों, उन दोषों को प्रकट करने का प्रयत्न करना निंदा कहलाती है । कल्याणार्थी पुरुषों को परनिंदा करने की वृत्ति नहीं जगती । परनिंदा से आत्मा का कोई कोई लाभ नहीं है । कोई ऐसा सोचे कि दूसरे में जो दोष हैं उनकी प्रकट करने में क्यों बुराई बताते हैं? दोष न हों और उन दोषों को प्रकट करे, इसी में तो बुराई मानना चाहिए? तो उनका यह सोचना कल्याणमार्ग के विरुद्ध है । स्वयं दोषों से भरा हुआ है जिससे कि संसार में जन्म मरण हो रहा है, स्वयं को जन्म-मरण के दुःख से बचाना आवश्यक है, अपने दोषों का निवारण करना आवश्यक है । दूसरे के दोषों पर दृष्टिपात करके अपना उपयोग खराब करना क्या आवश्यक है? तो दूसरे के दोष चाहे तथ्यभूत हों चाहे अतथ्यभूत हों उनका प्रकाशन करना परनिंदा है । आत्मप्रशंसा अपने में गुण हो तो, न हों तो उन गुणों का प्रकाशन करना प्रशंसा है या अपने गुणों को प्रकट कराने का अभिप्राय रखना आत्मप्रशंसा है । आत्मप्रशंसा की वृत्ति इस आत्मा के पतन का कारण है । इस संसार में जहां कि कर्मों से बंधे हैं, जन्ममरण के संकटों से फंसे हैं उसमें अपने को मौज से रखना, प्रशंसा करना, कराना, यह क्या आवश्यक है? यह तो और पतन का कारण है सो अपने में कोई भी गुण हों तो भी उनके प्रकाशन का अभिप्राय न रखना, जो पुरुष आत्मप्रशंसा का आशय रखते हैं उनके नीच गोत्र का आस्रव होता है । छादन नाम ढकने का है, ऐसे प्रतिबंधक कारण जुटाये जिससे वस्तु प्रकट न हो सके इसका नाम छादन है । सो दूसरे के गुण उसमें मौजूद भी हैं तो भी उनको ढक देना । ऐसी बात मिलाना कि वह गुण प्रकट न हो सके, ऐसे परगुण छादन की भावना से नीचगोत्र का आस्रव होता है । उद्भावना―अपने में गुण नहीं हैं तो भी उनका उद्भावन करना, ढिंढोरा पीटना यह नीच गोत्र कर्म का आस्रव कराता है । नीच गोत्र का आस्रव होने पर जब उसका उदयकाल आता है तो इस जीव को नीच कुल में जन्म लेना पड़ता है और वहां जीवनभर संताप सहता है । गोत्र शब्द का अर्थ प्रसिद्ध है कुल । यह गोत्र शब्द बना है गूंज धातु से जिसकी निरुक्ति है―गूंयते शब्दयते इति गोत्रं, जो शब्द व्यवहार में आये उसे गोत्र कहते हैं । यह गोत्र का शब्दार्थ है, पर भावार्थ यह है कि जिससे आत्मा नीच या उच्च व्यवहार में आये सो गोत्र है । यहां नीच गोत्र का प्रकरण है । आत्मा नीच व्यवहार में आये सो नीच गोत्र का प्रकरण है । इस सूत्र में नीच गोत्र के आस्रव के कारण संक्षेप से बताया, अब उन कारणों का विस्तार से विचार करना है तो इस प्रकारसे विचार कीजिए ।
(98) नीचैगोत्रकर्म के आस्रव के कारणों का प्रपंच―इस सूत्र में च शब्द दिया है तथा बहुत पहले आस्रव वाले सूत्र से इति शब्द की भी अनुवृत्ति चली आ रही आ रही है जिससे अन्य अनेक कारण भी ग्रहण कर लिए जाते हैं । और कारण क्या है जिन भावों के होने पर नीचगोत्र का आस्रव होता है, इसी को कहते हैं मद करना, जाति उत्तम मिली हो । जो लोकपूज्य हैं उस जाति का घमंड करना कि उत्तम जाति का हैं, कुल का घमंड करना । पिता के गोत्र को कुल कहते हैं और मामा के कुल को जाति कहते हैं । मैं उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ हूं ऐसे कुल का लक्ष्य करके अपने स्वभाव को भूलकर अहंकार आ जाना यह कुल मद है । शरीर के बल को देखकर घमंड आना, मैं बहुत बलिष्ट हूं, शरीर के रूप को देखकर घमंड करना कि मैं बहुत सुंदर हूँ । जो ज्ञान पाया है उसका अहंकार जगना । यदि इस लोक में आज्ञा चलती है तो उस आज्ञा का घमंड आ जाना, कुछ प्रभाव और ऐश्वर्य यदि मिला है तो उसका अहंकार होता है, कुछ तपश्चरण किया जाता हो तो उसका मद होना, इन मदों की स्थिति में आत्मा अपने स्वरूप को भूल जाता है और पर विकल्पों में लग जाता है और उन विकल्पों में भी अपने आपकी प्रशंसा संबंधित विकल्प जगने लगना सो ये सब मद नीच गोत्र का आस्रव कराते हैं । पर की अवज्ञा होना, ऐसे वचन बोलना जिससे दूसरों का अपमान होता हो सो पर की अवज्ञा है । दूसरे की हंसी करना, अपने आपको उच्च कल्पना करने के कारण दूसरे लोग इसकी दृष्टि में नीच प्रतीत होते हैं और इस कल्पना के कारण दूसरे की हँसी किया करते हैं । ये सब नीच गोत्र का आस्रव कराते हैं । निंदा का स्वभाव हो जाना ऐसी ही प्रकृति बन जाये कि किसी दूसरे की निंदा ही किया करे, धार्मिक जनों का परिहास करना, धर्मात्माजन रात्रि को नहीं खाते, शुद्ध भोजन करते, पूजा, ध्यान भक्ति में लगते तो उनकी इन क्रियावो को मूर्खों जैसी क्रियावोंका रूप देखते हुए परिहास करने लगना, ये सब भाव नीच गोत्र का आस्रव कराते हैं । अपने आत्मा का उत्कर्ष जताना, और दूसरे के यश का लोप करना, अपनी कीर्ति के अर्जन के लिए मिथ्या उपाय बनाना और झूठी कीर्ति फैलाना, गुरुजनों का परिहास करना, ये सब परिणाम नीच गोत्र का आस्रव करते हैं । नीच गोत्र के आस्रव कराने के भाव भी नीच ही होते है । उन भावों में गुणों के ख्याल का स्थान नहीं रहता । गुरु जनों के दोष की ही प्रसिद्धि करते रहना, गुरु जनों की भर्त्सना करना उनके सामने असभ्यता से पेश आना, जोर से शब्द बोलना ये सब नीच गोत्र के आस्रव के कारण हैं । गुणी जनों के गुणों का आसादन करना, गुणों को दोष के रूप में प्रकट करना, बड़े पुरुषों को देखकर विनय न करना प्रत्युत बैठे ही रहना, बुरी दृष्टि से निरखना, उनके विनय के प्रतिकूल दूसरे लोगों को इतना उत्साह देना ये सब खोटे भाव नीच गोत्र का आस्रव कराते हैं । यदि कोई पुरुष महापुरुषों को देखकर उनके गुणों के प्रति हर्ष नहीं प्रकट कर पाता, उनके गुणों के वर्णन में दो शब्द नहीं बोल सकता, उन्हें देखकर खड़ा होना, उनके जाते समय कुछ दूर तक पहुंचाना आदिक न कर सके तो ऐसे बड़े अहंकार भाव के कारण और अपने आपको महान् कल्पना करने के कारण उसके नीच गोत्र का आस्रव होता है । तीर्थंकर अरहंत देव भगवान पर आक्षेप करना, उनकी कथा सुनकर किसी भी घटना को उल्टे रूप में पेश करना ये नोच गोत्र के आस्रव कराने के कारण हैं । शास्त्र आगम, धर्म की निंदा करना ये सब नीच गोत्र के आस्रव कराते हैं, गुरु जनों को निरखकर उनके भेष पर हँसी करना, ये साधु लोग मलिन हैं, गंदे रहते हैं, ये नहाते भी नहीं हैं, आरोपों को लगाकर उपहास करना ये सब नीच गोत्र के आस्रव कराने वाले हैं । जिन-जिन क्रियावों में दूसरे की निंदा बसी हो और दूसरे की प्रशंसा बसी हो वे-वे सब क्रियायें नीच गोत्र के आस्रव के कारणभूत बनती हैं । नीच गोत्र का उदय होने पर नीच कुल में जन्म होता है और उस समय दूसरे लोगों की दृष्टि में मैं नीच हूं ऐसा ख्याल कर करके भीतर छूटता रहता है, संक्लेश करता है, जिसके फल में संसारभ्रमण और भी लंबा होता चला जाता है । जिसको मोक्ष की रुचि हो, संसारसंकटों से छुटकारा पाने की अभिलाषा हो उसे नीच गोत्र के आस्रव के कारणभूत प्रसंगों में न लगना चाहिए । अब नीच गोत्र के आस्रव का कारण कहकर उच्च गोत्र के आस्रव की विधि कहते हैं―