वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 119
From जैनकोष
देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणं ।
कामदुहि कामादाहिनी परिचिनुयादाहतो नित्यम् ।। 119 ।।
श्रावक का प्रतिदिवस देवालय में देव परिचरण का कर्तव्य―वैयावृत्य नाम के शिक्षाव्रत में मुख्य वर्णन अतिथि सम्विभाग का था याने मुनि, क्षुल्लक, ऐलक, गृहत्यागी, ब्रह्मचारी जनों को उनके योग्य आहार, शास्त्र, औषधि, अभयदान करना यह श्रावकों का वैयावृत्य है । मुख्य वर्णन करने के बाद अपने आत्मकल्याण के अर्थ देवपूजा का भी कर्तव्य बता रहे हैं । जो देवाधिदेव है अर्थात् देवों के भी अधिदेव हैं, जिनके चरणों में बड़े-बड़े इंद्र भी नमस्कार करते हैं, ऐसे अरहंत देव के चरणों में आदर पूर्वक नित्य ही पूजा आदर करना चाहिए । इस जीव को मोक्ष मार्ग के लिए मुख्य कर्तव्य है कि अपने आत्मा के सहज स्वरूप की दृष्टि करे । मैं वास्तव में क्या हूँ, मेरा सहज स्वरूप क्या है? ज्ञानमात्र अमूर्त । इस अमूर्त ज्ञानमात्र तत्त्व का निरंतर ध्यान रखें, किंतु गृहस्थावस्था में यह बात नहीं निभ पाती है क्योंकि उसे आजीविका के अनेक कार्य लगे हैं, आरंभ लगे हैं, तो वहाँ उपयोग भ्रमता रहता है । तो ऐसी स्थिति में रहने वाला गृहस्थ किसी आलंबन से ही धर्म कार्य कर सकता है । जैसे मुनिजन बिना अन्य के आलंबन के अपने आत्मा के आलंबन से ही ध्यान बनाये रहें इसमें समर्थ हैं उस भांति गृहस्थ समर्थ नहीं हैं कि वे परमात्मा की मूर्ति, शास्त्र आदिक के आलंबन बिना अपना धर्म साधन कर सकें । मुनिजन भी सहज कहीं मंदिर मिले तो वहाँ वे प्रभु की उपासना करते है पर उन्हें आवश्यक नहीं है कि मुनिजन प्रतिदिन मंदिर ढूँढें ही और दर्शन करें ही, क्योंकि उन्हें अपना आत्मस्वरूप दृष्टिगत हुआ है, और खुद उनका जिनलिंग रूप है, पर गृहस्थ को जो कि अनेक बाधावों में रहता है उसका तो यह आवश्यक कर्तव्य है कि जिनेंद्र देव की मूर्ति के समक्ष अपना धर्मध्यान बनायें ।
प्रभुदेह की स्फटिकमणिसंकाशता―प्रभु अरहंत कैसे है? साक्षात् देखने में जो उनका देह आता है वह परमौदारिक शरीर है । यहाँ के मनुष्य तिर्यंचों की नाई उनके शरीर में धातु कुधातु नहीं हैं किंतु स्फटिकमणि की तरह स्वच्छ उनका देह है । यही तो कारण है कि भगवान के शरीर की छाया नहीं पड़ती । जैसे स्फटिकमणि की प्रतिमा हो तो उसकी छाया नहीं पड़ती, कांच भी बहुत निर्मल हो तो उसकी छाया नहीं पड़ती, स्फटिकमणि के समान स्वच्छ, उस शरीर की भी छाया नहीं पड़ती । तो प्रभु का देह स्फटिक मणि के तुल्य है, उनका देह पहले गृहस्थावस्था में अपवित्र था । अनंत निगोद जीवों से भी भरा था, पर निर्ग्रंथ दिगंबर हुए बाद आत्मा का ध्यान करने के प्रसाद से श्रेणी में चढ़े और जिस क्षपक श्रेणी में चढ़कर 12वें गुणस्थान में पहुँचे तो वहाँ एकत्ववितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान के माहात्म्य से उनके शरीर में निगोदराशि अब नई नहीं पैदा होती, गुणहानि के हिसाब से उनका जन्म रुकता है, मरण बराबर चलता रहता है तो अंत में ऐसी स्थिति आती है कि उस शरीर में निगोदराशि बिल्कुल नहीं रहती और उसही ध्यान के प्रताप से ये धातु कुधातु भी अपने मल को छोड़ देते हैं और स्फटिकमणि की तरह देह हो जाता है ।
अच्छा बुरा देह पाने की अपने भावों पर निर्भरता―जिन जीवों को आज देह उत्तम मिला है, निरोग मिला है सुंदर मिला है तो यह किसका माहात्म्य है? पूर्वजन्म में विशुद्ध परिणाम किया था उसका माहात्म्य है कि उस प्रकार का कर्मबंध हुआ और शुभ कर्म के उदय में उत्तम शरीर मिला । तो अपना सारा भविष्य अपने भावों पर आधारित है । भले ही आज का प्रोग्राम हमारे हाथ नहीं है मगर भविष्य का प्रोग्राम हमारे हाथ है । आज जो कुछ हो रहा है वह पूर्वजन्म की करनी के फल में हो रहा है और भविष्य में जो होगा वह आज की हमारी क्रिया करनी के फलरूप होगा । तो हम कैसे बनें संसार में? धनी, राजा, देव बनें या दीन हीन दरिद्र दुःखी बने, यह सब मेरे भावों पर निर्भर है । अथवा संसार की समस्त पदवियों को त्यागकर सिद्ध प्रभु बने, वह भी हमारे भावों पर आधारित है । इसी कारण आज बड़ी जिम्मेदारी है कि हम चाहें तो अपने कल्याण का मार्ग बना सकते है । और चाहें तो अधोगति में गमन का साधन बना सकते हैं । भैया, जो समागम आज मिला है वह मूर्छा, ममत्व करने लायक नहीं है । जो यहाँ कुटुंब में, धनवैभव की मूर्छा में मोह करेगा उसके अध: पतन है । यह कुटुंब कब तक साथ देगा? इस जीवन में भी साथ नहीं दे सकता है, फिर मरण पर तो साथ देने का प्रश्न ही नहीं है, फिर किसके लिए किसकी ममता में आकर अपने आत्मा का बिगाड़ किया जाय? अपना आत्मभाव परमात्मा के ध्यान में रहे, गुरुजनों की सेवा में रहे और अपने स्वरूप के ज्ञान ध्यान में रहे, गृहस्थी में रहता हुआ भी मुख्य लक्ष्य यह ही होना चाहिए, बाकी आजीविका आदि का अपने समय पर कर्तव्य निभायें ।
निर्वाच्छ प्रभुपूजा की उत्कृष्ट पुण्य साधनता―अरहंत प्रभु जो अनंत आनंद से संपन्न हैं वे चार घातिया कर्मो से रहित हैं । धर्म के नाम पर लोग अनेक प्रकार की चेष्टायें करते हैं इस लक्ष्य को लेकर कि मेरा धन संपदा अच्छी रहे, मेरे जीवन में कोई कष्ट न आये, ऐसी लौकिक बातों का उद्देश्य बनाकर करते हैं, पर ऐसा सोचने से न यहाँ के रहे न वहाँ के रहे । मोक्षमार्ग का तो वह पुरुष रहा ही नही । और यहाँ ऐसा सोचने से मिल जाय सो होता नहीं, बल्कि वहाँ धर्म ही नहीं हो रहा, क्योंकि चित्त फंसा है, इसमें कि हमें धन संपत्ति विभूति मिले, यश मिले, नेतागिरी मिले, अनेक प्रकार के ठाठबाट मिलें । जब लौकिक वैभव में चित्त पड़ा हुआ है तो उसके निरंतर मिथ्यात्व चल रहा है और मिथ्यात्व के वातावरण में मिथ्यात्व के आशय में पुण्य भी नहीं प्राप्त होता है और एक निर्वाच्छक होकर व्यवहार चलाने के लिए जीवन चलाने के लिए ऐसा निर्णय रखकर कि मेरी जो स्थिति होगी उन सब स्थितियों में मैं अपना गुजारा कर सकता हूँ, किंतु जीवन मेरा धर्म के लिए ही है धर्म के प्रताप से इस भव में भी संपन्नता रहती है, भविष्य भी उज्ज्वल रहता है । तो प्रभु अरहंत देव का ध्यान एक बहुत बड़ा पुण्य का बंध करने वाला है । ऊंचा से ऊंचा पुण्य बंध उस जीव के होता है जो देव, शास्त्र, गुरु की पूर्ण भक्ति सहित आराधना करते है । बड़े से बड़े पुण्य का कारण अन्य कुछ नहीं हो सकता, पुण्य के और भी साधन है, पर वे सब अल्प पुण्य के साधन हैं । ऊंचे पुण्य साधन देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति है । अरहंत प्रभु ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय इन चार घातिया कर्मों से रहित हैं । इन्होंने प्रथम मोहनीय कर्म नाश किए, उसमें भी दर्शन मोहनीय का नाश किया, सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों का विनाश किया ।
सम्यक्त्वलाभ आत्मकल्याण का सुनिश्चित प्रथम सोपान―आज जो भी गृहस्थजन हैं वे यद्यपि पूर्ण संयम धारण नहीं कर सकते तो भी सम्यक्त्व प्राप्त कर लें यह ही उनके लिए बहुत ऊंची बात है, और सम्यक्त्व की प्राप्ति तपश्चरण से ही हो सो बात नहीं है । यह तो ज्ञानसाध्य बात है । आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान बनायें और उस ज्ञान से जो समझ बनेगी उसमें जो आनंद मिलेगा उसमें ही संतुष्ट होने का भाव रखें तो एक आत्मा की धुन बनेगी और इस धुन में बाह्य पदार्थों का विकल्प छूटकर एक सेकेंड आधे सेकेंड को भी इससे भी कम समय को यदि आत्मा के स्वरूप में दृष्टि लग गई तो सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो लेगा । जिसे सम्यग्दर्शन हुआ है उसे ही परमात्मा के सही स्वरूप की सुध हो सकती है । जैसा यह मैं हूँ स्वरूप में ऐसा ही जिसका पूर्ण विकास हुआ है वह कहलाता है भगवान । जिसको अपने स्वरूप का पता नहीं उसे भगवान के स्वरूप का भी सही पता नहीं । वचनों से भले ही कह लें कि घातिया कर्म रहित हैं, केवलज्ञानी हैं, वीतराग हैं सारी बातें ये ऊपर से वचन निकल जायेंगे, मगर भीतर में भगवान का स्वरूप न समा पायगा कि वास्तव में भगवान का स्वरूप यह है । चूँकि आत्मा-आत्मा सब एक समान हैं । प्रभु का आत्मा, मेरा आत्मा स्वरूपदृष्टि से एक समान है, इस कारण स्वरूप की खबर होने से प्रभु के स्वरूप का भी प्रकाश हो जाता है ।
स्वरूपसांप की उपासनापूर्वक प्रभु की आराधना की महिमा―प्रभु की पूजा करें, पर निर्वांछक होकर करें, कोई चाह चित्त में न रखें, केवल एक मोक्षमार्ग के नाते से प्रभु की पूजा करें । हे प्रभो, जिस उपाय को करके आपने सदा के लिए संसार का संकट दूर किया उसी मार्ग को मैं अपनाऊं और संसार की इन सारी विडंबनाओं को भूल जाऊं, अपने आप में अपने सहज चैतन्यस्वरूप का स्पर्श करके पवित्र बन लूँ बस प्रभु यही भावना है । पूजन करके पूजन करते समय यदि कुटुंब वैभव आदिक का ही ख्याल रखा तो बतलावो यह कुटुंब वैभव कुछ उसकी मदद कर सकेगा क्या कभी? मरण समय में यह साथ जा सकेगा क्या? फिर क्यों इतना अधिक लगाव हो कि प्रभु की पूजा करके भी संपदा ही के विकास का ध्यान रखें, परपदार्थों का ही ख्याल बनाये रहें, ऐसे अधिक मोह को तो धिक्कारना चाहिए । देखिये मोह की परीक्षा अन्य-अन्य प्रसंगों में भी होती है मगर एक परीक्षा धर्म के प्रसंग में भी होती है । धर्म करके यदि उसके फल में कोई कुटुंब धन आदिक का विकास होना चाहता है तो समझिये कि उसे तीव्र मोह है, जबकि निर्मोह वीतराग प्रभु के सामने मोह की बात सोच रहा है । पूजा का सच्चा अधिकार ज्ञानी सम्यग्दृष्टि को है अथवा विवेकी पुरुषों की । धर्म के एवज में रंचमात्र भी बाहरी संपदा के लाभ का विचार न करना चाहिए । केवल एक मेरे स्वरूप का कैसे विकास हो । कैसे मैं निश्चित होऊं, कैसे मैं निशल्य होऊं, और कैसे मैं निर्विकल्प होऊं और ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, यह मेरी स्थिति बने, इसी प्रयोजन से प्रभु की पूजा करे सों प्रभु पूजा में प्रभु की ओर ध्यान होगा और अपनी ओर ध्यान होगा, बारबार अपने स्वरूप की ओर आयगा, प्रभु के गुणों के स्मरण में आयगा । तो बड़े हुए हैं और धार्मिक समागम मिले हैं तो ऐसा भीतर में ज्ञान प्रकाश रखना चाहिए कि धर्म के एवज में केवल धर्म की प्राप्ति ही चाहें । धर्म मायने आत्मा का स्वरूप, स्वभाव, ज्ञाताद्रष्टा मात्र रहना, यह ही चाहें, अन्य कुछ न चाहें, फिर देखिये इस जीवन में भी कैसी शांति मिलती है और भविष्य में भी कितनी शांति मिलती है ।
प्रभुगुणस्मरण की संसारसंकटहारिता―देवाधि देव अरहंत प्रभु के चरणों का पूजन समस्त विषयों को नाश करने वाला है, इंद्रिय के विषयों की कामना को नाश करने वाला है और मोक्ष मार्ग को बढ़ाने वाला है निर्वाण के निकट ले जाने वाला है, ऐसा आत्मस्वरूप का और प्रभु की भक्ति का धुनिया होना चाहिए । अन्य समय पर भले ही विकल्प आयेंगे । आजीविका के समय पर अनेक प्रसंग घटनायें आयेंगी और उन समस्यावों का सुल्झेरा भी करना होगा मगर जब धार्मिक कर्तव्य करें उस समय बाहरी बातों की रंच भी इच्छा न करना चाहिए । यदि कोई ऐसा भाव रख सकें प्रभु के दर्शन में, प्रभु के पूजन में, धार्मिक कार्यों में तो उससे आत्मा का कल्याण होगा । और आत्मा के स्वरूप दर्शन के उद्देश्य बिना बाहरी वैभव की वांछा लेकर धर्म कार्य करें तो कदाचित धनी भी हो जायें अगले भव में, इस भव में तो वे भी उस धन संपदा को पाकर धर्म में चित्त नहीं लगा सकते । जैसे अनेक लोगों का यह कहना रहता है कि अमुक आदमी जब गरीब था तब तो धर्म में बहुत चित्त देता था मगर धनिक हो जाने पर अब मंदिर भी नहीं आता । तो ऐसी स्थिति उसकी होती है कि जिसने पहले धर्म नहीं किया किंतु बाहरी धर्म किया और सांसारिक इच्छा के लिए किया । वह पुरुष कदाचित् पूर्व पुण्य योग से या वर्तमान कुछ योग से संपदा भवानी हो जाय तो उसके चित्त में फिर धर्मबुद्धि नहीं रहती । अपने आपके बारे में चिंतन करिये कि मैं बहुत काल संसारी रागी द्वेषी मोही जीवों को देव मानकर रहता रहा । और उस आराधना में घोर मिथ्यात्व का बंध किया जिसके फल में संसार में अब तक घूमता रहा । यदि मैं कभी वीतराग प्रभु की आराधना करता तो मोक्षमार्ग में बढ़कर कभी निर्वाण ही प्राप्त कर लेता ।
प्रभुपूजा में प्रभुसम निर्विकार होने की भावना का महत्त्व―आज भी वीतराग प्रभु का शासन मिला है, इस शासन में यदि सांसारिक वांछायें रखीं और उसके लिए ही प्रभु की पूजा की तो समझो कि हमने प्रभु को रागी द्वेषी बना डाला । हे भगवान मेरा ऐसा काम हो जाय, आप ऐसा काम कर दो, ऐसी वांछा रखें तो समझो कि हमने उन्हें रागी द्वेषी बनाया । रागी द्वेषी का अर्थ क्या है कि इस भक्त ने वीतराग प्रभु के आगे वंदना कर के भी उनको कुदेव का स्वरूप बना डाला । कुदेव वे भगवान नहीं हुए मगर इसने अपनी मान्यता में भगवान को उन रूपों में देखा जिन रूपों में कुदेव हुआ करते हैं । प्रभु का शासन मिला तो प्रभु का असली सही स्वरूप समझे, अपना स्वरूप समझें और इस नाते से प्रभु का पूजन करें तो उसके फल में जब तक संसार में रहना है तब तक भी यह संपन्न रहेगा । और यह संपन्नता तो पूजा का फल नहीं है, प्रभु वीतराग धर्म के सेवन का फल नहीं है यह तो शुभ राग का फल है । पर वास्तविक प्रभु पूजा से, अभेद आत्म पूजा से निर्वाण मिल जायगा । तो क्यों जरासी बातों में हम अपने चित्त को फंसाकर मलिन करें? संसार के समागमों को पुण्य पाप कर्म के उदय पर छोड़ दें, जैसा होना है होगा, जो प्रभु ने देखा है सो होगा, प्रभु ने वह देखा है जो होगा । तो जो होने का है सो होगा, वैसे योग मिलेंगे, पर मैं अपने भावों को बाह्य में फंसाकर संसार में क्यों जम मरण करने का एक उपाय बनाऊं? प्रभु पूजा करें बहुत शुद्ध भावों से, केवल एक ही कामना रखकर कि मैं बस सिद्ध पद चाहता हूँ । समस्त संसार संकटों से मुक्त होना चाहता हूँ । जन्म मरण से रहित होना चाहता हूँ । केवल एक ही आशय से प्रभु पूजा हो ।
बाह्य मंगल के आलंबन से परमात्मत्व की आराधना―कोई एक आशंका कर सकता है कि प्रभु तो मंदिर में है नहीं, वे तो मोक्ष में विराजे हैं और वे वहाँ से आकर मंदिर में या प्रतिमा में या कहीं प्रवेश करते नहीं, ऐसा कभी-कभी किन्हीं लोगों के चित्त में आता भी होगा, फिर यह साधन क्यों बनाया जाता है? समाधान इसका यह है कि वास्तव में प्रभु भी सामने हों तो प्रभु को कोई पूज नहीं सकता । वस्तु का स्वरूप यह है कि अपने आपकी परिणति अपने आत्म प्रदेशों से बाहर नहीं जाती । समवशरण में भी प्रभु सम्मुख रह कर भी भक्त अपने विचार से पवित्रता लाकर प्रभु के स्वरूप का ध्यान धरकर अपने ही भावों में निर्मलता बनाता रहता है और निश्चय से वह अपने ही इस ज्ञानगुण को पूज रहा है । तो मंदिर में प्रभुभक्ति के अनुराग के कारण मूर्ति में प्रभु की स्थापना करके यहाँ पर भी वह अपने ज्ञानगुण को ही पूज रहा है, एक आलंबन है और वस्तुत: प्रभु के गुणों का जो आकार झलका है उस झलक को ही भक्त पूजता है, और चूँकि वह झलक प्रभु के गुणों के अनुरूप है इसलिए प्रभु के गुणों की पूजा ही कहलाती है । तो अपने परिणाम निर्मल रखने के लिए ये मंदिर ये मूर्ति आलंबन हैं । मूर्ति में जिनेंद्र देव की स्थापना की है । मूर्ति में मुद्रा निरखकर ध्यान में स्थित देखकर हम अपने भावों में निर्मलता ही पाते हैं, सो यह आलंबन युक्त है । यहाँ इस आलंबन में होकर भी केवल यह उद्देश्य होना चाहिए कि मेरे स्वरूप का विकास हो, मुक्ति का मार्ग मिले, विकल्प विडंबना के झंझट छूटें, केवल इस ही उद्देश्य से प्रभु की पूजा हो और अपने स्वभाव का स्पर्श होता रहे यह है प्रभु पूजा का वास्तविक उद्देश्य ।
श्री जिनबिंब के समक्ष जिनगुण स्मरण का उद्यम―श्रावकों का देवपूजा करना कर्तव्य है, उस संबंध में चर्चा चल रही है । कोई ऐसी आशंका करे कि प्रतिमा तो अचेतन है, प्रभु मोक्ष में विराजमान है वे यहाँ बुलाने से आते नहीं हैं, फिर जिनबिंब पूजने का अर्थ क्या है? तो इस विषय में कुछ लौकिक बातों को देखिये यदि किसी के पिता का फोटो हो तो फोटो तो स्याही है, कागज है । जो पिता गुजर गया वह वहाँ से यहाँ नहीं आता है, इतनी बात सत्य है तो भी यदि कोई उस फोटो को फेंक दे, नाली में डाल दे तो उस पर आप नाराज क्यों होते हैं, बिगड़ा क्या? अरे यदि कोई उस फोटो को देखकर प्रसन्नता जाहिर करे तो आपको उस पर अनुराग होता है, तो जैसे बाह्य पदार्थ आश्रयभूत होता है भावों के, इसी प्रकार जिनबिंब भी हमारे शुभ भावों का आश्रयभूत है । दूसरी बात―जब लोक में अकृत्रिम चैत्यालय भी हैं तो यह तो अनादि से रीति चली आयी है कि जिन बिंब हो । इतना अंतर है कि जो अकृत्रिम चैत्यालय है वह किसी तीर्थकर की मूर्ति नहीं है, वह अरहंत का ही प्रतिबिंब है । तो जिनबिंब में प्रभु की स्थापना किया हुआ श्रावक वहाँ जिनेंद्र देव का स्तवन करता है । कोई प्रतिमा को पूजता नहीं, किंतु प्रतिमा में स्थापना कर जिनेंद्र देव को पूज रहा है । तो कोई लोग तो सिर्फ भाव पूजा कर लेते है स्तवन करके, गुणानुवाद करके, कोई लोग द्रव्य पूजा कर लेते हैं तो जैसे कोई राजा महाराजा पुरुष के दर्शन करने कोई प्रजा के लोग आते हैं कोई सेठ आदिक आते है तो अपनी-अपनी शक्ति अनुसार उस राजा के आगे कुछ भेंट चढ़ाते हैं, न्यौछावर करते हैं, तो वह कहीं राजा को दान करना नहीं कहलाया, यह तो एक भक्ति प्रदर्शन करना कहलाया, और जो न्यौछावर उस राजा को प्राप्त होता उसे राजा रखता नहीं । वह तो याचकों को बांट देता है । तो ऐसे ही यहाँ जो कोई कीमती कम कीमती जो द्रव्य चढ़ाता है प्रभु को तो वह प्रभु की भक्ति है, वह अनुराग है । यहाँ इतना विवेक रखना चाहिए कि प्रभु को जो द्रव्य चढ़ाया उसमें हिंसा न होती हो । एकेंद्रिय की हिंसा भी न हो और दो इंद्रिय आदिक कीड़ों की हिंसा के बचाव का तो पूरा ध्यान रखें । ऐसी कोई चीज न चढ़ायें जिसमें कीड़े झड़ सकते हों या बहुत देर तक रखे रहने पर उसमें कीड़े उत्पन्न हो जायें ऐसा कोई द्रव्य न चढ़ायें ।
जिनबिंब में नव देवतावों का दिग्दर्शन―प्रभु के जिनबिंब के पूजन में जो देवता माने गए हैं उनका सत्कार हो जाता है । अरहंत सिद्ध के प्रतिरूप हैं । सिद्ध होने वाले हैं या सिद्ध हो चुके हैं उन सिद्ध हुए तीर्थंकरों का तीर्थकर की मुद्रा में प्रतिबिंब बनाते हैं तो इसमें सिद्ध आये, अरहंत आये और वही मुद्रा आचार्य, उपाध्याय, साधु की है । वे उसी मुद्रा में जिनधर्मरूप हैं, उनके वचन दिव्यध्वनि हैं । वे ही रत्नत्रय के धर्मरूप हैं । वे जहाँ विराजे है वही देवालय हैं, साक्षात् जिनबिंब है । तो एक जिनबिंब के समक्ष प्रभु का गुणानुवाद करने वाले के 9 देवताओं का सत्कार होता रहता है ।
अकृत्रिम चैत्यालयों के वर्णन का प्रारंभ―अब अकृत्रिम चैत्यालयों का स्मरण करें, जो अभी बताये जायेंगे, वे अनादि से इस ही रूप बने, उनमें अनेक परमाणु आते हैं, अनेक परमाणु वहाँ से खिरते हैं तो भी वज्रमयी वे सब रचनायें ज्यों की त्यों बनी हुई रहती हैं । ये अकृत्रिम चैत्यालय कहां-कहां हैं? उर्द्धलोक में हैं, मध्यलोक में हैं, अधोलोक में हैं । अधोलोक में केवल इस पृथ्वी के तीन भागों में ऊपर के दो भागों में है । नीचे का तीसरा भाग तो प्रथम नरक रूप है, वहाँ नहीं उससे नीचे नहीं, किंतु इस पृथ्वी में जिस पर हम आप चलते हैं यह अधिक मोटी है और उसके नीचे तीन भाग है ऊपर नीचे, जिसमें दो ऊपर के भागों में भवनवासी और व्यंतर देवों का निवास है वहाँ चैत्यालय हैं । ढाई द्वीप में चैत्यालय हैं, यहाँ भी चैत्यालय है । जैसे 13 द्वीप का विधान करते है तो 13 द्वीप तक जो चैत्यालय हैं, जिनबिंब हैं उनका वहां पूजन किया जाता है । इसी मध्यलोक में ही जो सूर्यचंद्र आदिक विमान हैं इनमें भी अकृत्रिम चैत्यालय हैं, उर्द्धलोक में स्वर्गो में जो विमान है और ऊपर भी जो विमान हैं उनमें अकृत्रिम चैत्यालय है वे कितने हैं पहले उनकी संख्या जानें।
अधोलोक में अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या―ये अकृत्रिम चैत्यालय संख्या में बंध जायें सो बात नहीं । बतायी गई है करोड़ों की संख्या, पर उनके अतिरिक्त अन्य भी अनगिनते चैत्यालय हैं । जो ज्योतिषी देवों के विमानों में और व्यंतरों के निवास भूमि में हैं उनकी गिनती नहीं बतायी गई है । किंतु जिनकी गिनती की जा सकती है उनकी ही गणना है । अधोलोक में 7 करोड़ 72 लाख भवनवासी देवों के भवन हैं, उनके भवन अकृत्रिम हैं । बड़ा विशाल हैं, उन्ही भवनों में विशाल चैत्यालय भी हैं । उन चैत्यालयों का जब प्रमाण जानेंगे, ऐसे चैत्यालय जिस भवन में हों उस भवन का प्रमाण खुद समझ जायेंगे कि कितना प्रमाण हो गया । वे भवन कितने ही तो असंख्याते योजन के विस्तार वाले हैं, करोड़ों योजन के विस्तार वाले हैं । एक योजन 4 कोश का होता है । उस प्रमाण से अनगिनते कोशों के प्रमाण वाले वहाँ वे भवन बने हुए हैं । जिसके ऊपर हम आप विचरते हैं यह पहली पृथ्वी इतनी विशाल है कि जिसके ऊपर असंख्याते द्वीप समुद्र पड़े हैं, जिन में बीच का जंबूद्वीप एक लाख योजन के विस्तार का है उससे दूने-दूने एकएक तरफ समुद्र और द्वीप चले गए हैं और वे हैं अनगिनते । इतने पर भी वह भूमि पूरी नहीं होती थोड़ा हिस्सा फिर भी बचता है । इतनी बड़ी पृथ्वी के ऊपरी दो खंडों में असंख्याते योजन के विस्तार वाले ये लाखों भवन समाये हुए हैं । आज लोगों ने 10―20 हजार मील की लंबाई वाली सारी दुनिया मान रखी है जितना पता पड़ा है, जहाँ तक गति है, उतना ही मान लिया और जो आँखों नहीं दिखता उसको नहीं मानते मगर जैन शासन में जो भू वलय की रचना बतायी है उससे यह पृथ्वी असंख्याते मीलों की है । तो इस पृथ्वी के नीचे जो भवनवासियों के भवन हैं उन प्रत्येक भवनों में एक-एक अकृत्रिम चैत्यालय है । ऐसे अधोलोक में ये भवन कुछ संख्याते योजन के हैं कुछ असंख्याते योजन के हैं । तो एक-एक भवन में असंख्याते भवनवासी देवों के द्वारा वंदनीय एक-एक चैत्यालय हैं । वे चैत्यालय कैसे हैं कि एक विशाल मंदिर सारिखे हैं । यहाँ तो यह प्रथा है कि जिस मंदिर में शिखर न हो उसे चैत्यालय कहते और जिसमें शिखर हो उसे मंदिर कहते । तो ऐसे 7 करोड़ 72 लाख जिनमंदिर हैं, इसके अतिरिक्त जो भवन व्यंतरों के रहने के स्थान हैं उनकी गिनती यहाँ नहीं बतायी गई । वे गिनती से परे हैं, ज्योतिषी देवों के विमानों में भी चैत्यालय हैं । वे गिनती से परे हैं, उनकी गिनती नहीं बतायी गई ।
मध्यलोक में एवं ऊर्ध्वलोक में अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या―अब मध्यलोक में कितने जिनमंदिर हैं अकृत्रिम उनका स्मरण करें । मध्यलोक के बीचों बीच ढाई द्वीप हैं, ढाई द्वीप में 5 विदेह हैं, 5 मेरुपर्वत हैं, बीच में । जंबूद्वीप के मध्य है एक मेरु, उसको घेरे हुए है लवणसमुद्र । और उसको घेरकर है दूसरा द्वीप । उस द्वीप में पूर्व की ओर एक मेरु, पश्चिम की ओर एक मेरु, ऐसे दो मेरु हैं और उस द्वीप को घेरकर है दूसरा समुद्र, उसे घेरकर है पुष्करद्वीप । उस तीसरे द्वीप में बीचोंबीच मानुषोत्तर पर्वत पड़ा है, जिसके कि आगे मनुष्यों की गति नहीं होती । तो मानुषोत्तर पर्वत से जंबूद्वीप की ओर के आधे भाग में धातकी खंड जैसी रचना है, वहाँ दोनों ओर दो मेरु हैं । ऐसे 5 मेरु हैं और उन 5 मेरुवों के नीचे जो वन हैं वहाँ चारों ओर एक-एक मंदिर है । उसके ऊपर एक वन है, वहाँ भी चार मंदिर हैं । उसके ऊपर भी वन है वहाँ भी चार हैं और आखिरी वन पांडुक वन है वहाँ भी चार हैं । ऐसे एक मेरु के 16 जिन मंदिर है । 5 मेरुवों के 80 जिन मंदिर अकृत्रिम हैं । उन मेरु पर्वत के मूल भाग में चारों ओर कुछ हिस्से तक दो उत्तम भोगभूमि हैं । जिनके नाम हैं देवकुरु और उत्तरकुरु । तो मेरु के चारों ओर एक-एक गजदंत पर्वत है उन पर्वतों का आकार ऐसा है जैसे हाथी के दांत हों । इसी कारण गजदंत नाम रखा है । प्रत्येक गजदंत पर एक-एक जिनमंदिर है, जो आप 13 द्वीप का माड़ना बिछाते हैं उस चित्र को ध्यान में रखें, एक मेरु के चार-चार गजदंत हैं, सो चार जिनालय हैं । यो 5 मेरु गजदंतों पर 4×5=20 जिनमंदिर हैं और जिस जंबूद्वीप के 7 क्षेत्रों का विभाग 6 पर्वतों ने किया है, जिनका नाम है कुलाचल, उन 6 पर्वतों पर एक-एक जिन मंदिर है । ऐसे जंबूद्वीप में 6, धातकी खंड में 12, पुष्करार्द्ध में 12, यो 30 जिन मंदिर ये हैं । विजयार्द्ध पर्वत जैसे इस भरतक्षेत्र में है, बीचों बीच पड़ा है, जिसके कारण भरतक्षेत्र के 6 खंड हो गए हैं । प्रतिनारायण नारायण जिसे अर्द्धचक्री कहते हैं वह तीन खंड का राजा होता है और चक्रवर्ती छह खंड का मालिक होता है । तो यों जैसे भरत क्षेत्र में बीचों बीच विजयार्द्ध है ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में है और विदेह क्षेत्र में भी जो एक-एक विदेह में 32-32 नगरी है, वे नगरी क्या हैं, भरत क्षेत्र से भी बड़े विस्तार वाला क्षेत्र है । उनमें भी एक-एक विजयार्द्ध पड़ा है । तो ऐसे 5 विदेहों के 160 विजयार्द्ध 5 भरत के 5 विजयार्द्ध 5 ऐरावत के 5 विजयार्द्ध यों 170 विजयार्द्ध पर एक-एक जिनमंदिर है । यों 170 जिनमंदिर ये हुए । ढाई द्वीप में देवकुरु 5, उत्तर कुरु 5 । प्रत्येक मेरु के पास हैं उन क्षेत्रों में एक-एक अकृत्रिम चैत्यालय है सो 10 ये हुए । विदेह क्षेत्रों देश का विभाग करने वाले वक्षार गिरि है । एक-एक विदेह के सीता सीतोदा नदी होने के कारण 4-4 भाग हैं एक-एक भाग में 4-4 वक्षार हैं यों 16×5=80 वक्षार गिरि पर एक-एक चैत्यालय है सो 80 ये हुए दूसरे द्वीप में और तीसरे द्वीप में जो कि गोल हैं, उनके दो भाग बनाने के, लिए दो-दो पर्वत हैं, जिनका नाम है इक्ष्वाकार । ऐसे ये पर्वत दो दूसरे द्वीप में है, दो तीसरे द्वीप में हैं । तो उन पर एक-एक मंदिर होने से ये चार जिनमंदिर हैं । नंदीश्वर द्वीप में 52 जिनमंदिर हैं, जिनकी लोग अष्टाह्निका के पर्व में पूजा किया करते है । कुंडल गिरि पर चार जिनमंदिर हैं, रुचक गिरि पर चार जिनमंदिर हैं । ऐसे ये सब मिलकर 458 जिनमंदिर हैं । अब उर्द्धलोक में चलो । स्वर्गों में और अहमिंद्रों के विमानों में सब मिलकर 84 लाख 97 हजार 23 जिनमंदिर हैं, ये सब गिनती के चैत्यालय हैं अकृत्रिम पर व्यंतरों के असंख्यात जिनमंदिर और ज्योतिषियों के असंख्यात जिनमंदिर ये इनसे अलग हैं, ऐसे जब अकृत्रिम । पर व्यंतरों के असंख्यात जिनमंदिर और ज्योतिषियों के असंख्यात जिनमंदिर ये इनसे अलग हैं, ऐसे जब अकृत्रिम जिनबिंब हैं तो इससे भी यह जाने कि ये जिनबिंब भी स्वयं एक देवता हैं जिनबिंब में प्रभु की स्थापना की है सो वे प्रभु तो यहाँ नहीं है मगर स्थापना करने से यह जिनबिंब भी पूज्य है और 9 देवतावों में से एक देवता के रूप में हैं ।
श्रावकों का सुख शांति के अर्थ कर्तव्य का विचार―इस जीव को सुख शांति का मार्ग मिल सकता है तो अपने आप में ही मिलेगा, बाह्य पदार्थों से न मिलेगा । मानों धनसंपदा में या लौकिक पद प्रतिष्ठा में भी कोई बढ़े तो बढ़कर क्या वह शांत हो जायगा? शांति कभी हो ही नहीं सकती । चाहे परिग्रह या लौकिक प्रतिष्ठा कितनी भी बढ़ जाय, पर जब तक आत्मतत्त्व का ज्ञान न हो और अपने आपके स्वरूप में ध्यान न बने जिससे कि अपूर्व संतोष होता है तब तक चाहे अरबों खरबों का अधिपति हो अथवा राज्य का अधिपति हो पर उसे शांति कभी हो ही नहीं सकती । यह पूर्ण नियम है । जब बाह्य पदार्थों के लगाव में शांति नहीं है और गृहस्थावस्था में बाहरी पदार्थो का संग्रह करना आवश्यक है तो यहाँ इतनी बुद्धिमानी करना चाहिए श्रावकों को कि दो बातें ठान ली जायें अपने करने की । (1) धर्मपालन और (2) आजीविका का कार्य । इन दो कार्यों को ठीक करते हुए परोपकार आदिक के भी कार्य होते रहें और उनमें जैसी भी स्थिति यश की बने सो होने दो । गृहस्थों को यश भी आवश्यक बताया है । पंडित आशाधरजी ने कहा है कि गृहस्थजन यश का संपादन करें, क्योंकि कुछ यश होने से गृहस्थ खोटे कार्यों में प्रवृत्ति नहीं कर सकता । उसे थोड़ा ख्याल आयगा कि मेरी लोक में ऐसी प्रतिष्ठा है । मैं यदि चोरी करूं, व्यभिचार करूं, हिंसा करूं झूठ बोलूँ तो लोक में मेरा बड़ा अपवाद होगा, उस भय से वह खोटे कार्यों से बच तो जाता है मगर कोई इतनी ही बात से खोटे कार्यों से बचे तो उसे कहीं मोक्षमार्ग तो नहीं मिल गयो । यह भी एक साधन है, पर यदि आत्मज्ञान हैं सम्यक्त्व है तो उसको मोक्षमार्ग चलता है ।
श्रावकों के आजीविका व धर्मसाधना इन दो कर्तव्यों में धर्मसाधन की मुख्यता―श्रावकों के दो कार्य मुख्य हैं (1) आजीविका और (2) धर्मपालन । यदि श्रावक आजीविका का कार्य छोड़ दे और धर्मपालन का ही मुख्य कार्य बनाये तो उस श्रावक से धर्मपालन न बन सकेगा । ऐसी बाधायें आयेंगी कि वह धर्म में स्थिर न हो सकेगा, और कोई श्रावक केवल आजीविका को ही प्रधानता दे और धर्मपालन से बिल्कुल विमुख हो तो उसका जीवन तो पशुओं जैसा जीवन समझिये । क्योंकि आजीविका मान करके वह पायगा क्या? खाना-पीना मौज आराम । बाल बच्चे, ये ही तो पायेंगे । तो यह चीज क्या पशुवों में नहीं है? उनके भी खाना पीना लगा है, उनके भी बच्चे है वे भी मौज मानते हैं, तो वह जीवन भी कुछ नहीं है । तो दो कार्य हुए श्रावक के, (1) धर्मपालन और (2) आजीविका की सम्हाल । अब उक्त दोनों कर्तव्यों में भी देखिये कि मुख्य कौन होना चाहिए और गौण क्या होना चाहिए । मुख्य होना चाहिए, धर्मपालन और गौण होना चाहिए आजीविका । ऐसा क्यों, कि धर्मपालन बिना तो इस जीव का गुजारा ही संभव नहीं है । वह भी शांति से रह सके, संतुष्ट रह सके, अपना भविष्य सुधार सके । धर्मपालन के बिना ये कुछ भी संभव नहीं । आजीविका के कार्य को गौण रखें, क्योंकि आजीविका थोड़ी चले, अधिक चले, कम धन हो, जो कुछ हो, यह ही असर होगा अधिक से अधिक गौण करने पर, मनुष्यों में तो ऐसी कला है कि जितना भी उनके पास द्रव्य हो उसमें ही गुजारा करके दिखा दें । आजकल विशेष धन होने पर भी जो ऐसा सोचा जाता है कि हमारा गुजारा नहीं चलता, ऐसी कल्पना करना, मात्र उनका ऊधम है कि जरा गरीबों पर दृष्टि तो दो, निर्धन श्रावकों पर भी तो निगाह कीजिए । यदि वैसी स्थिति खुद की होती तो वहाँ गुजारा करते कि नहीं?
लौकिक कर्तव्यों को निभाते हुए श्रावककों के धर्मसाधना की मुख्यता―श्रावक के कर्तव्य में यह बताया है कि कर्ज करके खाना नहीं और आय के अंदर ही अपना गुजारा करना । ये दो बातें क्यों आवश्यक हैं कि इनके विरुद्ध कोई प्रवृत्ति करेगा तो उसका चित्त डांवाडोल रहेगा और वह धर्मसाधना करने का पात्र नहीं रह सकता, जो इस जीवन का मुख्य ध्येय है उससे चलित हो जायगा । आय कम हो और उसी में गुजारा चले तो उससे आत्मा की कोई हानि नहीं है । यह दिखने वाली दुनिया मायामयी है, इनसे आप क्या चाहते है? ये आपके मालिक है क्या? ईश्वर हैं क्या? इनके कुछ प्रशंसा वाले वचन सुनने को मिल जायें तो उससे आत्मा का क्या उद्धार होने का है? ये दिखने वाले सभी पुरुष अपने ही समान हैं । और जैसी हीनता अथवा कमी अपने आप में मिल रही है ऐसी ही हीनता, कमी, बल्कि इससे भी अधिक बाहर के लोगों में मिलती है, पर बाहर के लोग साफ सुथरे दिखते हैं, कुछ अच्छे ढंग की मुद्रा बनाये दिखते हैं सो भले ही मालूम पड़े कि ये बड़े शांत हैं, सुखी हैं, पवित्र हैं मगर जैसे हम वैसे ही आप और वैसा ही यह सारा जगत, कोई कम कोई अधिक । सब मायारूप हैं । जब ये सब मायारूप हैं तो उनसे क्या आशा रखना? धर्मपालन मुख्य है, आजीविका गौण है, जब तक यह बात चित्त में न आयगी तब तक धर्मपालन में गति नहीं हो सकती । तो ऐसा गौणरूप आजीविका का कार्य करें और मुख्यरूप धर्मपालन में योग दें तो यह जीवन सफल हो जायगा।
अकृत्रिम चैत्यालयों के कथन श्रवण से श्रद्धावृद्धि―लोक में जितने अकृत्रिम चैत्यालय बताये गए हैं उनकी रचना अकृत्रिम होकर की बड़ी अद्भुत व रमणीक है । उन चैत्यालयों में 108 जिनबिंब पाये जाते है । इन अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन हम को श्रद्धालु बनाता है । जिनबिंब पूज्य न होते तो यह व्यवस्था अनादि से अकृत्रिम चैत्यालयों की कैसे बनी होती? देखिये पूज्यपना और अपूज्यपना जीवों के अपने भावों से है वस्तुत: पूज्य तो वीतरागता और सर्वज्ञ भाव है, केवलज्ञान द्वारा त्रिलोक त्रिकालवर्ती पदार्थो का ज्ञान होना यह एक पवित्र आत्मा का काम है । जहाँ रागद्वेष मूल से ही न रहें व उनके कारणभूत घातिया कर्म ही न रहें, उनका कार्य है वीतरागता और सर्वज्ञता । उसी का ही ध्यान व संबंध नवदेवताओं से है, जिनबिंब में सकल परमात्मा की स्थापना है, अत: स्थापना के कारण जिनबिंब पूज्य है ।
अकृत्रिम चैत्यालयों का विस्तार क्षेत्र प्रमाण―जो अकृत्रिम चैत्यालय बने हैं उनकी रचना यद्यपि तीन प्रकारों में पायी जाती है । कहीं उत्कृष्ट घेरे में रचना है कहीं मध्यम घेरे में रचना है । जो उत्कृष्ट घेरे में जिनमंदिर हैं उनकी लंबाई 100 योजन की है, चौड़ाई 50 योजन की है और ऊंचाई 75 योजन की है । यह रचना किसी के द्वारा की हुई नहीं है, किंतु पुद्गल की ही ऐसी ही अवस्था, प्रमाण, स्थिति स्वयं ही बनी हुई है । जो मध्यम जिनमंदिर हैं वे 50 योजन लंबे हैं, 25 योजन चौड़े हैं, 37 1⁄2 योजन ऊंचे हैं । जो जघन्य घेरे में जिनमंदिर हैं वे 25 योजन लंबे हैं, 12 1⁄2 योजन चौड़े हैं, पौने उन्नीस योजन ऊंचे हैं । इनका प्रमाण जानकर यह तो ध्यान में आता है कि मंदिर के लिए जो भूमि हो वह गहरी अधिक हो, जिसे कहते है लंबा उससे आधा चौड़ा हो और चौड़ाई 1 1⁄2 गुना ऊंचा निर्माण चले, यह एक प्रमाण समझ में आ रहा है और ऐसे ही क्षेत्रों में बने हुए मंदिरों की शोभा होती है । जो अकृत्रिम चैत्यालय हैं उन सबकी नींव जमीन में आधा योजन है । वहाँ नींव खोदी नहीं गई, न भरी गई किंतु अपने आप ही उनकी जो भित्तियां हैं वे इतनी गहरी बनी हुई हैं ।
अकृत्रिम चैत्यालयों के द्वारों का विस्तार―जिन मंदिरों में तीन द्वार होते हैं जिनमें बीच का द्वार बड़ा और अगल बगल के द्वार छोटे होते हैं । जो बीच का द्वार है उसकी ऊंचाई 16 योजन की है चौड़ाई 8 योजन की है किंतु जो मध्यम मंदिर हैं उनके द्वार की ऊंचाई 8 योजन है, चौड़ाई चार योजन है । जो छोटे घेरे के जिन मंदिर हैं उनकी ऊंचाई चार योजन है चौड़ाई दो योजन हैं यह सब अकृत्रिम रचना है । स्वयं ही इसी ढंग के पौद्गलिक स्कंध अनादिकाल से बने चले आये हैं, उनकी चर्चा चल रही है । उन मंदिरों में जो अगल बगल में दो छोटे द्वार हैं उनका प्रमाण उत्कृष्ट ऊंचाई चार योजन की हैं, मध्यम जिनमंदिर के छोटे द्वार की ऊंचाई भी चार योजन की है, चौड़ाई दो योजन की है । जो छोटे घेरे के मंदिर है उनके सामने के अगल बगल के द्वार दो योजन ऊंचे और एक योजन चौड़े हैं ।
उत्कृष्ट मध्यम जघन्य विस्तार वाले अकृत्रिम चैत्यालयों के स्थानों का संक्षिप्त दिग्दर्शन―जहाँ मुख्य स्थान है, जो विशाल क्षेत्र है वहाँ बड़े आकार में जिनमंदिर है, कहीं मध्यम है कहीं उससे छोटा है । जिनमंदिर किस तरह के बनाये जाने चाहियें इसकी भी शिक्षा इन अकृत्रिम चैत्यालयों के वर्णन से मिलती है । इतने क्षेत्र में कोई नहीं बना सकता । छोटे ही क्षेत्र में बनावें तो उसके अनुकूल ऊंचाई हो और रचना हो यह बात इन चैत्यालयों के वर्णन से विदित हो जाती है । जो मुख्य स्थान हैं, जैसे―भद्रसालवन, नंदीश्वर द्वीप, स्वर्ग के विमान, इनमें उत्कृष्ट घेरे वाले चैत्यालय हैं । सौमनसवन, रुचकपर्वत में कुंडलगिरि, वक्षारगिरि, इष्वाकार पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, कुलाचल पर्वत इन स्थानों पर मध्यम प्रमाण वाले जिनमंदिर हैं । कुछ स्थान जो स्वयं ही छोटे घेरे में हैं वहाँ जिनमंदिर भी छोटे घेरे में पाये जाते हैं, जैसे पांडुकवन तथा अन्य-अन्य भी स्थान, पर कुछ स्थान ऐसे हैं जिनकी लंबाई चौड़ाई ऊंचाई उन तीनों से भी कम है । जैसे विजयार्द्ध पर्वत के ऊपर जंबूवृक्ष, शाल्मलि वृक्ष जो देवकुरु उत्तरकुरु में बने हैं, वे वृक्ष नहीं है किंतु पृथ्वी का ही ऐसा आकार है जो उठा हुआ है, शाखाओं में फैला है और उन शाखाओं पर जिनमंदिर हैं, उनकी लंबाई एक कोश की है और अनियत भी लंबाई चौड़ाई अनेक जिनालयों की है । भवनवासी के भवनों में, व्यंतरों के भवनों में, ज्योतिषी देवों के विमानों में, जैसे उनमें स्थान मिलते हैं वैसे ही विस्तार में होते हैं ।
अकृत्रिम चैत्यालयों के बाहर के कोट व चैत्यभूमि की रचनायें―सर्वप्रथम रचना में उन मंदिरों को घेरे हुए तीन कोट होते हैं जिन कोटों में से गुजरकर भीतर मंदिर में पहुंचते हैं । यह अकृत्रिम जिनालयों का निर्माण यह याद दिलाता है कि चैत्यालयों के बाहर ऐसा घेरकर तीन कोट होते हैं तो उनकी बड़ी सुरक्षा और महिमा जानी जाती है । इन तीन कोटों में चारों तरफ द्वार होते हैं । द्वार बहुत विशाल है । पहले और दूसरे कोट के बीच में जो गोल स्थान है वहाँ ध्वजावों की भूमि हैं 8 प्रकार के चिन्हों से शोभित और एक-एक बड़ी ध्वजा के निकट 108-108 ध्वजायें और ऐसी अनेक ध्वजायें चारों ओर हैं । जैसे कभी रथयात्रा समारोह होता है तो मंडप के चारों ओर खूब ध्वजायें फहराती हैं तो उन्हें देखकर चित्त में एक ऐसा प्रभाव बैठता है कि प्रति श्रद्धा में सहयोग मिलता है । तो वहाँ पहले और दूसरे कोट के बीच में जो घेरा है उसमें ध्वजायें हैं । दूसरे और तीसरे कोट के बीच में जो स्थान हैं वहाँ वन है जो उपवन की तरह है । आम्रवन चंपकवन आदिक वन हैं, जिन वनों के बीच भी छोटे-छोटे चैत्यालय हैं । तीसरे कोट के बाद फिर जिनमंदिर के निकट आते हैं, इस भूमिं को कहते हैं चैत्यभूमि ।
अकृत्रिम चैत्यालयों के मध्यम की कुछ रचनावों का संक्षिप्त दिग्दर्शन―उन जिनमंदिरों में 108 गर्भगृह हैं, वेदी के स्थान, जिनके आगे बड़ा शोभनीक मंडप है उन गर्भगृहों में जिनेंद्रदेव के उत्कृष्ट देहप्रमाण ऊंचे 108 जिनबिंब हैं । जिनबिंब के चारों ओर 8 प्रातिहार्य हैं, उनके भिन्न-भिन्न सिंहासन हैं, ऐसा नहीं है वहाँ कि जैसे कहीं-कहीं एक ही सिंहासन पर चार-छ: छोटी-छोटी प्रतिमायें रख दी जाती हैं, वहाँ प्रत्येक बिंब का जुदा सिंहासन है और वहाँ केश का रंग, आँख का रंग जैसे यहाँ पुरुषों में पाये जाते हैं सफेद नीले श्याम वर्ण के, उस प्रकार के वर्ण के वहां वे पौद्गलिक स्कंध हैं, वहाँ तो ऐसे रंग के पाये जाते हैं, पर जो कृत्रिम जिनालय है, जिन बिंब बनाये जाते हैं वहाँ ये रंग नहीं किये जाते । वे रंग प्राकृतिक हैं । प्रतिमा बनाने के बाद कोई जुदे-जुदे जगह में रंग भरना, जैसे आँख में कुछ काला रंग भरना, ओंठ पर लाल रंग भरना, यह प्रतिमा में नहीं किया जाता, यह दोष है । यह अकृत्रिम जिनबिंब में ये सब रचनायें प्रकृत्या बनी हुई हैं । जैसे पूजा करते हुए में बोलते हैं ना―लाल नख मुख नयम श्यान अरु श्वेत है । श्याम रंग भौंह शिर केश छवि देत हैं । इत्यादि... तो यह उनका रंग प्राकृतिक है, पर जिनबिंब में ऊपर से रंग नहीं थोपे जाते । वे अकृत्रिम जिनबिंबों के रंग हैं, वह स्वयं ही उस रंग की मणि आदिक पृथ्वीकाय की रचना है । जिनबिंब के दोनों तरफ नागकुमार अथवा यक्ष 64 चमर ढोर रहे हैं, यह प्रकृत्या वहाँ दृश्य पाया जाता है तो एक जिनालय में 108 जिनबिंब, 108 गर्भगृह, सबके जुदे-जुदे प्रतिहार्य और कुछ यक्ष यक्षणी देव देवी जो उनके द्वारा सेवा अथवा उपसर्ग निवारण जैसी बात लोक में पायी जाती है, वहाँ न उपसर्ग है न कुछ सेवा, किंतु स्वयं ही द्रव्य का वहाँ निर्माण पाया जाता है । जिन प्रतिमा के निकट में 8 मंगलद्रव्य वहाँ अकृत्रिम है । वे 8 मंगलद्रव्य हैं―झारी, कलश, दर्पण, बीजणा, ध्वजा, चमर, छत्र और ठौना । अकृत्रिम चैत्यालयों के वर्णन को सुनकर ही तो ये जिनमंदिर बने हैं जहाँ प्रतिमा विराजमान की जाती है, पर इतना स्थान नहीं है जो ठीक उनकी भांति जिनमंदिरों की रचना हो, इसलिए जितना संभव है उतना सब कुछ जिनमंदिरों में किया जाता है । उन मंदिरों में अनेक स्थान हैं जहाँ सामायिक जैसे स्थान, नृत्य करने, संगीत जैसे स्थान । वहाँ की गलियों के दोनों ओर धूपघट के आकार के जिनमंदिर बने हैं, वे जिनमंदिर अकृत्रिम तोरणों से शोभित हैं और जिनबिंब के विराजने के स्थान तीन कटनी से शोभित है । उन सब जिनमंदिरों में देवता लोग दर्शन करने जाते हैं, पर कभी-कभी ढाई द्वीप के अंदर विद्याधर, श्रावक ऋद्धिधारी मुनि भी दर्शन करते हैं, ऐसे अकृत्रिम चैत्यालयों के स्मरण पूर्वक यह श्रावक उन जिनबिंबों की पूजा करता है ।
प्रभुसम शुद्धपरिणति पाने की प्रतीक्षा के भाव पूर्वक प्रभुगुणस्मरण―खड़ा है श्रावक अपने ही मंदिर में जो कि कृत्रिम है, जैसे कहते हैं कि हम में सकती सो नाहि । याने मेरे में शक्ति नहीं है कि उन मंदिरों में जाऊं सो यही स्थापना करता हूँ । ये सब स्थान हैं, उन स्थानों में रहकर जिनेंद्र देव के गुणों का स्मरण किया जाता है । जैसे किसी बड़े की बारात जाती है तो उस दूल्हे के साथ उसका छोटा भाई भी बड़ी रुचि से बैठता है वह सब बातें मानों यों निरखता है कि एक दिन मुझे भी इसी-इसी तरह से सब करना होगा । तो ऐसे ही यह पूजक श्रावक प्रभु के गुणों का बड़ी रुचि पूर्वक स्तवन करता है । उसको निर्णय बना है कि जो प्रभु का स्वरूप प्रकट हुआ है वही मेरा भी स्वरूप प्रकट होगा । पर इसके लिए इतनी दृढ़ तैयारी चाहिये कि उसको जगत के अणुमात्र में भी ममता न रहे । यह मोह ममता इस जीव का बड़ा घातक है । यह अज्ञानी जीव मोह करके अपने को चतुर मानता है, बड़ा मानता है, गर्व भी करता है, पर वह अध: पतन की ओर ही जा रहा है, यह उसके चित्त में नहीं है । प्रभुपूजा करते हैं तो कुछ तो ध्यान करना चाहिए कि जिस मार्ग पर चलकर ये प्रभु बने, मेरे को वही मार्ग चाहिए । संसार में रुलने का मार्ग न चाहिए । यह बात जिसके चित्त में आ जाती है उसके क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक सब कषायें मंद हो जाती है । उसके सर्वप्राणियों पर मैत्री हो जाती है । सर्व को अपना मानता है, अर्थात् सबको अपना जैसा स्वरूप समझता है । भक्तिपूर्वक जिनेंद्रदेव की पूजा का महान फल है, जिसके जितना ज्ञान है, जिसके जितनी गुणों के स्वरूप में पहुंच है, जिसको भेद विज्ञान के कारण जितना ममत्व छूटा है उस योग्यता के अनुसार वह पूजक अपने महान फलों को प्राप्त करता है । पूजा के फल में एक कथा बहुत प्रसिद्ध है जिस कथा को समंतभद्राचार्य स्वयं नीचे के श्लोक में बता रहे हैं ।