वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 118
From जैनकोष
श्रीषेणवृषभसेने कौंडेश: शूकरश्च दृष्टांता: ।
वैयावृत्यस्यैते चतुर्विकल्पस्य मंतव्या: ।। 118 ।।
वैयावृत्य शिक्षाव्रत में दान का महत्त्व―वैयावृत्य नाम के शिक्षाव्रत में चार दानों का कर्तव्य प्रधान है । दान का अर्थ है दिया जाना, दूसरे को देना सो दान है । दान में अपना भी उपकार है और दूसरे का भी उपकार है । अपना उपकार यह है इतने द्रव्य से ममत्व का त्याग हुआ और साथ ही अच्छे कार्य के लिए भावना जागी, दूसरों का उपकार इस प्रकार है कि उस आहार आदिक के फल में वह पात्र धर्मध्यान करेगा, संयम की साधना करेगा । सो अपने व दूसरे के आत्मा की भलाई के लिए योग्य विधि से योग्य वस्तु योग्य पात्र को दिया जाने को दान कहते है । दान में अनेक भेद हो सकते है । जितनी प्रकार के पात्र हैं और जो-जो प्रयोजन हैं उनके भेदों से अनेक भेद हो सकते हैं, फिर भी चार दान प्रसिद्ध हैं―(1) आहारदान, (1) औषधिदान, (3) ज्ञानदान और (4) अभयदान । इस वैयावृत्य शिक्षाव्रत में जो अंत में जिनेंद्र पूजा का प्रसंग दिया है वह भी दान में गर्भित है । यद्यपि उससे प्रभु का इतना उपकार नहीं होता किंतु अपना तो उपकार है इसलिए जिनेंद्र पूजा भी दान में अथवा त्याग में गर्भित की गई है । धर्म के संबंध में बताया गया था कि सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र धर्म है । सम्यक्चारित्र का अर्थ है कि अपने सहजस्वरूप में अपने उपयोग को मग्न करना । यह तो परिपूर्ण रूप से सम्यक्चारित्र पर उसकी प्राप्ति के लिए जो पोषण होता है उस पोषण को भी व्यवहार में सम्यक्चारित्र कहते हैं । सो अशुभ परिणति का त्याग और शुभ परिणति का आचरण भी सम्यक्चारित्र कहलाता है । दान शुभ परिणति है इसलिए दान भी सम्यक्चारित्र कहा गया है ।
आहारदान में प्रसिद्ध श्रीषेण राजा से एक संबंध बताने वाली उपकथा―चार प्रकार के दानों में चार व्यक्ति प्रसिद्ध हुए हैं, ऐसा इस श्लोक में संकेत किया है । आहारदान में राजा श्रीषेण, औषधिदान में वृषभसेना, ज्ञानदान में कौंडेश राजा, अभयदान में एक सूकर प्रसिद्ध हुआ है । राजा श्रीषेण की कथा इस प्रकार है कि मलय देश में एक बल नाम का गांव था । वहाँ एक धरणीजट नाम का ब्राह्मण रहता था । उसके दो पुत्र थे । वह ब्राह्मण जब अपने उन दोनों लड़कों को पढ़ाता था तो उसके घर में जो एक नीच जाति का लड़का रहता था सो वह छिपकर उसका पढ़ाना सुना करता था । उस लड़के का नाम था कपिल । कपिल की बुद्धि तेज थी । सो वह उन दोनों का पढ़ना व ब्राह्मण का पढ़ाना सुन सुनकर ही बड़ा विद्वान हो गया । जब नगर के ब्राह्मणों को यह विदित हुआ कि यह कपिल नीच जाति का बालक है और उसने धरणीजट ब्राह्मण से विद्या सीख ली है तो उन्होंने उसको बहुत डांट लगाया, क्योंकि उनके यहाँ ऐसी प्रसिद्धि है कि नीच कुल वालों का पढ़ाना न चाहिए । उस आधार पर ब्राह्मणों ने उसको बहुत बुरा भला कहा । धरणीजट भी कपिल की इस चालाकी से बहुत नाराज हुआ और किसी प्रकार उस कपिल को घर से निकाल दिया । अब कपिल ने बल गांव में रहना छोड़ दिया । वह जनेऊ पहिनकर ब्राह्मण बन गया । विद्या तो उसके पास थी ही सो अपनी उस विद्या के बल से वह अपने को खूब निभा सकता था । तो वह ब्राह्मण बनकर रत्नसंचयपुर चला गया । उस दूसरे नगर में इस कपिल की एक सात्यकी नाम के ब्राह्मण से भेंट हुई सात्यकी ने इसे रूपवान, विद्यावान देखकर तथा ब्राह्मण समझकर अपनी कन्या सत्यभामा इसको विवाह दी । वहाँ के राजा श्रीषेण ने कपिल के ज्ञान की बड़ी प्रशंसा सुनी तो उसने अपने यहाँ बुलाया और उसे शास्त्र पढ़ने के लिए रख लिया ।
श्रीषेण द्वारा सत्यभामा को पुत्रीवत् रखने के संबंध का आख्यान―वहां पर भी कपिल अपने को ब्राह्मण ही बतलाता रहा । इस प्रकार राजा से भी द्रव्य पाकर और ब्राह्मण की लड़की से विवाह कराकर वह घर में सुखपूर्वक रहने लगा । सत्यभामा की किसी-किसी करनी को देखकर उसकी जाति पर संदेह रहने लगा, क्योंकि वह कपिल संध्या, पूजन आदिक जो ब्राह्मण के उचित काम थे उनमें बहुत ही शिथिल रहा करता था । उसका बर्ताव, वचनव्यवहार भी उच्च कुल के मनुष्यों के समान न था, और इतना ही नहीं एक घटना ऐसी हुई कि एक दिन जब सत्यभामा रजस्वला थी उस स्थिति में इस कपिल ने सत्यभामा के साथ पाप करना चाहा, सत्यभामा उस कपिल का इतना नीचा भाव देखकर और भी संदेह में पड़ गई । सत्यभामा का संदेह बढ़ता ही गया और अपना संदेह मिटाने का उसे कोई उपाय न मिल सका । बलगांव में धरणीजट के पाप का उदय आया, उसका सारा धन नष्ट हो गया । भिखारी बन गया । जब उसे मालूम हुआ कि कपिल रत्नसंचयपुर में है और वह बहुत अच्छी हालत में है तो कुछ आशा से ही वह धरणीजट कपिल के पास गया । कपिल को वहाँ भी अपनी जाति का भेद खुलने का निरंतर डर रहा करता था । और अब धरणीजट को आया हुआ देखा तो उसके बहुत घबड़ाहट हुई । उस घबड़ाहट का कारण यह ही था कि कहीं यह धरणीजट मेरी जाति का भेद न बता दे । इस शंका की वजह से कपिल ने धरणीजट का और भी अधिक सम्मान किया । धरणीजट को अच्छी तरह रखा, बहुत धन दान किया और अपनी स्त्री तथा पहिचान के लोगों से विदित करा दिया कि यह तो मेरे पिताजी हैं । धन के लोभ में आकर धरणीजट ने भी कह दिया कि कपिल मेरा ही पुत्र है । सो लोभ के वश न जाने क्या-क्या हुआ करता है । एक दिन की बात है कि कपिल कहीं दूसरे गांव को गया हुआ था । तब सत्यभामा ने उस धरणीजट को बहुत धन दिया और एकांत में पूछा कि सच बताओ यह कपिल आपका ही पुत्र है या नहीं? वह ब्राह्मण धरणीजट पहले तो बड़ी चिंता में पड़ गया कि मैं क्या उत्तर दूं लेकिन सत्यभामा के सम्मान को देखकर और बहुत दिए हुए द्रव्य को देखकर उसने सारी बात कह दी कि कपिल मेरा पुत्र नहीं है और यह तो शूद्र का पुत्र है । बस धरणीजट ने यह हाल बताया, उसके बाद वह वहाँ न रह सका । कपिल का उसको डर था । वह एक दम रत्नसंचयपुर से चल दिया । अब यहाँ सत्यभामा को जब मालूम हो गया कि यह कपिल बड़ा कपटी है और उसने अपने कपट जाल से मुझे विवाहा है तो उस सत्यभामा ने कपिल के साथ बोलना बिल्कुल बंद कर दिया और राजा श्रीषेण के पास जाकर उस सत्यभामा ने सब वृत्तांत सुनाया क्योंकि वह कपिल राजा के यहाँ शास्त्र पढ़ता था । दूसरी बात कोई दुःखी हो किसी का अपराध हो तो राजा से कहना भी चाहिए । राजा को भी पता पड़ गया कि कपिल शूद्र का पुत्र है और इसने धोखा देकर ब्राह्मण की पुत्री से विवाह किया है और उसको हमने भी शास्त्र पढ़ने के लिए रखा है तब भी इसने अपना जाति भेद नहीं कहा, तो राजा ने कपिल को गधे पर बैठालकर अपने राज्य से निकाल दिया और सत्यभामा को अपने ही महल में पुत्री के समान बर्ताव कर रख लिया ।
राजा श्रीषेण द्वारा आहारदान व श्रीषेण की रानियों द्वारा एवं धर्मपुत्री सत्यभामा द्वारा आहारदान की अनुमोदना―एक दिन राजा श्रीषेण के यहाँ आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो मुनिराज आहार के लिए चर्या करते हुए आये, राजा ने बड़ी भक्तिपूर्वक उन मुनिराज को पड़गाहा और निर्दोष आहार दिया । श्रीषेण राजा की सिंहनंदिता और आनंदिता इन दोनों रानियों ने उसके आहारदान की बड़ी प्रशंसा की साथ ही धर्मपुत्री सत्यभामा ने भी श्रीषेण के आहारदान की बड़ी अनुमोदना की । निरंतराय आहारदान होने से राजा के यहाँ देवताओं द्वारा रत्नवर्षा, पुष्पवर्षा, दुंदुभी का बजना मंद सुगंधित हवा चलना और जय-जय के शब्द होना ये पंच आश्चर्य हुए ।
आहारदान के प्रभाव से राजा श्रीषेण का उत्थान व निकटकाल में निर्वाण―राजा श्रीषेण ने बहुत वर्षों तक राज्य किया और राज्य करके जब शरीर छोड़ा तो मरकर आहारदान के प्रभाव से उत्तम भोगभूमि में बड़े सुख के साधन मिले । वहाँ तीन पल्य की आयु थी, ये जुगला जुगली उत्पन्न हुए । इनके उत्पन्न होते ही माता-पिता मर गए, फिर ये दोनों जीवनभर बहुत विषय सुख साधनों में मग्न रहे । दोनों रानियां और सत्यभामा ने भी आहारदान की प्रशंसा की थी, उनके प्रभाव से वहीं भोगभूमि में उत्पन्न हुई । राजा श्रीषेण बहुत काल तक भोगभूमि का सुख भोगकर स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से चलकर चक्रवर्ती राजा हुए । ऐसे ही मनुष्य और देवों के थोड़े भव रखकर 16वें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ हुए । शांतिनाथ भगवान ने राज्यसुख भोगकर छोड़कर तप धारण किया, केवल ज्ञानी हुए, संसार के सब जीवों के हित का उपदेश करते रहे और अंत में अष्ट कर्मों के विनष्ट होते ही वे मोक्ष पधारे । यहाँ आहारदान की महिमा बतायी गई है । इस दान के प्रताप से राजा श्रीषेण ने ऊंचे-ऊंचे पद पाये और तीर्थंकर पद में आकर लोक कल्याण करके मोक्ष पधारे । आहारदान श्रावकों का प्रतिदिन का कर्तव्य है । इससे ही धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चला करती है ।
औषधिदान में प्रसिद्ध वृषभसेना द्वारा पूर्वभव में औषधिदान व वैयावृत्य द्वारा मुनिराज की सेवाभक्ति―औषधिदान में वृषभसेना प्रसिद्ध हुई । इसी भारत देश में कावेरी नगर में एक ब्राह्मण रहता था, उसकी लड़की का नाम नागश्री था । वह नागश्री मंदिर जी में झाड़ने बुहारने का काम किया करती थी । एक दिन शाम को मंदिर में मुनिदत्त मुनि ध्यान कर रहे थे और वहाँ नागश्री झाड़ने आयी और झाड़ते-झाड़ते उस जगह पहुंची जहाँ मुनि महाराज ध्यान लगाये बैठे थे । उस नागश्री ने मुनि से कहा कि उठो, हमें यहाँ झाड़ना है पर मुनिराज ध्यान पूर्ण किए बिना कैसे उठ सकते थे, वे न उठे और ज्यों के त्यों ध्यान में बैठे रहे । नागश्री ने कई बार मुनिराज से उठने को कहा पर वह न उठे, अपने ध्यान में मस्त रहे वहाँ नागश्री को क्रोध आया सो क्या किया कि कूड़े का बहुत बड़ा ढेर मुनि महाराज के चारों ओर लगा दिया, यहाँ तक कि इतना कूड़ा ऊपर से हो गया कि वे मुनिराज उसमें दब गए, पर इस उपसर्ग में भी मुनिराज अपने ध्यान से विचलित न हुए, बल्कि और भी अधिक ध्यान में बढ़ गए । सारी रात यों ही ढके रहे । सवेरा होते ही जब राजा मंदिर में गया और वहाँ कूड़ा कचरा का ढेर कुछ हिलता हुआ सा देखा तो समझ लिया कि इसके अंदर कोई पुरुष ढका है । जब सारे कूड़े को हटवाया तो क्या देखा कि उसके अंदर मुनिराज बैठे हैं । उन्हें दंडवत प्रणाम किया और दु:खी होकर चले गए । उधर वह नागश्री भी उसी समय झाड़ने बोहारने का काम करने गई तो क्या देखा कि वह मुनिराज शांतचित्त बैठे हुए थे, उस समय नागश्री के चित्त में मुनिराज के प्रति बड़ी भक्ति उत्पन्न हुई और वह अपनी मूर्खता पर बहुत पछताई । मुनिराज से क्षमायाचना भी किया । उसने मुनिराज का कष्ट दूर करने के लिए अनेक प्रकार की दवाइयां की और वह मुनिराज की वैयावृत्ति में बहुत लग गई मुनिराज को बिल्कुल स्वस्थ कर दिया ।
औषषिदान के प्रभाव से नागश्री के जीव का वृषभ सेना के भव में एक चमत्कार―इस औषधि दान का प्रभव देखिये कि जब नागश्री की आयु पूर्ण हुई तो वह मरकर उसी नगर के धनपति सेठ की पुत्री हुई । सेठ ने उस पुत्री का नाम वृषभसेना रखा । वृषभसेना रूपवती और भाग्यवती थी एक दिन उसकी दासी वृषभ सेना को स्नान करा रही थी, उसके स्नान कराने से जो नीचे पानी गिरता था वह बहकर एक गड्ढे में भर गया । अचानक ही वहाँ एक रोगी खुजैला कुत्ता आया और उस गड्ढे में गिर गया, थोड़ी देर के बाद जब वह कुत्ता गड्ढे से निकला तो वह बिल्कुल निरोग हो गया । कुत्ते की ऐसी हालत देखकर उस दासी को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने मन में विचारा कि जो इसको आराम हुआ है सो वृषभसेना के स्नान के जल में नहाने से हुआ है । वह वृषभसेना के उस नहाये हुए जल को लेकर अपने घर भी गई । उस दासी की माता की आंखें ठीक न थी, अंधी थी, उस दासी ने अपनी माँ की आँखों में जो कई वर्षों से बिगड़ रही थी, पानी लगाया तो उसे दिखने लगा । जब शहर में यह बात फैल गई तो सभी प्रकार के रोगी अब वृषभसेना के स्नान का जल लेने के लिए आने लगे और उनको आराम भी होने लगा ।
वृषभसेना के चमत्कार का राजा उग्रसेन पर महान प्रभाव―उस समय वहाँ के राजा उग्रसेन थे । उन्होंने अपने मंत्री रणपिंगल को अपने शत्रु राजा मेघपिंगल से लड़ने को भेजा । राजा मेघपिंगल को जब अपनी जीत न दिखाई दी तो उसने उस कुवें के पानी में विष मिला दिया जिस कुवें का पानी रणपिगल की सेना के पीने के काम आता था । उस पानी के पीने से बहुत से सिपाही मर गए और बहुत से बीमार हो गए । जब रणपिंगल की बची हुई सेना वापिस आ गई और सेना को वृषभसेना के स्नान किए हुए जल से धोया तो सबको आराम हो गया । जब उग्रसेन को मेघपिंगल की बेईमानी ज्ञात हुई तब वह खुद ही सेना लेकर मेघ पिंगल से लड़ाई करने लगा । मेघपिंगल ने फिर भी वही काम किया जिससे राजा उग्रसेन की और उसकी सेना की तबीयत बिगड़ने लगी, तो लाचार होकर राजा भी लौट आया । राजधानी में आने पर राजा ने मंत्री की सलाह से वृषभसेना के स्नान का जल मंगवाया । जब राजा के नौकर वृषभसेना की दासी के पास जल मांगने गए तो सेठानी ने अपने पति से कहा कि हे स्वामी अपनी बेटी के स्नान का जल राजा के ऊपर छिड़का जाय यह तो ठीक नहीं जंचता, सेठ ने उत्तर दिया कि हे प्रिये अपने को राजा से कुछ छल नहीं करना है, सब सच्चा हाल उन्हें सुना दिया जायगा । धनपति सेठ ने दासी के द्वारा वृषभसेना के स्नान का जल राजा के पास भेज दिया और उस दासी ने पहले ही राजा को मालूम करा दिया था कि यह वृषभ सेना के स्नान का जल है फिर राजा के ऊपर छिड़क दिया तो राजा को तुरंत आराम हो गया ।
वृषभसेना का पट्टरानी बनना―जब राजा उग्रसेन को वृषभसेना की ऐसी महिमा विदित हुई तो धनपति सेठ को राजा ने अपने पास बुलाया और कहा कि आप अपनी लड़की का विवाह मेरे साथ कर दें । तो सेठजी ने उत्तर दिया कि महाराज हमारे समान तुच्छ मनुष्य के साथ आप नाता करना चाहते हैं यह तो हमारे बड़े भाग्य की बात है । और बेटी वृषभसेना भी विवाह के योग्य हो गई और आपके साथ उसका विवाह करने को तैयार भी हूँ, परंतु मुझे यह कहना है कि आपको अष्टाह्निका के दिनों में भगवान की पूजा बड़े ठाठबाट के साथ करानी पड़ेगी । जो पशु पक्षी पिंजरों में बंद हैं तथा जो कैदी जेलखाने में बंद है उनको छोड़ देना पड़ेगा । राजा उग्रसेन ने सेठ की सब बातें मान ली और वृषभसेना ने विवाह करा लिया । राजा वृषभसेना को पट्टरानी बनाकर सुख से रहने लगा । वृषभसेना उन सुखों में अपने को भूली नहीं, वह भगवान की पूजा, स्वाध्याय, शील, संयम, पात्रदान आदिक कर्तव्य सदैव कर रही थी । राजा उग्रसेन ने सेठ को दिए हुए वचनों पर सभी पशुपक्षियों को और कैदियों को छुड़वा दिया परंतु बनारस के पृथ्वीचंद्र को नहीं छोड़ा । यह पृथ्वीचंद राजा बहुत क्रूर था । राजा पृथ्वीचंद्र की रानी नारायण दत्ता बनारस में रहती थी और उसको बड़ा भरोसा था कि इस समय उसका पति भी छूट जायगा, परंतु जब यह न हुआ तो उस रानी ने बनारस में वृषभसेना के नाम से कई दानशालायें बनवायी और इसीलिए बनवायी कि जिससे रानी वृषभसेना को बनारस के राजा पृथ्वीचंद का सब हाल मालूम हो जाय कि महाराज ने मेरे पति को अब तक नहीं छोड़ा । उन दानशालावों में प्रत्येक मनुष्य को बढ़िया भोजन कराया जाता था । उन दानशालावों का नाम बहुत बढ़ गया । कावेरी के ब्राह्मण बनारस गए, दानशालावों में भोजन किया व प्रशंसा करते हुए आये । दासी ने दानशालायें मालूम होते ही, वृषभसेना से कहा कि आपके नाम की कई दानशालायें नगर में खुली हैं तो वृषभ सेना ने कहा किं हमने तो नहीं खुलवाई । तब दासी ने सब पता लगाया व बताया कि नारायणदत्ता ने अपने पति को छुड़ाने के लिये वृषभसेना के नाम से दानशालायें खुलवाई । तब वृषभसेना के कहने से राजा ने पृथ्वी चंद को छोड़ दिया । पृथ्वीचंद्र राजा ने उग्रसेन व वृषभसेना के प्रति विनय दर्शाई । तब पृथ्वीचंद का मित्र मेघपिंगल भी उग्रसेन का सेवक बन गया, राजावों ने उग्रसेन को भेंट दी उसमें आधा धन व एक दुशाला मेघपिंगल को दिया व आधा धन व एक दुशाला वृषभसेना को दिया । मेघपिंगल की रानी वही दुशाला ओढ़कर वृषभसेना के पास गई । दुशाला बदला गया कपड़े धरने उतारने में । कई दिन बाद दूसरा दुशाला देखकर राजा को शक हुआ, रानी को समुद्र में ढकेला, देवों ने सिंहासन पर बैठाया । राजा ने क्षमा मांगी । अंत में वृषभसेना आर्यिका हो गई । औषधिदान के प्रभाव से वृषभसेना ने स्नान जल का चमत्कार पाया, पर नागश्री के भव में मुनि निंदा के कारण व्यर्थ कलंक लगा । औषधिदान की महिमा निरोग रहना व करना है ।
शास्त्रदान में प्रसिद्ध गोविंद ग्वाला का सद्गति पा पाकर कौंडेश मुनि के पर्याय में सर्व श्रुतज्ञपना―एक दान है शास्त्रदान । शास्त्रदान में कौंडेश मुनि प्रसिद्ध हैं । बहुत पुरानी वार्ता है कि इस हिंदुस्तान में कुरुमरी नाम का एक गांव था । वहाँ एक ग्वाला रहता था जिसका नाम गोविंद था । एक दिन गोविंद जंगल में गया और उसने एक वृक्ष के खोल में एक शास्त्र जी रखा हुआ देखा । शास्त्रजी को गोविंद अपने घर ले आया और उसकी रोज-रोज पूजा करने लगा । गोविंद पढ़ा लिखा तो था नहीं, वह बांचता कैसे? लेकिन वह शास्त्र जी की पूजा करके ही संतोष कर लिया करता था । एक दिन श्री पद्मनंदी मुनि के गोविंद ने दर्शन किया तब उसने वह ग्रंथ उन मुनिराज को दे दिया । पद्मनंदी मुनि बहुत समय तक उस ग्रंथ का स्वाध्याय करते रहे और उस ग्रंथ के द्वारा भव्य जीवों को उपदेश देते रहे । अंत में जब पद्मनंदी मुनि वहाँ से विहार करते समय साधुवों की नीति के अनुसार वृक्ष की खोल में उस ग्रंथ को रखकर चले गए । पद्मनंदी मुनि के चले जाने पर भी गोविंद उस शास्त्रजी की पूजा प्रतिदिन किया करता था । योगवश गोविंद को एक सांप ने डस लिया और गोविंद मर गया । पर मरण समय गोविंदने यह निदान किया था कि मैं किसी धनिक का पुत्र होऊं । निदान का अर्थ यह है किसी जीव ने यदि कुछ पुण्य किया है तो उस पुण्य से जितना जो कुछ लाभ होना है, यदि वह उससे कम लाभ चाहे तो उसको मनचाहा लाभ मिल जाता है । गोविंद इस निदान के कारण कुरुमरी गांव के एक पटेल के यहाँ पुत्र हुआ । कुछ उसने पूर्व जन्म में मुनि को शास्त्रदान करके बड़ा पुण्यबंध किया था सो बहुत ही रूपवान, भाग्यवान और बुद्धिमान हुआ । एक दिन पद्मनंदि मुनि बिहार करते हुए उसी कुरुमरी गांव में आये । मुनि को देखकर उस बालक को पूर्वभव का स्मरण हो आया । तब उस बालक ने मुनि को नमस्कार कर उनसे दीक्षा ली और तपश्चरण किया । आयु पूर्ण होने पर पुण्योदय से वह कौंडेश राजा हुआ जो बड़ा ही वीर और मनोज्ञ था एक दिन राजा कौंडेश को वैराग्य उत्पन्न हुआ । सो उसने मुनि दीक्षा ग्रहण की । आत्मा के गुणों के चिंतन में उपयोग को जोड़ दिया और तपश्चरण के प्रभाव से तथा पूर्वभवों में शास्त्रदान देने के प्रभाव से वह श्रुत केवली हो गया । श्रुत केवली को समस्त द्वादशांग श्रुत का ज्ञान होता है और वह श्रुत केवली कुछ ही भव धारण करके निर्वाण को प्राप्त करता है, तो ज्ञानदान का ऐसा अद्भुत प्रभाव जानकर ज्ञानदान में अपने तन, मन, धन, वचन का प्रयोग करना चाहिए । इस ज्ञानदान के प्रभाव से निकटकाल में ही वह पुरुष केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पाता है । श्रावक का अभयदान करना भी कर्तव्य है । जीवों को निवास का स्थान देना कोई विपत्ति आये उसे दूर करना यह सब अभयदान कहलाता है ।
अभयदान में प्रसिद्ध जंगली शंकरराज की गुरुभक्ति―अभयदान में एक जंगली सुवर की बड़ी प्रशंसा गायी गई है । घटना ऐसी है कि मालवदेश में घट नाम का एक गांव था, वहाँ एक नाई और एक कुम्हार रहते थे । नाई का नाम धर्मिल और कुम्हार का नाम देवल था । वे दोनों ही धनिक भी थे । सो दोनों ने मिलकर एक धर्मशाला बनवा दी । एक दिन देवल कुम्हार ने एक मुनिराज को लाकर उसी धर्मशाला में ठहरा दिया और आप घर चला गया । जब धर्मिल को यह मालूम हुआ तो उसने मुनि का हाथ पकड़कर निकाल दिया और एक पाखंडी साधु को धर्मशाला में ठहरा दिया । देवल ने जब मुनि महाराज को धर्मशाला से निकालने का वृतांत सुना और मुनिराज का अपमान सुना तो उसे बड़ा दुःख हुआ । मुनिराज ने तो कुछ भी बुरा नहीं माना वे तो शांतचित्त ही रहे और वहाँ से चलकर वे एक वृक्ष के नीचे पहुंचकर ध्यान में लीन हो गए । वहाँ डॉस मच्छरों ने उन्हें बहुत पीड़ा दी और मुनिराज ने बड़ी धीरता से उस पीड़ा को सहन किया । देवल ने जब यह सब वृतांत जाना और मुनिराज को एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते पाया तब उसे धर्मिल पर बड़ा क्रोध आया । धर्मिल को उसने खूब डांट लगाया, पर धर्मिल भी देवल की फटकार न सहन कर सका सो उनमें आपस में लड़ाई बन गई दोनों की मारपीट हुई और आपस में वे दोनों लड़ लड़कर मर गए । देवल कुम्हार तो मरकर एक जंगली सुवर हुआ और धर्मिल नाई उसी जंगल में बाघ हुआ । पहाड़ की जिस गुफा में सुवर रहता था उसमें समाधिगुप्ति और त्रिगुप्ति दो मुनिराज आकर ठहर गए । सुवर मुनिराज के दर्शन किया तो उसे पूर्वजन्म की सब बात याद आयी । उसने मुनि के चरणों में नमस्कार किया और उनके दर्शन उपदेश पाकर श्रावक के व्रत ग्रहण किया । अब धर्मिल का जीव जो बाघ हुआ था वह मनुष्यों की गंध पाकर गुफा की ओर आया और चाहा कि मैं इन दोनों मुनियों को खा लूँ, पर वह सुवर गुफा के द्वार पर आकर खड़ा हो गया । बाघ को न जाने दिया । दोनों में लड़ाई हुई । बाघ ने सुवर को नखों से, दांतों से खूब घायल कर दिया और सुवर ने भी उसे अधमरा बना दिया । अंत में दोनों मर गए । दोनों के भावों में बड़ा अंतर था । सुअर के भाव तो मुनि की रक्षा के थे और प्राण रहते तक उनकी रक्षा की । इसमें सुवर का जीव तो स्वर्ग में देव हुआ और बाघ का भाव मुनि के भक्षण में था । वह मरकर नरक गया । सो-सो जीवों की रक्षा करता है, अभयदान देता है वह कर्मबंधन से छूटकर मुक्त होता है और सदा के लिए निर्भय हो जाता है ।