वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 89
From जैनकोष
अद्य दिवा रजनी वा, पक्षो मासस्तथर्तुरयनं वा ।
इति कालपरिच्छत्या, प्रत्याख्यानं भवेन्नियम: ।। 89 ।।
नियमरूप प्रत्याख्यान का लक्षण―उक्त श्लोक में यह बताया था कि नियम की पद्धति से और यम की पद्धति से भोगोपभोग का परिमाण होता है । तो नियम का अर्थ क्या है वह इस छंद में आचार्य ने बताया है । आज दिन रात पक्ष माह दो माह, ऋतु अयन (छहमाह) आदिककाल परिमाण करके वस्तु का त्याग करना सो नियम कहलाता है । सल्लेखना मरण भी दो पद्धतियों से किया जाता―(1) नियम वाला, और (2) यम वाला । यम में तो यावज्जीव त्याग होता । जिसका भी त्याग किया और नियम में कोई सीमा लेकर त्याग किया जाता । कभी-कभी ऐसा भी हो जाता कि तबीयत बहुत अधिक बिगड़ी सी मालूम होती है और जान लेता है कि अब तो मेरा मरण समय है तो वह हमेशा के लिए अन्न जल औषधि वगैरह सबका त्याग कर देता है । और त्याग कर देने से अगर तबीयत ठीक भी हो जाती तो भी समाधिमरण करनेपर संक्लेश बनेगा ऐसी स्थिति आ सकती । इसलिए सल्लेखना बतायी गई है कि वह नियम रखकर समाधि मरण करे अगर वह कुछ सीमा रखकर त्याग करता है तो उसे सल्लेखना नहीं है । ऐसे ही भोगोपभोग परिमाण में नियम से त्याग किया है कि मैं अमुक पदार्थ का त्याग करता हूँ । तो उसे कहते हैं नियम भोगोपभोग परिमाणव्रत । अब भोगोपभोग परिमाणव्रत के 5 अतिचार कहते है ।