वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 18
From जैनकोष
यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा।जानन्न दृश्यते रूपं तत: केन ब्रवीम्यहम् ।।18।।शीतल आत्मगृह–संसार के आताप से तपे हुए प्राणी को शीतलता संतोष देने वाला यदि कोई अमोघ उपाय है तो वह है गुरूवों का वचन। इस ग्रंथ में गुरु पूज्यपाद स्वामी ने ऐसा हितरूप उपदेश किया है कि उस उपदेश में चित्त जाय तो संसार का संताप भी नहीं रहता। सांसारिक गर्मी या हवा बंद होने आदि के दुःख तो वहाँ ठहरते ही नहीं हैं। उपयोग वहाँ ले जाने की देर है फिर कहीं कोई कष्ट नहीं है। जगत् के अन्य सर्वदेहादिक पदार्थों से उपयोग को हटाकर अपने आपका जो यथार्थस्वरूप है उस स्वरूप में उपयोग करें तो आताप की बात तो दूर रही, शीतलता का अनुभव होता है। चाहे पौद्गलिक शीतलता न भी हो बाहर, फिर भी अंतरंग में शीतलता और संतोष होता है।
बहिरंतर्जल्प परिहारविधि की मूल जिज्ञासा–पूर्व श्लोक में यह उपदेश किया गया था कि संसार के संकटों से छूटना हो, मुक्ति पाना हो तो सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि बाह्य वचनालाप को त्याग दें और सर्वप्रकार से अंतरंग वचनालाप को भी छोड़े। तब प्रश्न यह होना स्वाभाविक है कि आखिर वह उपाय क्या है जिसको हम प्रयोग में लायें तो हमारे बाह्य वचनालाप छूट जायें ? उसके समाधान में ही यह श्लोक आया है।बहिरंतर्जल्प परिहारिणी मूलभावना–वचनव्यवहार दिखने पूर्वक हुआ करते हैं। लोग कहते हैं ना, न देखे न भौंके। जितने वचनव्यवहार चलते हैं वे दिखाई दें तभी वचन बोले जाते हैं। चाहे मन से दिखाई दे, किसी भी प्रकार वह दिखाई दे तो वचनव्यवहार बनता है। उसके द्वारा जो कुछ दिखाया जा रहा है, क्या दिखाया जा रहा है―रूप। वह तो रंच भी जाननहार पदार्थ नहीं है और जो जाननहार पदार्थ है वह मेरे द्वारा देखा नहीं जा रहा है, फिर बतलावो मैं किसके साथ बोलूं ? क्या इस किवाड़ से बोलने लगूं ? नहीं नहीं, किवाड़ से मत बोलो। तो इस नाक, आँख, कान से बोलने लगूं ? जैसे किवाड़रूप पदार्थ है, वह भी जानता नहीं है ऐसे ही हड्डी, मांस की जो यह शकल है, शरीर है, यह शरीर भी कुछ जानता नहीं है। अरे तो शरीर से बोलने के लिए नहीं कह रहे हैं। शरीर के अंतर में जो आत्मा है उससे तो बोल लो। क्या शरीर के अंदर रहने वाला आत्मद्रव्य वह हमें दिखता है ? अगर दिखता हो तो बोल लो। कदाचित् प्रज्ञाबल से अंदर का आत्मतत्त्व परिचय में आ जायेगा तो बोलने की सिट्टी सब भूल जायेगी। वहाँ तो ज्ञान रस के आनंद का अनुभव लिया जायेगा। जो कुछ मुझे दिखता है वह जानता नहीं है, जो जानता नहीं उसके बोलने से क्या फायदा ? जानने वाले से बोलो तो लाभ है। सो जो जानता है वह दिखता नहीं, जो दिखता है वह जानता नहीं। फिर किससे बोलें ? यह उपाय बताया है कि तुम चुप कैसे रहो ? बकवाद बोलना बंद हो जाय उसका उपाय दिखाया है। लाभ हो बोलने से तो बोलो।
धर्म वचन में आपेक्षिक हितरूपता–कदाचित् यह कहोगे कि धर्म की बात, उपदेश की बात तो बोलने से सुनने से लाभ है तो भाई यह लाभ आपेक्षिक है सर्वथा लाभ नहीं है। विषय कषाय संबंधी वचनों को सुनकर जो हैरानी और परेशानी होती है उन हैरानियों से बचने का कारण यह धर्मवचन है। इस धर्मवचन को सुनते हुए भी हम किसी अपेक्षा से तो लाभ में हैं, लेकिन किसी अपेक्षा से हम अभी अपनी पूर्णपरिणति में नहीं हैं और फिर यह समाधि के लिए तैयारी बनाना है, उसमें आरंभ में यह यत्न है। जब कभी अपने ही भाई से अथवा मित्र से अपने लाभ की कोई उम्मीद नहीं रहती है तो तब लोग समझाते हैं यार एक दफे तो कह लो। अरे किससे बोलें ? वहाँ कुछ तत्त्व ही नहीं निकलने का है। तो अब यह बताओ किससे बोलें ?
किससे बोला जाय–लोग बच्चों को खिलाकर संतुष्ट होते हैं अपना समय गँवाते हैं, कितने वचन खर्च कर देते हैं। कुटुंब में राग भरी बातें कहकर अपने कितने वचन खर्च कर डालते हैं ? यह ध्यान में नहीं लाते। मैं किससे बोलूं ? कुछ आत्महित हो तो बोलने का श्रम किया जाय। यह द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता से आत्मद्रव्य के स्वरूप को लखकर समाधिभाव के लिए वार्ता की जा रही है। यह शरीर प्रकट अचेतन है और जो खास चेतन तत्व है, अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को लिए हुए है सो शुद्ध चेतन द्रव्य में तो सुनने की गड़बड़ियां ही नहीं हैं। देखो प्रभु किस प्रकार जानते हैं। उनके तो पांचों ही इंद्रियां नहीं हैं। देह भी नहीं है। तो वह देह भी चिन्मात्र जैसा है। उन इंद्रियों का वहाँ प्रयोग नहीं होता। तो किस तरह वे जानते हैं ? अपने आपसे। विश्व में जितने पदार्थ हैं उनके गुण उनकी पर्याय वे सब ज्ञात हो जाते हैं, किंतु जो स्वतंत्र वाली बात नहीं है, जो स्वयं कुछ द्रव्य नहीं है उसका विकल्प नहीं होता।प्रभु का शुद्ध जानन–भैया ! अशुद्ध ज्ञेय को हम अशुद्ध बनकर जान सकते हैं। प्रभु शुद्ध है और उनके ज्ञान में शुद्ध ज्ञेय ही आता है। यह दरवाजा 5,6 फीट लंबा है, चार साढ़े चार फीट चौड़ा है, यह हम तो जान रहे हैं, क्या भगवान् भी यों जानते हैं कि यह 5–6 फीट का लंबा दरवाजा है। यह आपेक्षिक चीज है, अशुद्ध बात है, कल्पना की हुई चीज है। प्रभु अपने सर्वप्रदेशों से सर्वद्रव्यों को सर्वगुण पर्यायों को जानता है। ऐसा जाननहार यह चैतन्यद्रव्य है। उसमें तो उसको बोला भी नहीं जा सकता, उसके तो इंद्रियां भी नहीं हैं, सुनने की बात नहीं हो सकती है। कोई भक्त जोर से चिल्लाकर गाए और ऐसी कल्पना करे कि मैं खूब जोर से बोल लूं तो भगवान् तक आवाज चली जाय। भगवान् निकट हों तो भी उनकी आत्मा में आवाज नहीं पहुंच सकती। उनका तो शुद्ध ज्ञातृत्वस्वरूप है। सुनना, सूँघना यह तो खंड ज्ञान है, अशुद्ध ज्ञान है। ऐसा अशुद्ध ज्ञान प्रभु के नहीं होता। तब फिर हम चुपचाप मन में बोलते रहें, पढ़ते रहें। पाठ तो क्या बेतार का तार बनकर भगवान् के प्रदेश में उसकी खबर पहुंच जायेगी ? सो वह नहीं पहुंच पाती। फिर अब क्या करना ? भगवान् का जो रूप है वह घट-घट में विराजमान है, हम आपमें भी है। सो उस भगवान् के उस स्वरूप में उपयोग दें तो समझ लीजिए कि हमारी बात भगवान को स्वीकार हो गयी।शिक्ष प्रयोग–यह आत्मदेव इंद्रियों द्वारा अगोचर अपने आप में ज्ञानानंदस्वभावरूप है। यही है आत्मतत्त्व। इससे बोल नहीं सकते। यह दिखता नहीं है। जो दिखता है वह जानता नहीं है। फिर किससे बोलें ? शुद्ध स्वरूप की झलक होने पर इसका अर्थ ह्रदय में बैठेगा। शुद्ध स्वरूप से दृष्टि विमुख रखने पर तो ऐसा लगेगा कि क्या व्यर्थ की बात कही जा रही है ? पर व्यवहार यह सुनता है, सारी बात तो सही-सही है और बोलते जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि मैं किससे बोलूं ? अरे बोलना बंद करने के लिए ही तो वह बोला जा रहा है। यह तो पाठशाला है, मंदिर या स्वाध्याय गोष्ठी है, चाहे यहाँ बैठकर पाठ याद करलो―बड़ी अच्छी बात है अथवा घर जाकर, चाहे दुकान में हो या घर में हो, कहीं जाकर बैठकर याद कर लो। कौनसा पाठ बता रहे हैं याद करने को ? जो दिखता है वह जानता नहीं, जो जानता है वह दिखता नहीं। फिर मैं किससे बोलूं ? ऐसा यथार्थ स्व–पर का भान होकर ऐसी प्रयोग की बात आये तो यह पाठ याद हुआ समझिये। तब बोल बंद होकर पूर्ण मौन से रहने पर स्वकीय आत्मस्वरूप में विश्राम होता है, उसका सहज आनंद मानने पर पश्चात् झुँझलाहट की बात, यह बात आप भी बोल सकेंगे। किससे बोलें ?
सरस स्वादी को विरसता में झुँझलाहट–आपको भोजन में पहिले तो परोस दें बहुत उम्दा स्वादिष्ट मिठाई का भोजन और दूसरी बार में परोस दें कोदो सवां के मोटे रोटा तो आप झुँझला कर कहेंगे कि क्या खायें ? अरे धरा तो है खावो, पर स्वादिष्ट भोजन ले चुकने के बाद ये कोदो सवां के रोटा कैसे खाये जा सकते हैं ? क्या खायें ? वचनव्यवहार समाप्त करने के उपाय से अपने आपके ज्ञानस्वभाव के अनुभव में जो आनंद जगा है उस आनंद लेने के पश्चात् जब कुछ अपने से हटकर व्यवहार में लगता हैं तो इसमें अलिप्त होता है। क्या स्थिति आ गयी ? वही पुरानी बात। आत्मस्वरूप में लीनता के क्षण मेरे हों यह स्थिति मुझे चाहिए। किससे बोलें ? यहाँ तो बड़ा अंधेर लगा है। जैसे सोने का आनंद जो बालक ले रहा है, उसे कोई जगाये तो वह बालक एक दो मुक्के मार ही देता है―मुझे क्यों जगाया ? मैं तो बड़े सुख में था। यों ही ज्ञानी पुरूष अपने आत्मस्वरूप में अनुपम स्वाधीन सत्य सहज आनंद पा लेने पर जब यह आनंद छूटता है, बाहरी पदार्थों में विकल्प करना होता है तो ज्ञानी को इस स्थिति पर ऐसी दृष्टि होती है कि कहां अब सिर मारें ? किससे बोलूं मैं।ज्ञानकला–भैया ! मोक्षमार्ग में सारा महत्त्व ज्ञानकला का है। ज्ञानकला का ही नाम सब देवता है। ज्ञानकला की विशेषतावों के ढाँचे में देवतावों की कल्पना करके श्रृंगार किया गया है। यह भगवती प्रज्ञा यही विजय करती है। भीख मांगने वाले लोग कहते हैं कि तुम्हारी भगवती फतेह करे। भगवती हम कहां ढूँढ़ने जायें ? क्या भगवती की किसी के साथ भांवरें पड़ी थीं जो उन्हें भगवती कहा। भगवती तो शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप है। भगवान् की जो आंतरिक सहज शुद्ध वृत्ति है वही भगवती है। जो भगवान् की हो सो भगवती। भगवान् की है परिणति, वही भगवती है। और जैसी वह भगवती है वैसी ही भगवती हम आप सबके अंतर में पड़ रही है, उसकी दृष्टि हो तो वह फतेह अवश्य करती है। इस ही का नाम है शक्ति। जो लोग उस शक्ति की उपासना करते हैं वे बाहर में कहां ढूँढ़ते हैं शक्ति ? अपने आपके अंतर में अपने सत्त्व के कारण सहज होने वाले स्वभाव को देखो, वही शुद्धशक्ति है। उस पर दृष्टि जगे तो यह शक्ति आत्मा का कल्याण कर सकती है।ज्ञानकला के अपरनाम–इस ज्ञानानुभूति के और भी नाम हैं–जैसे दुर्गा। ‘खु:खेन गम्यते प्राप्यते या सा दुर्गा’ जो बड़ी कठिनाई से प्राप्त हो सके उसे दुर्गा कहते हैं। देखो तो इस जीव को बाह्य समागम सारे सुगम लग रहे हैं। कठिनाई से प्राप्त होनेवाली बात है तो अपने आपका अंत:प्रकाशमान् जो ज्ञान स्वभाव है, जो छेदने से छिदता नहीं, भेदने से भिदता नहीं, जलाए से जलता नहीं, बहाये से बहता नहीं, ऐसे शुद्ध स्वभाव की अनुभूति कठिनाई से प्राप्त होने वाली बात हो गई। इस ज्ञानानुभूति को ही दुर्गा कहते हैं। इसी के ही सब रूप है। जैसे लोक में प्रसिद्ध है दुर्गा, काली, चंडी, भवानी―सब एक शक्ति के रूप हैं। और सरस्वती भी उस ही एक शक्ति का रूप है। और भिन्न-भिन्न पर्वों के उद्देश्य के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में देखी गयी हैं। इसी को सरस्वती के रूप में पहिचानो। इतनी शुद्ध शांतमुद्रा सहित ज्ञान की ही मुद्रा प्रकट हो ऐसा रूप बनाते हैं। और कभी जीभ निकली, अनेक हाथों में शस्त्र लिए हुए, मुंडमाला पहिले हुए एक भयंकर रूप मुद्रा में भी उपासना की जाती है। शक्ति एक है और उसकी भिन्न-भिन्न रूप से उपासना की जाती है।ज्ञानकला में उद्धार की द्विरूपता–वह शक्ति कौन है ? वह है यही चित्स्वभाव, चैतन्य महाप्रभुत्व, ज्ञानानुभूति। इस ज्ञानानुभूति शक्ति को जब हम इसके सहज विकास को निरखते हैं तो इस ज्ञानानुभूति का वह सरस्वती रूप है और यह ज्ञानानुभूति कर्मकलंकों को ध्वस्त करते हुए प्रचंड उदय रूप में आती है। उस मुद्रा को देखते हैं तो इस ज्ञानानुभूति में वह कालीरूप दिखता है जिस स्वरूप से यह सारे कर्मकलंकों ध्वस्त कर दे। रग-रग के प्रदेश से शस्त्र निकले हैं। वे राग, द्वेष, मोह, विभाव सारे शत्रु ध्वस्त हो जाते हैं। ऐसा शक्तिमय यह चैतन्यतत्त्व है। जो जाननहार है वह दिखता नहीं, जो दिखता है वह जानता नहीं। फिर मैं किससे बोलूं ? ऐसी भावना करके वचनव्यवहार को छोड़ें और अंतरंग के अंतर्जल्प को त्यागें और स्वरूप में प्रवेश करें। यही उपाय है समता परिणाम करने का।