वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 17
From जैनकोष
एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदंतरशेषत:।एष योग: समासेन प्रदीप: परमात्मन:।।17।।समाधिसाधना के लिए प्राथमिक प्रयोग–अपने आपके स्वरूप में बसे हुए परमात्मतत्त्व का प्रकाश करने वाले उपाय क्या हैं, इस संबंध में इस श्लोक में प्राथमिक उपाय बता रहे हैं कि जैसे कि आगे कहा जायेगा इस पद्धति से प्रथम तो यह चाहिए कि बाह्य वचनालाप का परित्याग करें जो भारी बोलते हैं ऐसे बकवाद करने वाले पुरूषों के परमात्मतत्त्व का प्रकाश होना कठिन है। इससे सर्वप्रथम तो यह उपाय करना ही होगा कि बाह्य वचनालाप को बंद कर दें। बाह्य वचनालाप भी दो प्रकार के हैं। एक तो जिनमें ममता हैं ऐसे पुत्र मित्र स्त्री आदिक परिजनों से प्रेमालाप अथवा अन्य वचनालाप करना, यह तो बहुत ही बाधक है। ये वचनालाप रागद्वेष मोह के वर्द्धक हैं, ज्ञान वैराग्य की याद दिलाने वाले नहीं है। दूसरे प्रकार का वचनालाप है गुरूवों से, साधर्मियों से, सज्जनों से वार्तालाप करना। धर्म प्रगति के लिए धर्मविषयक बात करना यह भी वचनालाप है। यद्यपि यह धर्मीवार्तालाप आत्महित की वार्ता से भरा हुआ है, फिर भी परमात्मतत्त्व के प्रकाश में बाधक है। इस कारण सर्वप्रकार से बाह्य वचनालाप का सर्वप्रथम परित्याग करें।प्रभुदर्शन का स्थान–यह परमात्मतत्त्व बाहर किसी क्षेत्र में न दिखेगा, जैसे कि लोग अकसर प्रभुदर्शन की उत्कंठा में आसमान को तकते हैं अथवा यहाँ वहाँ ढूँढ़ते हैं, मंदिर में, मस्जिद में, मूर्तियों में, अक्षरों में ढूँढ़ते हैं तो इस तरह अन्यत्र खोजने में परमात्मतत्त्व का दर्शन न होगा। परमात्मतत्त्व का दर्शन अपने आपके अंत:स्वरूप में समाये, इस वृत्ति द्वारा होगा। व्यवहार में, मंदिरों में, मूर्तियों में जो दर्शन करते हैं, उनका प्रयोजन मूर्ति को पूजना नहीं है। क्या कभी किसी ने ऐसा स्तवन करते हुए सुना कि देखो जी तुम जयपुर के अमुक कारीगर के बनाए हुए हो, सफेद पाषाण के हो, तुम स्वर्णवत् रंग के हो, तीन फिट ऊंचे हो, क्या कभी मंदिर में इस तरह की स्तुति करते हुए देखा है ? जिसे देखा होगा तो यों स्तुति करते देखा होगा। हे प्रभु ! तुम वीतरागी हो, सर्वज्ञ हो, शुद्ध स्वरूप हो तो बतलावो यह मूर्ति की पूजा हुई या भगवान की पूजा हुई ? पूजा तो भगवान की हुई पर मूर्ति का आलंबन लिया है। इसमें भगवान की तदाकार स्थापना है और विधि प्रतिष्ठा से मूर्ति में प्रभु की स्थापना की है।प्रभु का अंतदर्शन–मंदिरों की बात तो दूर रही, साक्षात् समवशरण भी हो जहाँ भगवान् गंधकुटी में विराज रहे हों वहाँ पर भी भगवान के दर्शन कहीं बाहर में नहीं होते, किंतु अपने आपके अंत:स्वरूप में प्रभु के दर्शन होते हैं। प्रभु आंखों से दिखने वाला तत्त्व नहीं है। वह बाहरी क्षेत्र में कैसे दिखेगा ? ज्ञानदर्शन प्रभु का स्वरूप है, अपने में ज्ञेयाकार बनाकर जो अंतर में स्वरूप का ग्रहण होता है उस वृत्ति से प्रभु का दर्शन होता है। तो ऐसे गुप्त तत्त्व के दर्शन का क्या वह अधिकारी हो सकता है जो बहिरंग वचनालाप बकवाद बहुत किया करता हो ? प्रभुदर्शन के उपाय में सबसे प्रथम यह करना होगा कि बाह्य वचनों का परित्याग करें।अंतर्जल्प का परिहार–बाह्य वचनों का त्याग करके फिर जो अंतर्जल्प हैं उनका भी संपूर्ण रीति से त्याग करें। अंतर्जल्प क्या है ? ओंठ हिलाकर तो बोलें नहीं। चुप हो गए, मौन रख लिया, पर अंतर में अभी शब्दानुसार विकल्प चल रहा है अथवा विकल्पानुसारी शब्द चल रहे हैं। नहीं बोलते हैं, फिर भी अंतर में यह आवाज गूँजती रहती है कि मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं भला हूँ, मैं चतुर हूँ, मैं पंडित हूँ, शिष्य हूँ नाना प्रकार के भीतर में जो विकल्प चलते हैं और शब्दों को साथ लेते हुए चलते हैं वे सब विकल्प और शब्द इस जीव के अंतर्जल्प कहलाते हैं। बाह्य जल्पों का परित्याग करके फिर अंतर्जल्प का भी त्याग करें। यह संक्षेप में परमात्मा का प्रकाश करने के लिए एक योग कहा गया है।चेतनकर्म का पर में अभाव–वस्तुत: प्रभुदर्शन की तो बात ही क्या जितने लौकिक प्रसंग होते हैं, कुटुंब प्रेम, पुत्र प्रेम, मित्र प्रेम ये सब भी बाहर नहीं किए जाते हैं। कोई पुरूष स्त्री से अथवा पुत्र से या मित्र से प्रेम कर नहीं सकता। उसके वश की बात नहीं है कि वह किसी पुत्र अथवा मित्रादिक से प्रेम करले। वह भ्रम से मानता है कि मैंने मित्रजनों से प्रेम किया। किंतु वह प्रेम कर नहीं सकता है। प्रेम करने की जो परिणति है वह प्रेम करने वाले आत्मा के प्रदेश में ही परिसमाप्त हो जाती है। प्रदेश से बाहर वस्तु की परिणति नहीं होती। प्रेमरूप परिणमन मेरा मेरे से बाहर कहां टिकेगा ? निराधार परिणमन को तो आधारभूत द्रव्य चाहिए। द्रव्य तो जितना यह मैं आत्मा हूँ उतने में ही परिसमाप्त है। बाहर एक सूत भी एक प्रदेश भी प्रेम परिणमन नहीं जाता। फिर ये पुत्र मित्रादिक बहुत दूर बैठे हैं, भिन्न जगह रहते हैं, उनमें कैसे यह मेरा प्रेम परिणमन हो जाय ?
शब्दघड़ी में प्रीति का अभाव–बात वहाँ क्या होती है, इस मर्म को जानने के लिए पहिले यह समझिये कि इस संबंध में तत्त्व तीन प्रकार के होते हैं–शब्दतत्त्व, ज्ञानतत्त्व और अर्थतत्त्व। कुछ भी चीज हो उसके संबंध में ये तीन धाराये हैं। जैसे मानो घड़ी नाम लिया। यह घड़ी तीन प्रकारों से विदित होगी शब्दघड़ी, अर्थघड़ी और ज्ञानघड़ी। शब्दघड़ी तो वह है जो घ और ड़ी ऐसे दो अक्षर हैं। बतावो इस शब्दघड़ी से कोई प्रीति करता है ? किसी को घड़ी रखने का बड़ा शौक हो तो कहीं 10–20 जगह घड़ी, घड़ी, घड़ी लिख डालो और फिर कहो कि लो घड़ी जितनी चाहो क्योंकि तुम शब्दघड़ी से बहुत प्रीति करते हो। तो क्या इस शब्दघड़ी से कोई प्रेम करता है ? कोई नहीं करता है।अर्थघड़ी व ज्ञानघड़ी प्रीति के अविषय व विषय–और यह अर्थघड़ी है जो गोलमटोल है, जिस पर सूइयां फिरती है। तो इस अर्थघड़ी से तो लोग प्रेम किया करते होंगे ना ? नहीं नहीं, तुम अपने इस देह प्रमाण हो, और तुम्हारी जो करतूत होगी, परिणमन होगा वह देह प्रमाण वर्तमान आत्मप्रदेश में ही परिणमन होगा। तो यह आत्मा का परिणमन अपने प्रदेश तक ही सीमित रहा, घड़ी तो बहुत दूर रखी है, चार अंगुल दूर है, हाथ भर दूर है, 5 हाथ दूर है, वहाँ मेरा प्रेम परिणमन कैसे पहुंच जायेगा ? अर्थघड़ी में भी लोगों का प्रेम नहीं पहुंच सकता। तब इस अर्थघड़ी के बाबत जो इतनी कल्पनाएं बनाए हुए हैं, विकल्प जगते हैं, ज्ञान होता है वह है ज्ञानघड़ी और हम विलमा करते हैं, रमा करते हैं घड़ी के संबंध में तो इस ज्ञानघड़ी में रमा करते हैं।प्रीति के विषय का एक अन्य उदाहरण–एक आध और दृष्टांत लो। आपको अपने नाती से मानो प्रेम है तो नाती तीन हुए–शब्दनाती, अर्थनाती और ज्ञाननाती। शब्दनाती तो ना और ती ऐसे दो शब्द हैं, आप लोगों को ऐसे कितने नाती चाहिए ? हम 10 मिनट के अंदर ही ऐसे 50, 60 शब्द नाती तैयार कर देंगे। और आपके पास रख देंगे। केवल दवात स्याही, कलम और कागज चाहिए। ऐसे 50, 60 नाती अभी तैयार हो जायेंगे। ना और ती ऐसे दो ही अक्षर तो लिखना है। तो क्या आपका शब्दनाती से प्रेम हो सकता है ? नहीं। तो अर्थनाती से प्रेम होगा। अर्थनाती क्या है जो दो हाथ पैर का है। तुम्हारे घर में जो रहता है वह है अर्थनाती। पर अर्थनाती से तुम्हारा प्रेम हो ही नहीं सकता, लाख उपाय कर लो क्योंकि आपका प्रेम, आपका अनुराग आपके प्रदेशों में ही परिणम कर समाप्त हो जाता है। प्रदेश से बाहर प्रेम परिणमन नहीं जाता है। तो वह अर्थनाती तो 10 हाथ दूर, 50 हाथ दूर बैठा है, उस पर तुम्हारा प्रेम कैसे पहुंच सकता है ? तब हो क्या रहा है इस व्यामोह अवस्था में कि अर्थनाती को विषय करके जो आपके ज्ञान में ज्ञेयाकार परिणमन हो रहा है अर्थात् नातीविषयक ज्ञान चल रहा है उस ज्ञान विकल्प में आपका प्रेम है। तब आपने नाती कहां देखा ? अपने ही अंतर में, बाहर में नहीं देखा। बाहर में तो जैसे सब हैं तैसा ही वह है।
भक्ति का विषयभूत भगवान्–भगवान में भगवान् शब्द तो कोई प्रभुता ही नहीं रखता। लिख दिये चार अक्षर भ ग वा न् । तो उन अक्षरों में न वीतरागता है, न सर्वज्ञता है, न चैतन्यस्वरूप है। शब्दभगवान् की तो भक्ति ही कौन करता है, तब क्या अर्थभगवान की भक्ति लोग करते होंगे ? नहीं अर्थभगवान् परक्षेत्र में है, सिद्ध भगवान सिद्धलोक में हैं। अरहंत भगवान यद्यपि इस काल में नहीं होते हैं जहाँ भी होते हैं वहाँ भी लोक से बहुत दूर विराजमान होते हैं। परक्षेत्र में स्थित अर्थ भगवान् तक मेरा कोई परिणमन पहुंच जाय यह असंभव बात है। आपका परिणमन आपके प्रदेश में ही रहकर परिसमाप्त हो जाता है। तो अर्थभगवान की भी भक्ति कोई नहीं कर सकता है। तब वीतराग सर्वज्ञ निरंजन शुद्ध जो भगवत् स्वरूप है उस भगवत् स्वरूप के संबंध में जो ज्ञान किया जा रहा है अपने ज्ञान का ज्ञेयाकार परिणमन चल रहा है उस परिणमन में भक्ति होती है। अर्थात् ज्ञानभगवान में निश्चय से भक्ति बन पाती है–ऐसा अपने अंतर में ज्ञान द्वारा ज्ञान में प्रकट होने वाले परमात्मतत्त्व को कोई बकवाद करने वाला मनुष्य देख लेगा, दर्शन कर लेगा, यह बात बिल्कुल विरूद्ध है। इस कारण परमात्मतत्त्व के दर्शन करने के अभिलाषी पुरूष को सर्वप्रथम कार्य यह करना होगा कि बहिरंग वचनालाप का त्याग करें।अंतर्जल्प के परिहार की आवश्यकता–अब इसके बाद का कर्तव्य देखिये–बाह्य वचनों का तो त्याग कर दिया और अंतरंग में शब्द ध्वनि उठाये रहे तो उस मौज का पूरा लाभ नहीं उठा पाया। जैसे कोई आहार का तो परित्याग कर दे और भीतर में वांछाएं बनाए रहे कि अच्छी आफत में पड़ गए। सभी उपवास करते हैं तो हमें भी करना पड़ता है, तो उपवास का कोई फल नहीं रहा। जिस रोज तीज का दिन आयेगा उस दिन छोटी-छोटी बच्चियां उपवास करेंगी। करती हैं यहाँ कि नहीं ? तो उन बच्चियों का उपवास क्या ? तेज भूख लगे तो कहो रोने लगें और मां खाने को दे दे। तो खा लें या न खा लें, पर उनका उपवास क्या ? तो जिसके अंतर में वासना नहीं रहे उसका अनशन सफल होता है। इसी प्रकार बाह्य वचनालाप का तो परित्याग कर दें और अंतरंग में वचन उठते रहें, चलते रहें तो परमात्मा तत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकती है। परमात्मतत्त्व के दर्शन के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि बहिरंग और अंतरंग वचनालापों का परित्याग करें।आत्म ऐश्वर्यदर्शनविधि की एकरूपता–भैया ! यह संक्षेप से समाधि का योग बताया जा रहा है। किसको ? जो आत्मतत्त्व की साधना के रूचिया हैं, केवल आत्मसाधनारूप एक ही उद्देश्य जीवन का है। इस प्रयोग को गृहस्थजन भी अपनी शक्ति माफिक अमल में लायेंगे तो धर्म की तो पद्धति एक ही है-वे भी परमात्मतत्त्व के दर्शन कर सकते हैं। यहाँ ऐसी द्विविधा नहीं है कि गृहस्थों का प्रभुदर्शन का तरीका और है, और साधु संतों का प्रभुदर्शन का तरीका और है। ऐसी दो पद्धतियां नहीं हैं। भले ही समयभेद स्थिरताभेद का अंतर हो जाय, पर जिस पद्धति से साधु को ऐश्वर्य के दर्शन होते हैं उस ही पद्धति से गृहस्थ को आत्मऐश्वर्य के दर्शन होते हैं।सुख दुःख पाने की पद्धति की एकता–भैया ! प्रभुदर्शन की ही बात क्या, सुख और दुःख के पाने की भी पद्धति भी एक है, अंतर नहीं है कि गृहस्थ को परिवार में राग करके आनंद मिला और साधु को तपस्या करके देह सुखाने में आनंद मिला। आनंद कहते हैं वीतराग ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व के सहज दर्शन से होने वाली जो सहज अनाकुलता है उसे। आनंद तो इस ही पद्धति से मिलता है। जितने रूप में गृहस्थ कर सके वह पाले, जितने रूप में साधु कर सके तो वह पा ले। जैसे अपने बछड़ों से प्रेम करने वाली गायों के अंगवात्सल्य का तरीका एक ही है। पूंछ उठाना और हिलाना। जिस गाय की पूंछ कटी हो वह अपनी पूंछ हिलाती हुई अपने बच्चे के पास दौड़ी आती है और जिसकी पूंछ लंबी है वह अपनी लंबी पूंछ हिलाती हुई दौड़ी आती है, पर वात्सल्य का तरीका तो सब गायों में एक प्रकार से है। लौकिक सुख पाने की पद्धति भी एक ही तरह की है। तो प्रभुदर्शन की पद्धति भी गृहस्थ हो या साधु हो एक ही प्रकार से होती है1अंतर्जल्पविलय की विधि–उस आत्मा की सिद्धि के लिए सर्वप्रथम तो बाह्यवचनालापों का परित्याग करना चाहिए और सर्व प्रकार से अंतरंग वचनालापों का त्याग करना चाहिए। जिस विधि से अंतरंग के शब्द भी छूट सकते हैं वह विधि भी है केवल एक प्रकार की। अपने आप अंत:प्रकाशमान् अनादि अनंत अहेतुक अबाधित शाश्वत जो सहज भाव है, चैतन्यस्वरूप है, ज्ञानस्वभाव है उसके ज्ञान में ज्ञान को लगा लें तो जब यह ज्ञान इस ज्ञानस्वभाव के ही जानन में लग जाता है उस काल में सहज अनाकुलता प्रकट होती है और उस अनाकुलता के अनुभव के समय में इस जीव को प्रभुता के दर्शन हो सकते हैं, ऐश्वर्य की उपलब्धि होती है। जहाँ यह समझ में आ गया कि अपने स्वरूप का आलंबन ही सत्य शरण है और अपने से भिन्न परपदार्थों की दृष्टि बनाना यह सब धोखे से भरा हुआ है, दुःखों का उपाय है।परात्मप्रकाशक योग–यह आत्मतत्त्व समझ में कब बैठता है ठीक ठिकाने से जब अपने सहज ज्ञानस्वभाव का अनुभव हो। प्रभु के दर्शन करने का उपाय साक्षात तो आत्मानुभव है। और ज्ञानानुभव की साधना में प्राथमिक उपाय ये दो बताये गए हैं कि पहिले तो बाह्यजल्पों का परित्याग करें, बकवाद न करें, मौन हो जावें, कुछ बोलें नहीं, और फिर इसके पश्चात् अंतरंग में ऐसा पुरूषार्थ करें जिससे भीतर ही भीतर जो गुनगुनाहट उठती है, शब्द चलते हैं वह अंतर्जल्प भी छूट जाए, तो ऐसी स्थिति में अवसर मिलता है कि वहाँ केवल ज्ञानप्रकाश ही उपयोग में रहे। ऐसी स्थिति ही परमात्मा के प्रकाश करने वाली है और इस ही को आचार्यदेव ने योगसाधना कहकर कहा है कि यह परमात्मा के मिलने का एक उपाय संक्षेप में बताया है।