वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 111
From जैनकोष
मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छंदमंदोद्यमा: । विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवंत: स्वयं ये कुर्वंति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च ॥111॥
933- कर्मनयावलंबी व ज्ञाननयैकांती की दशा का चित्रण- धर्म के प्रसंग में दो बातें चला करती हैं। एक तो आंतरिक और एक बाह्य। आंतरिक तो कहलाता है ज्ञाननय और बाह्य कहलाता है क्रियानय, कर्मनय। और, है दोनों में ही तथ्य क्योंकि ज्ञानशून्य क्रिया झूठ और क्रियाशून्य थोथा ज्ञान भीकाम का नहीं। इस कारण बात तो होनी चाहिए अपनी पदवी में दोनों, किंतु कोई पुरुष ज्ञान का ही एक हठ करता है याने ज्ञान का हठ करना तो भला है, ज्ञान का ही आग्रह करना चाहिए, पर ज्ञान को समझ तो पाते नहीं और और बात बात में ज्ञान का हठ करते हैं वे भी मार्ग नहीं पाते और जो क्रिया से ही सब कुछ समझते, यों हाथ जोडना, यों विनती करना, यों पूजा पाठ करना, केवल यह ही यह धर्म है, आत्मा का बोध नहीं करते, ज्ञानस्वरूप में आने की भावना नहीं तो उनके क्रिया कर्म से भी कुछ होने का नहीं हैं। यही बात दृष्टि में रखते हुए इस कलश में कह रहे हैं कि जो केवल कर्मनय का आलंबन करते हैं वे डूबे, क्योंकि वे ज्ञान को जानते नहीं, केवल बाह्य क्रियाकांड में ही धर्म मानते हैं। इसी प्रकार जो केवल ज्ञाननय की ही चाह करते हैं, आत्मा की चर्चा कर ली उछल उछलकर और भीतर में उछाल है नहीं, लोगों को देखकर खूब उछल उछलकर बड़ी ऊँची ऊँची बातें करते, लोग समझ जायें कि यह बड़े अच्छे ज्ञानी हैं। भीतर में कुछ उछाल नहीं, आत्मस्वरूप की कोई दृष्टि नहीं, आत्महित की भावना भी नहीं किंतु कोई एक जमाना होता है जब कि एक शौक बढ़ता है। जैसे आज कल का शौक देख लो, कितना जबरदस्त है। एक कमीज का ही शौक ले लो कितने ही प्रकार के फैशन वाले कमीज चले हैं। यही बात हर चीज में मिलेगी। लो मानो आजकल अध्यात्ममार्ग में भी एक शौक सा चल गया। शौक हुआ यह कि ज्ञान की बड़ी बड़ी चर्चा करें, मुख से खूब बोल लें, खूब गहरी-गहरी ज्ञान की बातें कर लें, जिनको अज्ञानवश यह पता नहीं कि यह स्याद्वाद की बात है या संख्यादिक की। केवल बातें ठोकने भर से काम है। कुछ दूसरों पर प्रभाव पड़े, सो जो तत्त्व को जानते नहीं, एक ज्ञान ज्ञान का ही शौक कहने को हुआ है तो उनको बाहर में भी अत्यंत स्वच्छंदता आगई। क्रियाकलाप में पूजा ध्यान, स्वाध्याय सत्संग, गुरुभक्ति आदिक सभी धार्मिक क्रियाकांडों में एक प्रमाद आ गया, अरुचि हो गई, सो वे भी डूबे। तात्पर्य यह है कि ज्ञाननयैकांत व क्रियानयैकांत दोनों ही पातक हैं। 934- विश्व के ऊपर तरने का पात्र-
संसार में डूबे कौन नहीं? प्रगति पर कौन चलता है? जो ज्ञानस्वभावरूप अपने को मानते हुए ज्ञानरूप होते हुए कोई कर्म नहीं करते याने इतने ऊँचे उठे कि वे शुभ-अशुभ क्रियाकांड वगैरह को नहीं करते और फिर भी किसी शुभ बात में, क्रिया में प्रमाद भी नहीं करते, याने अंतरंग से क्रिया करते नहीं और बाह्य प्रवृत्ति में प्रमाद करते नहीं। जैसी पदवी है इसके अनुरूप विभाव करके भीतर में ज्ञानस्वभाव का आश्रय कर जो बढ़ते हैं वे विश्व के ऊपर तैरते हैं। बात कोई कठिन नहीं चल रही है आत्मा की ही तो बात है, पर लोगों को कठिन यों लगती है कि आत्मा की भलाई करने की अंदर में चाह नहीं। आत्महित की चाह हो तो अपने ज्ञानस्वभाव का आश्रय करने का अवसर मिलेगा।
935- आत्महित की भावना होने पर तत्त्वज्ञान की सुगमता-
अज्ञान में क्या-क्या विचार बनाया जा रहा है मेरे परिवार है, वैभव है। उसी की ही बढ़ोत्तरी में, क्षण में चित्त निरंतर बसा हुआ रहता है तो भला एक हितकारी बात उपयोग में कैसे घर जमा सके याने बहुतों को प्राय: जो रुचि नहीं होती और ऐसा लगता कि बात तो बड़ी कठिन हुआ करती है शास्त्रसभा में जाकर क्या करे? वहाँ तो बड़ी कठिन चर्चा होती, बस वही आत्मा-आत्मा की ही चर्चा होती।हम तो चाहते हैं कि चक्की, चूल्हा, दाल, रोटी जैसी चर्चा हो, जो कि तुरंत समझ में आये पर, ये यह नहीं ध्यान में देते कि किस्सा कहानी, दुनिया की बातें, यहाँ वहाँ की बातें जो बड़ी सरल लगती है वही-वही बात जिंदगी भर हो तो उससे कौनसा अपना भला कर लेंगे। और अपनी बात आत्मा की बात जो अपने स्वरूप में है वह कठिन लगती है और यह उमंग रखते कि अपने निज घर की बात कठिन भी लगे मगर रुचिपूर्वक रोज-रोज भी सुनेंगे तो सरल हो जायगी। तो इस ओरउमंग रखना चाहिए कि हम उपयोग लगाकर कठिन से भी कठिन बात हो, उसको सुनेंगे, तुरंत तो अर्थ उसका लग ही जाता है, उसका मनन करेंगे। कौनसा कठिन काम है? जो केवलज्ञानी हुए, प्रभु हुए वे भी तो हम आप जैसे ही संसार में रुलने वाले प्राणी थे। उनको भी सारी बातें कठिन लगती थीं, किंतु मार्ग पाया और भगवान बन गए। तो ऐसे ही हम आपको भी आत्मा की बात कठिन लगती है किंतु मार्ग पायेंगे और प्रभु बनेंगे।
936- कर्मधारागत शुभ अशुभ भावों की अज्ञानरूपता- यहाँ यह बात कही जा रही है कि ये जो बाहरी क्रियायें हैं, पुण्य है, पाप है, कर्म है, पौद्गलिक कर्म, शुभ, अशुभ भाव, ये सबके सब आत्मा के स्वभाव से हटे हुए परिणाम हैं। याने शुभभाव का भी जो स्वरूप है उस स्वरूप को देखो तो अज्ञानभाव है। यद्यपि शुभभाव करने वाले ज्ञानी पुरुष में ज्ञानधारा भी चल रही है। कोरा अज्ञानी नहीं है वह। सम्यग्दृष्टि, शुभभाव करने वाले, पूजा पाठ आदिक में प्रवृत्ति करने वाले अज्ञानी नहीं हैं मगर दो धाराओं में वहाँ निरखें कि भीतर में जो ज्ञानप्रकाश है वह तो है ज्ञानधारा और बाहर में जो प्रवृत्ति है, शुभभाव है, अशुभभाव है, मन, वचन, काय की चेष्टा है, स्वरूपत: देखें तो वह अज्ञानभाव है, सो जब वस्तुस्वरूप का विचार करते, आत्मा के सही स्वरूप का चिंतन करते तो विदित होता है कि पुण्यपाप, शुभअशुभ सब एक ही समान बंधन की बेड़ी हैं। चाहे बेड़ी चाँदी सोने की पहना दी जाय, चाहे लोहे की बेड़ी हो, आखिर है तो वह बेड़ी ही। 937- पुण्यभाव, पापभाव, पुण्यकर्म, पापकर्म, पुण्यफल, पापफल सबकी बंधनरूपता- भैया, जरा स्वच्छ हृदय करके विचारेंगे तो पता पड़ेगा कि जो प्यारे लग रहे हैं पुत्र-पुत्री, स्त्री, भैया, घर, वैभव, तिजोरी आदिक वे सब बंधन है। और जो प्रिय नहीं लगते, अनिष्ट लगते ऐसी परिस्थिति में पहुंचे वह भी बंधन है। तो बंधन की दृष्टि से दोनों साधन समान हैं। बल्कि दु:खभरी स्थिति उतना विकट बंधन नहीं, जितना सांसारिक सुख मौज वाली स्थिति इस जीव के लिए बंधन है। दु:ख में तो प्रभु की याद आ सकती, पर सुख और मौज में याद नहीं आती। अनेक लोग ऐसे मिलेंगे कि जो पहले धनी न थे, अत्यंत साधारण स्थिति के थे तब दोनों बार मंदिर में आते, जाप देते, प्रवचन में आते, गुरुवों की सेवा में रहते, स्वाध्याय करते, ये सब खूब चलते थे और वे ही जब धनिक बन गए तो फिर उनको जरा भी फुरसत नहीं मिलती। अगर कोई उनसे कहे भी कि भाई तुम शास्त्र-सभा में क्यों नहीं आते, पूजा में क्यों नहीं आते...? तो वहाँ कहता है कि क्या करें भाई, मरने की भी फुरसत नहीं है। अब देखो उनको इतना विश्वास है कि यह वैभव ही मेरे लिए सब कुछ है और मैं कभी मरूँगा नहीं। ये दोनों बातें भ्रमवश चित्त में चढ़ गई तब ही तो बोलते हैं कि मरने की फुरसत नहीं है। जैसे कि मानो वह काल, यमराज आयुक्षय इस व्यस्तता को देखकर डरकर भाग जायगा कि यह सेठजी बहुत व्यस्त है, इनको मरने की भी फुरसत नहीं है तो हम क्या करेंगे आकर? तो ध्यान में लावो कि दु:ख भरी स्थिति में भीतर में कितना आनंद झरता था, ऊपर दु:ख था, भीतर आनंद था, कभी आप अनुभव कर सकते हैं ऐसा, कि है तो बड़ी कष्ट वाली स्थिति, विपत्ति है, परिस्थिति है, कष्ट हो रहा है, मगर भीतर में जो प्रभु की रुचि है, अपनी रुचि में ध्यान जम रहा हो तो भीतर में कोई दृढ़ता सी भी है, आनंद भी है, याने अँधेरा नहीं और आज वाली स्थिति हो तो अच्छे बच्चे, स्त्री, परिवार, वैभव खूब, घर में फ्रीज भी रखा, रेडियो रखा, टेलीविजन रखा, झट कान ऐंठा और ठंडा पानी पिया, फिल्म देख रहे, रेडियो सुन रहे, मौज आ रहा, रहने की जगह में भी जूता पहने हुए है, पलंग पर भी जूता पहने हुए हैं, खाना खाते समय भी जूता पहने हुए हैं, खूब सब प्रकार के मौज मान रहे। वे ऊपर से बड़े सुखी दिखते और भीतर में बड़े आकुलित हैं। खूब अंदाज कर लो सांसारिक सुखों में यही बात मिलेगी- ऊपर से माँग और भीतर में आकुलता ऐसा कस कर भरी हुई है कि उसकी चोंट निरंतर सह लेते हैं। तो संसार की कौनसी हालत भली है? वह सुख वाली स्थिति काहे की अच्छी है, जिसमें अँधेरा रहता, भीतर व्यग्रता रहती और धोखा महान्। इतना बड़ा कष्ट आयगा कि जिसको सहन न कर पायेंगे। कोई पहले बहुत धनिक हो और वह एकदम से गरीब बन जाय तो उसके दिन तो बड़े कष्ट में गुजरते हैं, और कोई साधारण आदमी है तो उसकी बात पहले जैसी ही ठीक-ठीक चलती रहती है। तो यह पुण्यकर्म, पापकर्म, इनका फल, यह सब क्या है? सब बेड़ियां हैं, बंधन हैं और फिर इस पुण्य पापकर्म के आस्रव के कारणभूत जो शुभभाव अशुभभाव हैं ये भी तो ज्ञानी को बंधन जंच रहे हैं। अगर इन विभावों में आसक्त है तो वह मोक्ष मार्ग में कैसे बढ़ेगा? कैसे चलेगा? 938- श्रद्धासहित ज्ञानाचरण की फलप्रदत्ता-
भैया, मुख्य बात तो यह है कि अपने ज्ञानस्वरूप को निहारो और उसही को निहारते रहो ऐसा कि उसमें मग्न हो जावो, कुछ ख्यालात ही न जगें, किंतु जब तक ऐसा नहीं हो रहा है तब तक केवल यह ही चर्चा मात्र रहे तो उससे अपनी प्रगति नहीं बन सकती। तो श्रद्धा चाहिए और तदनुकूल प्रवृत्ति चाहिए। एक कोई लकड़हारा था।वह जंगल में लकडियाँ बीनने गया। उसे वहाँ कोई साधु महाराज मिल गए। उनके प्रति श्रद्धा जगी और पास में बैठ गया। साधु से कुछ उपदेश सुना और कहा महाराज मेरे कल्याण के लिए कोई बात तो बोलो। तो साधु ने कहा देखो मैं तुम्हें एक मंत्र देता हूँ, उसका ध्यान निरंतर रखे रहा करना, वह मंत्र है णमो अरहंताणं उसका स्वरूप व उसका फल भी बता दिया। उस लकड़हारे को वह मंत्र बहुत अच्छा लगा। उस पर पूरी श्रद्धा जम गई। वह उस मंत्र का ध्यान करता हुआ घर आया। उस मंत्र पर श्रद्धा इतनी अधिक बढ़ गई कि उसका लकडियाँ लाने का काम भी छूट गया। घर में बैठा हुआ णमो अरहंताणं का जाप करे। दो तीन दिन तक खाना भी न खाया। जब स्त्री से न रहा गया तो लकडियाँ बीनने नहीं जावोगे क्या? तो उत्तर मिला णमो अरहंताणं...बच्चे लोग क्या खायेंगे? णमो अरहंताणं।...इस तरह से काम कैसे चलेगा?...णमो अरहंताणं, स्त्री ने तीसरे दिन जब खाना बनाया तो उस दिन खीर बनाया था सो ऊपर से आवाज दिया कि आवो खीर खा जावो, तो नीचे से उसने वही जवाब दिया- णमो अरहंताणं। लड़कों ने उससे खाने के लिए कहा तो वही उत्तर मिला। खैर किसी तरह जबरदस्ती पकड़कर खाने के लिए ले गए, बैठाया स्त्री ने खाना परोसा कहा- खावो तो बस वही णमो अरहंताणं। वहाँ उस स्त्री को ऐसा गुस्सा आया कि लूगर (अधजली लकड़ी) उठाकर उसके सिर पर मारा। वहाँ वह लकड़ी फटी और उसमें से मोती बिखरे, अब क्या था, मालोमाल हो गया वह लकड़हारा। थोडे ही दिनों में वह बड़ा धार्मिक व धनिक बन गया।
939- श्रद्धारहित आचरण से सिद्धि की असंभवता-
एक दिन उक्त लकड़हारे की पड़ोस की कोई सेठानी पूछ बैठी उस लकड़हारे की स्त्री से कि तुम इतना जल्दी धनिक कैसे हो गई। तो उसने कहा अरी जीजी सुनो- देखो हर जगह कहने की बात नहीं है, तुम बार बार पूछती सो बताये देती हूँ, और किसी से तुम कहना नहीं। देखे- ऐसा हुआ कि हमारे पतिदेव ने दो तीन दिन खाना नहीं खाया, उनसे हम कुछ भी बात कहें तो वह यही उत्तर दें- णमो अरहंताणं। इसके अलावा कोई दूसरे बात ही न बोलें। दो तीन दिन बाद हमने बनाई खीर। जबरदस्त बैठकर खाने को कहा तो वही बात णमो अरहंताणं कहा- हमने गुस्सा में आकर एक लूगर (अधजली लकड़ी) उठाकर उनके सिर पर मारा तो लकड़ी फटी और उसमें से मोती बिखरे। तब से मैं मालोमाल हो गई। तो उस सेठानी ने कहा- अरे यह तो धनिक बनने का बड़ा ही सुंदर उपाय मिल गया। हम भी अपने घर में ऐसा करेंगी और मालोमाल हो लेंगी। सेठानी खुश होती हुई घर गई अपने पति से (सेठ से) कहा कि हम आज धनिक बनने का उपाय जानकर आयी हैं, वह उपाय करके मालोमाल हो लेंगी अब आपको व्यापार रोजगार करने की कुछ जरूरत न रहेगी। सेठ ने पूछा- क्या है वह उपाय? तो सेठानी बोली- बस आप दो तीन दिन कुछ खाना पीना नहीं, और हम जो कुछ आपसे कहें तो आप णमो अरहंताणं, बस यही बात कहना, बाकी काम हम सब बना लेंगी।...ठीक है, उसी दिन से सेठ ने कुछ खाना पीना नहीं लिया। उससे कोई कुछ कहे तो बस वह यही कहे- णमो अरहंताणं। तीसरे दिन स्त्री ने खीर बनाया, जबरदस्ती खाने के लिए बैठाया, खीर परोसा और खाने के लिए कहा तो बस वही बात- णमो अरहंताणं। तब सेठानी ने सेठ के सिर पर लूगर मसका तो लकड़ी फट गई और सारा कोयला ही कोयला बिखर गया। अब वहाँ मोती ढूंढ़े जा रहे, तो कहाँ धरे? सेठानी सोच रही थी कि देखो मैंने काम तो सारे ज्यों के त्यों ही कर डाले, पर न जाने कहाँ क्या कमी रह गई कि मोती कि बजाय कोयला बिखरा। अब बताओ क्या अंतर रहा उन दोनों की क्रियाओं में, जिसके परिणाम में इतना बड़ा फर्क आ गया? अरे वह अंतर रहा श्रद्धा का।लकड़हारे को उस मंत्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा भी और सेठ को अंतरंग से श्रद्धा न थी? वह तो एक ऊपरी बनावटी बात थी। तो इस कथानक से यों समझो कि हम आपको इस मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिए अपने ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व की श्रद्धा होनी चाहिए और फिर उसके अनुरूप अपना व्यवहार होना चाहिए, कोई व्यवहार व्यवहार ही तो करता रहे और भीतर अपने ज्ञानस्वरूप की श्रद्धा न बनावे तो उसको रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हो पाती।
940- संसार में मझधार और पार करने वालों की चर्चा-
देखो भैया, दो तरह के जीव- कोई खाली ज्ञान-ज्ञान की चर्चा में ही मौज मानता रहे, कोई क्रियाकांडों में ही उलझा रहे, तो इन दोनों को समझाया गया है इस कलश में कि जो लोग कर्मनय का एकांत किए हुए हैं, शुभकर्म करें, दया दान, परोपकार, भक्ति-चेष्टा ये ही करते रहें मोक्ष मिल जायगा सो उनको ज्ञानस्वरूप की श्रद्धा न होने से मुक्ति नहीं, वे संसार में डूबे ही हैं। भले ही क्रियाकांडी हैं, और कोई पुरुष ऐसा है कि क्रियाकांडों को छोड़ बैठा, पूजा में क्या, गुरु उपासना में क्या और जब छोड़ा तो कोई आधार भी चाहिए। अजी, आज कल कोई गुरु हो ही नहीं सकता, कोई अब साधु बन ही नहीं सकता, हैं ही कोई नहीं, ऐसा कह कहकर उनसे दूर रहते। ऐसे लोग हो गएबहुत जो कि ज्ञान-ज्ञान की चर्चा खूब करते और चर्चा ही चर्चा में रहकर कुछ सिद्धि नहीं पाते। तो जब साधुता की उमंग ही नहीं तो फिर करें क्या? सो वे भी डूब रहे। आचार्यदेव कहते हैं कि वे ही पुरुष संसार से तिर सकते हैं जो अपने ज्ञानस्वरूप की यथार्थ अनुभूति पा चुके हैं। यह हूँ मैं ज्ञानस्वरूप।
941- नाम व पर्याय की प्रीति तजकर अंतस्तत्त्व की रुचि में कल्याण-
देखो लोगों को अपने-अपने नाम में कितनी बड़ी श्रद्धा बसी है। सब अनर्थों की जड़ है, महा पाप है जो अपने नाम के प्रति इतनी तीव्र रुचि लगी है कि यह सोचे हुए हैं कि मैं तो फलाने लाल हूँ, फलाने चंद हूँ, फलाने कुमार हूँ। ऐसा तो भीतर में नाम के प्रति एक उमंग और श्रद्धा बनी है यह तो कर्म मार्ग में लगने में बहुत बड़ा विघ्न है। क्योंकि नाम किसका धरा जाय? चैतन्यस्वरूप आत्मा का कहीं नाम होता है क्या? वह तो एक सर्वसाधारण है। जैसे सब जीव, वैसा ही इसका स्वरूप। उसमें नाम नहीं होता। नाम धरा जाता है शरीर का, जो दिख रहा है। भले ही सजीव शरीर का नाम धरा, मगर दिखने में क्या आया? जिसको देखकर हम पुकारते हैं कि फलानेचंद, फलाने लाल, फलाने प्रसाद...,और इन नामों में हुई इसको बड़ी प्रीति तो इसके मायने यह ही तो हुआ कि पर्याय में आत्मबुद्धि है। किसी भी काम में लगे हों, पर कोई धीरे से भी वह नाम बोल दे तो झट कान में वे शब्द पहुंच जाते हैं। नाम के शब्द हों तो वे बड़ी जल्दी चित्त में आते। शरीर से प्रीति रखना, पर्याय में आत्मबुद्धि रखना, नाम में आत्मबुद्धि रखना यह बहुत बड़ा भारी मिथ्यात्व है, अंधकार है, समझना होगा कि अभी हम मोक्षमार्ग में कितना पिछड़े हुए हैं। ज्ञानप्रकाश प्राप्त हुआ कि जिसके कारण शीघ्र यह नाम संस्कार, ये सब कामनायें समाप्त हो जाती हैं। बोद्ध ग्रंथों में आस्रव के जो कारण बताये हैं उन सबमें मूल कारण उन्होंने नाम रखा है। नाम का लगाव, नाम की बात- इनमें कर्मों का आस्रव होता। सो जैन सिद्धांत में सबका नाम मिथ्यादर्शन रखा। तो पर्याय में आत्मबुद्धि न होना और भीतर में केवल ज्ञानज्योतिमात्र अंत:स्वरूप की प्रतीति रहना और ऐसे ही ज्ञानस्वरूपमात्र रहने की कोशिश होना, जब यहाँ ज्ञानपौरुष नहीं चल रहा तो शुभभावों की चेष्टा होवे, इस तरह जीवन व्यतीत हो तो इस जीव का भविष्य प्रकाशमय हैं। आगे भी अच्छी चीज पायगा।नहीं तो मनुष्य हुए, पुण्य मिला, सुख मौज में मस्त रहे, और मरकर हो गए गधा, सूकर, नारकी, कीड़ा, मकौड़ा आदिक तो अब वहाँ क्या करेंगे? कुछ तो ख्याल करना है अपना कि यह संग मौज के लिए नहीं, किंतु धर्म में जिस प्रकार प्रगति बन सके इन साधनों का उस तरह उपयोग करना है, तो ज्ञानी यह चिंतन कर रहा कि पुण्य पाप सब एक समान हैं। मेरा ज्ञानस्वरूप ही मेरे लिए शरण है। ऐसा सोचते हुए जो पुण्य बँध रहा वह बँध रहा, मगर पुण्य में इसकी श्रद्धा नहीं है और अपने ही ज्ञानस्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसा अनुभव करता है।