वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 110
From जैनकोष
कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षति: । किंत्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तन् मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वत: ॥110॥
927- वास्तविक विपत्ति की समझ में बनने की महती विपत्ति-
अपने आपमें विचार करना है। अपने लिए सोचिये मुझे सदा के लिए कष्टहीन होना है या नहीं? अपने आत्मा पर दया करके कुछ चिंतन करें। यह संसार का ठाठ सदा नहीं रहने का। कुछ ही समय में या तो स्वयं ही इसका विलय हो जायगा या छोड़कर चले जाना होगा। इस संसार में पुण्य के उदय से कुछ धन वैभव आदिक मिले हैं तो ये सब तो पुद्गल हैं। मेरे स्वरूप का वहाँ रंच भी काम नहीं। उनसे मेरा कुछ काम नहीं बनता। सब विकट कल्पनाजाल, मायाजाल है। इसके दिल में ख्याल न हो और बिना प्रयोजन सुखी दु:खी होने का अहंकार न हो।ये सब मेरे से अत्यंत भिन्न हैं, और, जो समागम में आये हैं, परिजन, मित्रजन, बंधुजन जो कुछ भी हैं ये सब स्वतंत्र जीव हैं। आपके अधीन नहीं, उनके अधीन आप नहीं। जिसने जैसा कर्म उपार्जित किया उसके अनुसार यह जीव फल भोगता है। कभी मनुष्य बने, कभी पशु पक्षी बने, ऐसी नाना स्थितियाँ जो नजर आ रही हैं यह पूर्वबद्ध कर्म का विपाक है। सबसे बड़ी विपत्ति है कर्म का लदान और उसका निमित्त पाकर जो जीव में नाना तरह की कल्पनायें दौड़ती हैं पर वस्तु के बारे में यह भला, यह बुरा इस तरह की कल्पनाएँ दौड़ती हैं, यह महान विपत्ति है। भले ही मोही जीव संसार के कुछ सुख मौज पाकर यह महसूस न करे कि मुझ पर विपत्ति है, मगर यह तो बताओ कि फिर प्रभुमूर्ति के समक्ष क्यों आते? ये मोही जीव भले ही धर्म के नाम पर, कुल परंपरा के नाम पर भगवान की मूर्ति के दर्शन करने आते, मगर भीतर में यह ही विष भरा कि भगवान तो बेचारे हैं, बड़े तो हम हैं, ऐसी एक भीतर में वासना पड़ी है। कैसा हम भगवान की पूजा करके अपना काम निकाल लेते हैं, होशियार तो हम हैं, हम भगवान की भक्ति करते हैं और वैभव पाते हैं, मुकदमें में विजय पाते हैं, अच्छी संतान पाते हैं, मैं बड़ा हूँ, मेरे सब कुछ पुण्य है। भगवान तो एक हमारे काम के लिए निमित्त हैं, ऐसा जानकर संभव है कि मोहीजन भगवान से भी अधिक अपने आपको स्वीकार कर लेते हैं। संसार के जो संग प्रसंग मिले हैं, उनमेंबेहोश मत बनो, नहीं तो दुर्दशा होगी। आज पुण्य के उदय में भले ही यह अनुभव न करें कि मेरा इसमें बिगाड़ है मगर कर्मबंधन बराबर चल रहा। जैसा मोह है, जैसा राग है, जैसी वासना बनी है, वैसा कर्मबंधन चल रहा और वे उदय में आयेंगे, फल प्राप्त होगा। दु:खी होना पड़ेगा, सो अपने आत्मा को जरा सावधान बनाना और जिसमें आत्महित है सो करना। कोई कष्ट की बात नहीं कही जा रही, जिसमें कष्ट हो वह काम जरा भी न करना जिसमें आनंद मिलता है, सही आनंद मिलता है वह काम तो अवश्य करना चाहिए।
928- अपने लिये अपनी महत्ता व उत्तरदायिता- सोचिये अपने लिए, मेरे लिए बड़ा कौन? अपना खुद का आत्मा।खूब सम्हलकर जावो, सबकी शरण लो, सबको बड़ा मानो, कदाचित् लोक में कोई बड़ा कार्य भी बन रहा हो किसी बड़े के द्वारा तो वह भी आपके लिए बड़ा नहीं है। आपका जो पुण्योदय आया है उस कार्य के लिए वह पुण्योदय बड़ा है। किंतु फिर अपने को सदा के लिए शांति मिले, संसार संकट टलें, ऐसे काम के लिए बड़ा कौन? अपना आत्मा। अपना आत्मा अपने लिए बड़ा है, अपना आत्मा अपने लिए शरण है, श्रेय है, सारभूत है, इसके सिवाय और कोई भी वस्तु का सहारा इसके लिए कार्यकारी नहीं है, अपने लिए आप ही बड़ा। क्यों बड़ा है कि शांति मिलेगी तो अपने आधार से मिलेगी, दूसरे के आधार से शांति न मिलेगी। कोई कष्ट आये, इष्टवियोग हो जाय, कोई बड़ी हानि हो जाय, जिसमें बड़े विह्वल हो रहे हों, दूसरा आदमी कितना ही समझाये, पर वह दु:ख दूर नहीं होता और अगर आपकी समझ में आ गया कि क्या है? बाह्य पदार्थ है, रहा तो क्या, न रहा तो क्या, मेरा जो सर्वस्व है वह तो सदा मेरे साथ है, ऐसा जब समझ गए तो आपकी आकुलता मिटेगी, दूसरे के पुरुषार्थ से, प्रयोग से, उपदेश से आपको शांति नहीं मिलती, इसलिए आपके लिए आप ही बड़े हैं, मगर कब बड़े हैं, यह भी ध्यान में दें। जब अपने आपके स्वरूप की सुध लें कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञान ही मेरा सर्वस्व है और यह ज्ञान अपने ज्ञानस्वरूप को जानता रहे, ज्ञान ज्ञानस्वभावरूप से परिणमता रहे, इसमें कोई विभाव की डली न पड़े, बाह्य पदार्थ का यहाँ पत्थर ढेला न आये, तरंग न बने, केवल ज्ञानस्वरूप आत्मा में मात्र ज्ञाता रहे, यहाँ अन्य कोई तरंग न उठे, ऐसी स्थिति बने वहाँ आप सचमुच महान् हो गए। 929- बाह्य असार पदार्थों का लगाव तजकर अंतस्तत्त्व की उपासना करने का संदेश- भैया, बाहरी पदार्थों को तजना ही होगा। पुण्यपाप के अनुसार जो बनना है वह संसार में होता है। आप तो अपने भाव के स्वामी है, बाहरी घटना के स्वामी नहीं। जैसा आपका भाव है, जैसा कर्मबंध हुआ, जैसा उदय वैसा योग मिलता है, इसमें आपका कुछ अधिकार नहीं, आप अपने भाव सम्हालें, शुद्ध बनें, किसी के प्रति विरोध की भावना न रखें। सबके प्रति इस प्रकार का भाव रखें, आपको बड़ा लाभ होगा। जो जीव कदाचित् आपका कोई बिगाड़ कर रहा हो, करता नहीं है बिगाड़, पर मानते तो हैं। किसी ने कोई तकलीफ दी हो और उससे हिम्मत करके आप बोल तो दो, वह आपको शत्रु न रहेगा, वह आपका परम मित्र बन जायगा। मगर खुद में कषाय भरी है कि मैं क्यों इससे अच्छा बोलूं?...अरे भगवान आत्मा तो वह भी है, जरा हिम्मत तो बना लो, इसी को कहते हैं क्षमाभाव। आप अगर छोटे के पास जायें, उससे सद्वचन बोलें और नम्रता का व्यवहार करके तो यह कहलायेगा गुण और विवश होकर जाना पड़ा तो वह कोई गुण नहीं है, वह तो परिस्थिति की बात है। महत्ता तो आपकी इसमें है कि जो आपसे छोटा है उसके प्रति नम्रता का व्यवहार करें, उसके भगवत् स्वरूप को जानकर उसका आदर करें, नम्रता करें वह तो आपका सेवक बन जायगा जिस पर कि आप विरोध करते। जगत में कोई आपका विरोधी नहीं, आप ही अपने आप अपना विरोध कर रहे, मायने अपने में जो कषाय उठती है, उसकी आज्ञा में चल रहे हैं, उस कषाय से लगाव रख रहे हैं। कषाय को छोड़ना नहीं चाहते इसी कारण बाहर में मन, वचन, काय की चेष्टा विपरीत बनती है, दु:ख होता है। स्वरूपदृष्टि करें, आपके लिए आप ही महान हैं। अंत: स्वरूप की परख बनावें, ज्ञानमात्र, ज्ञान ज्ञान ही मेरा सर्वस्व वैभव है, केवल बात कहकर नहीं रहना है। एक क्षण भी यह स्वरूप की बात उपयोग में क्यों उतरती नहीं? चित्त में तो यह बसा कि मेरे लिए मेरा पुत्र सब कुछ है, मेरे लिए मेरा घर सब कुछ हैं, चित्त में तो यह बात बसी हो और चाहें कि हम ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व का स्वाद लेवें, मोक्ष-मार्ग बना लें, सदा के लिए जन्ममरण के संकटों से छूटने का उपाय बना लें, तो यह बात यों बन नहीं सकती। एक बड़ी हिम्मत बनानी होगी। सर्व पौरुषपूर्वक अपने आपके अंत: बसे हुए भगवान सहज परमात्म तत्त्व के लिए अपना सब उपयोग समर्पित कर दें, ऐसा साहस हो तो वह संसारसागर से पार हो पायगा।केवल गप्प करने मात्र से संसार से पार नहीं हुआ जा सकता सो जानना, अपने को किस तरह से बनायें हुवायें, याने खुद किस तरह से हों तो मोक्ष का कारण बने और यह खुद किस तरह बने तो यह संसार बंधन का कारण बने? 930- अपने ज्ञान विलास पर ही समस्त भविष्य की निर्भरता-
आपके भविष्य की सारी बात आपके ही अधीन है, दूसरे के अधीन नहीं। देखो निर्णय बनाओ मैं जो कुछ अपने आप हूँ सो ही मैं हूँ।क्या? केवल ज्ञान-ज्ञान मात्र, ज्ञानज्योति, ज्ञानप्रकाश, इसके अतिरिक्त मेरा कुछ भी वैभव नहीं। सो यह ज्ञान केवल एक जगमगाता हुआ, ज्ञानविलास करता हुआ बस जाने भर की वृत्ति में रहे और कोई रागद्वेष के ख्याल के विकल्प के तरंग न उठें, ऐसा ज्ञान बने तो मोक्ष का मार्ग मिले। और जो कर्म उदय में आये, जिसके विपाक प्रतिफलन होते और इसमें रम गया और उसके स्वभाव से चली इच्छा, तो ऐसे कर्मरूप स्वभाव से अपने ज्ञान का परिणमन किया तो वह संसार में रुलेगा। तब क्या होना चाहिए। इन कर्मों से विरक्ति होनी चाहिए, और अपने में केवल कल्पनायें जगती, कषायभाव विभाव होते, वे उसकी परिपाटी के हेतु हैं, परभाव है, ये मुझे नहीं चाहिए, इनसे निराला रहना है और अपने अंत: परमात्मस्वरूप में लगना है। लेकिन उस कर्म में लिपटकर जो जिंदगी गुजारता है वह अपने जीवन को व्यर्थ खोता है। बाहरी परभावों में लगाव लगाना बिल्कुल व्यर्थ है क्योंकि वह आपका कुछ है ही नहीं। बताओ आप यहाँ मंदिर में आये तो आपका घर आपके साथ चिपककर तो नहीं आया, आपका वैभव आपके साथ तो नहीं आया, आपके लड़के बच्चे स्त्री वगैरह, सब अपनी-अपनी जगह बैठे हैं। वे कोई चुंबक की तरह खिंचकर आपके पास तो नहीं आते, आपके पीछे लगे तो नहीं फिरते। आपका कुछ है क्या, मगर आपने झूठा ख्याल बना रखा है कि ये मेरे है। जैसे आपने किसी के प्रति कुछ अनुचित काम कर डाला और आपसे एक विछोह हो जाय तो आपमें एक पछतावा आता कि नहीं कि बिना विचारे ऐसी प्रवृत्ति कर दिया जैसे आपके घर का कोई दादा बाबा बड़ा है और आप उसे सताते हैं, मारते पीटते, गाली देते, निरादर करते, मानो वह गुजर गया, कुछ समय बाद आपको अकल आयी, ओह मैंने व्यर्थ ही कष्ट दिया। ऐसे ही इस संसार में जो भी चेष्टायें हो रही है वे सब अज्ञानभरी चेष्टायें हैं, व्यर्थ की चेष्टायें हैं, आपको पछतावा आयगा कि व्यर्थ की चेष्टायें की। आपका कोई बड़ा इष्ट हो, बड़ा प्रेम किया हो, खूब आनंद से (मौज से) रहते हों, पर जब उसका वियोग हो जाता तो पीछे ध्यान होता कि अरे मैंने व्यर्थ ही राग किया। जिंदगी के इतने दिन व्यर्थ गए...तो ऐसे ही इन सारी चेष्टाओं के प्रति ज्ञान के जगने पर बड़ा पछतावा होगा, अरे मैंने अनंतकाल यों ही व्यर्थ गमा दिया। तो वास्तविक जीवन की बात समझ लो- व्यर्थ में जीवन न गुजारें।
931- कर्मधारा व ज्ञानधारा के बहने पर भी उनमें भेद करने की कला का प्रभाव-
सोचिये अब, क्या करना चाहिए? जो कर्म आये हैं, कर्म का जो एक रस चढ़ गया है, जो शुभ अशुभ कल्पनायें जग रही हैं, जो कषायें हो रही है उनसे अत्यंत विरक्त होना है। वह तो बड़ी ऊँची दशा है, जैसे कोई 11 वाँ, 12 वाँ गुणस्थान या अरहंत सिद्ध भगवान, वे उनसे पूर्णरूपेण विरक्त हुए। किसी भी अंश में अब राग नहीं है। ऐसी स्थिति जब तक ज्ञानी को प्राप्त नहीं होती तब तक ज्ञान की दो धारायें चल रही हैं और उनमें समय समय पर कभी कर्म की विजय होती, कभी ज्ञान की। अंतर निरंतर ज्ञान की ही विजय है। ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव के यह ज्ञान बना रहता है कि मैं इस संसार देहफंद से निराला केवल ज्ञानस्वरूप हूँ फिर भी पूर्वबद्ध कर्म उदय में आते हैं, विभाव बनते हैं, ये दो धारायें बनती हैं, मिश्रपरिणाम चलते हैं फिर भी कोई हानि नहीं। ज्ञानधारा तो साथ है। वह तो बिल्कुल मिटी नहीं। तो आपकी सुध, अपने आपके आत्मा का ज्ञान जब हो गया है तो विजय इसकी होगी, कर्म की विजय नहीं होती। सो दोनों स्थितियों में यह निर्णय करें कि जो भीतर ज्ञान उछल रहा है वह तो है मोक्ष का कारण और जो यह राग का भार चल रहा है यह है बंध का कारण। अपने आपमें यह निर्णय बनावें और देखो एक बार पूरे तौर से मन में आ जाय कि विभाव मेरा रंचमात्र भी नहीं, मेरी कोई चीज नहीं, इस कषाय को मैं क्यों करूँ। अच्छा ऐसी बात अगर मन में आयी और कषाय पड़ी थी पहले बहुत, तो इसको क्या दंड मिले? जिस दंड को स्वीकारने से बड़ा से बड़ा लाभ मिलेगा। जो कसूर करता है वह अगर दंड स्वीकार कर ले तो उसकी माफी हो जाती है तो अहंकार न बसे चित्त में, दूसरे जीवों को तुच्छ न समझें, उन पर अन्याय न करें, उनके प्रति नम्रता का व्यवहार करें, उससे मित्रता का व्यवहार बने इससे फिर तुच्छता न आयगी। अपने आपकी महिमा प्रकट होगी। आपका ज्ञान जो कषायों से दबा है उन कषायों को दूर करें तो भगवान अंतस्तत्त्व यह ज्ञानमात्र आत्मा अपने उज्ज्वलरूप में प्रकट होगा, आप सदा के लिए सही हो जायेंगे सो कषायों के अपराध का दंड है विनयादिप्रवर्तन।
932- कर्मधारा से विमुख होकर ज्ञानधारा में अवगाहने के पौरुष का अनुरोध- चल रहे हैं कर्म और ज्ञान दोनों की धारा, राग भी आते, विकार भी आते, समझ भी बनती, ज्ञान भी बनता, मगर लगाव रखें स्वरूप में, कर्म से विरक्ति बनावें, बन रही चेष्टायें, परिस्थिति है, उन्मत्तचेष्टा है, कर्म के उदय हैं, लेकिन ये मेरे स्वरूप नहीं। मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, अपने ही स्वरूप में बसूँगा। ऐसा एक दृढ़ निश्चय बना लीजिए इस जीव में, भैया, ऐसी हठ बना लीजिये कि मैं इसका अध्ययन करके ही रहूँगा, मैं इन मकान वैभव आदि को छोड़कर ही रहूँगा। होने दो जो होना है पुण्योदय में अपने आप। घर में रहता है, कर्तव्य में बसा हुआ है। 6 घंटे दूकान पर लीजिए, 6 घंटे अन्य काम कर लीजिए, मगर उसके पीछे न लगें, क्योंकि यह सब धोखा है, यह सब माया है, इनमें अपना समय व्यर्थ जायगा, उस कर्मभार से हटें, विरक्ति पायें। जब इनसे पूर्ण विरक्त हो जायेंगे इन सब विभाव भावों का लेश भी न रहेगा तो भगवान बन जायेंगे, सदा के लिए संकटों से मुक्त हो जायेंगे। अपना यह प्रोग्राम बने कि मुझे तो सिद्ध होना है, मुझे तो अरहंत होना है, यह प्रोग्राम बनावें, यहाँ के पापी जीवों के समूह के बीच अपने को क्या दिखलाना है, संसार ही पाप है जो संसार में जन्ममरण लेते हैं वह सब पाप ही तो है। पापमय इस दुनिया में हमें किसी को कुछ दिखाना नहीं, कोई मुझे जाने भी मत, मेरे आत्मा का कोई नाम भी नहीं है, मैं निर्नाम हूँ, ऐसा मैं अपने चैतन्यस्वरूप में ही बसूँगा, अन्य मेरा कोई निर्णय नहीं, अन्य बात के लिए मेरा जीवन नहीं। अनंत भाव पाये यह भी भव पाया, विषय कषायों में समय गमायातो नई बात कौनसी की? क्रांति की बात कौनसी की? अपने आपमें क्रांति लावें। अपना मुख मोड़े, मुझे अपने आत्मा का ज्ञान करना है और उसही में रमकर संसार के संकट पार करना है। दूसरा ध्येय मेरे जीवन का अन्य कुछ नहीं है, अपने आपको सावधान बनाने के लिए जरूरत है स्वाध्याय की और सत्संग की। लोग उमंग रखते हैं कि मेरे बच्चे हैं, मेरा बड़ा संग है और उनके लिए ही अपना तन, मन, धन, वचन सब कुछ न्यौछावर हो रहा है, मगर इतनी भी दृष्टि नहीं होती कि कोई भी सत्पुरुष, कोई भी व्रती त्यागीजन, कोई भी ज्ञानीजन हमारे बच्चों के 100 वाँ भाग बराबर के भी होंगे। इनमें भी तो कुछ अपने को लाभ की बात होगी- यह कुछ नहीं। बस जिन जिन में मोह है उनके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर रहे, पर यह परिजन का संग आपके आत्मा को पतित बनायेगा और सत्पुरुषों का संग आपके आत्मा का उत्थान करेगा, इससे उमंग लावो सत्संग की।