वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 190
From जैनकोष
प्रमादकलित: कथं भवति शुद्धभावोऽलस:
कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यत: ।
अत: स्वरसनिर्भरे नियमित: स्वभावे भवन्
मुनि: परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात् ॥190॥
1577- प्रमादकलित भाव की अशुद्धता-
इसमें ऊपर के छंद में बताया कि जहाँ प्रतिक्रमण को भी विष कहा वहाँ अज्ञानी जनों का अप्रतिक्रमण अमृत कैसे बन जायगा? फिर हे भव्य जीवो ! क्यों प्रमाद करते हो? प्रमाद कर-करके क्यों गिर रहे हो, नीचे क्यों जा रहे हो? क्यों नहीं प्रमादरहित होकर ऊपर-ऊपर चढ़ते हो? याने प्रतिक्रमण से भी ऊपर जो एक तृतीय भूमि है उसमें निवास करें। आज के छंद में कह रहे हैं कि प्रमाद क्या चीज है और होता क्या है और तब कर्तव्य क्या है एवं उसका फल क्या है? प्रमाद कहते हैं कषाय के भार से वजनदार हो जाने से जो मोक्षमार्ग के भाव में अलसता आती है ऐसी अलसता का नाम प्रमाद है। लोक में देखा जाता है कि जो प्रमाद लिये हुये हैं उसने कोई नशा का भार या जैसे बहुत ज्यादह नशेली चीज खाई है उससे एक बड़ा बोझ-सा होता है, वह गिर जाता है। ऐसी स्थिति को ही तो आलस कहते हैं। आलसियों की बहुत बड़ी विचित्र कथा है। उनकी क्या होड़ लगाते। उनकी एक कथा सुनी होगी। कोई तीन आदमी कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक जामुन के पेड़ के नीचे लेट गये। एक जामुन एक पुरुष के बगल में गिरा। एक दूसरे पुरुष की छाती पर गिरा और एक तीसरे पुरुष के बिल्कुल ओठों पर गिरा। अब वे इतने आलसी कि सभी एक दूसरे से बढ़ –बढ़कर। उनमें से एक कहता है कि भैया ! इस जामुन को कोर्इ उठाकर हमारे मुख में धर देवे, जिसकी छाती पर जामुन पड़ा वह कहता कि कोई इस जामुन को उठाकर मेरे मुख में धर देवे, जिसके ओठों पर जामुन धरा वह कहे भैया ! हमारे ओठ खोलकर यह जामुन कोई हमारे मुख के अंदर कर देवे? ऐसी तो है इन लौकिक आलसियों की बात। फिर मोक्षमार्ग के आलसी के तो भाव ही नहीं। मोक्षमार्ग में आलसी कौन? जिसको अपने स्वभाव में मग्न होने के लिए उमंग न जगे उसे कहते हैं प्रमादी (आलसी)।
1578- प्रमाद की मुद्रायें-
छठे गुणस्थान में प्रमाद रहता है। लोग सुनकर जरा अटपट-सा ख्याल करते कि छठे गुणस्थान वाले मुनि महाराज को कहते हैं यह प्रमादी है, तो प्रमाद के मायने क्या? मोक्षमार्ग के उचित काम में, स्वभावदृष्टि में प्रमाद करना, अन्य-अन्य बातों में लगना- इसे कहते हैं प्रमाद। व्यवहार में लगना, शिक्षा देना, दीक्षा देना, उपदेश देना...ये सब प्रमाद हैं मोक्षमार्ग के लिए। इससे भी हटकर निर्विकल्प आत्मसाधना करना यह है अप्रमाद। चार प्रकार की कथायें- स्त्रीकथा, राजकथा, राष्ट्र कथा, भोजन कथा। ये चारों मोक्षमार्ग में बाधक हैं। स्त्रीचर्चा मायने स्त्रियों के साज-श्रृंगार, भोग-विलास संबंधी चर्चायें करना; राजकथा- राजा के ठाटबाट, वैभव, साम्राज्य, यश, प्रतिष्ठा, भोग-विलास आदि की चर्चायें करना; राष्ट्र कथा- देश-विदेश की खबरें पढ़ना-सुनना आदि; भोजनकथा- खाने-पीने के, मौज उड़ाने आदि की चर्चायें करना- ये सब कथायें इस जीव के मोक्षमार्ग में बाधक हैं, ये सब इस जीव के प्रमाद कहलाते हैं। क्यों जी? कोई बहुत बड़ा पहलवान हो, वह खूब दंड-बैठक कसरत व्यायाम कर रहा हो तो बताओ वह प्रमाद कर रहा कि नहीं? अरे ! वैसे तो बाहर के देखने में वह प्रमाद नहीं कर रहा मगर मोक्षमार्ग में कदम रखने के लिए तो उसका प्रमाद चल रहा है, मात्र शरीर के पुष्ट रखने की उसकी दृष्टि है, शरीर की सेवा करने का तो उसे बड़ा ध्यान है, पर आत्मा की सेवा करने का उसने अपना प्रोग्राम ही नहीं बनाया तो फिर उसे मोक्षमार्ग में आलसी नहीं तो फिर क्या कहा जायगा? तो चूंकि जो प्रमाद से भरा हुआ जीव है वह आलसी है जो जिस काम में रुचि न रखे, प्रगति न करे उसे कहते हैं उस काम में आलसी। तो ऐसे जो प्रमाद से, आलसभाव से भरे हुये हैं उनके शुद्धभाव कैसे हो सकते।
1579- प्रमादभावों से हटकर अंतस्तत्त्व में उपयुक्त होने के कर्तव्य का स्मरण-
देखो, अज्ञानी जनों का जो अप्रतिक्रमण है, अविरत है, असंयम है, वह जो आलस्य है, प्रमाद है, सो विष है, उसकी निवृत्ति के लिए जो व्रत, तपश्चरण आदिक किये जाते हैं उनमें रहने वाला जो विकल्प है वह विकल्प भी प्रमाद है। वहाँ से हटकर जो केवल एक विशुद्ध तत्त्व में उपयोग रखे, अप्रमत्त दशा में रहे यह है अप्रमाद। तो प्रमादरहित होने में पूरा भला है। देखो, जिसका होनहार भला है उसको ही इस अंतस्तत्त्व की चर्चा सुहायेगी। इस अंतस्तत्त्व की साधना का संग सुहायेगा। यह अंतस्तत्त्व जहाँ प्रकट हुआ है, विकसित हुआ है उसकी भक्ति सुहायेगी। अंतस्तत्त्व का ध्यान सुहायेगा, और जिनका संसार में जन्म-मरण चलेगा उनको तो विषय-विष ही सुहायेगा। संसार में बतलाओ कौन सुंदर है और कौन असुंदर है? पुरुष लोग स्त्रीजनों के बारे में सोचते होंगे कि इनका रूप सुंदर है और चाहे स्त्रीजन भी ऐसा ही पुरुषों के प्रति सोचती हों। अब जरा एक व्यापक दृष्टि तो लावो- कौन सुंदर, कौन असुंदर? किसी को कोई सुहाता, किसी को कोई, जैसे देखा होगा कि गाय, बैल, भैंस वगैरह पशुओं में भी जब उनके पसंद करने वाले लोग उनके पास जाते तो कोई किसी जानवर को पसंद करता, कोई किसी को। ऐसे ही अपनी बात समझना। अरे ! इस जगत में कोई सुंदर नहीं। इस जीव को रागभाव होता है वह परवस्तु को सुंदर बनाता है। जिसके रागभाव नहीं है घृणाभाव है वह उस पदार्थ को असुंदर बनाता है। नहीं तो बतलाओ जो यहाँ कंधे के बीच रखा है यह सिर मस्तक इसमें क्या-क्या गंदी चीजें नहीं भरी हैं? अरे ! नाक, कनेऊ, थूक, कफ, कीचड़, खून आदि महा अपवित्र चीजें इसमें भरी हैं, बस ऊपर से एक पतली चाम ढकी हुई है। इतनी अपवित्रता का जिसे पता है उसको कैसे सुंदर जँचेगा? जिसको रागभाव लगा, कामवासना लगी वह तो कुछ अपवित्रतायें न देखेगा, उसे तो एक अपूर्व चीज दिखती है, सुंदर दिखती है। जगत में, बाहर में कुछ भी अपना हितकारी तथ्य नहीं है, अपना हित अपने को अपने में अंत:प्राप्त है। अपने रस से भरे हुए निज स्वभाव को देखो।
1580- अज्ञानहठ के परिहार से आत्मविकास-
कोई मनुष्य जगह-जगह डोलता है, ठोकरें खाकर घर में आराम से बैठता कि मेरे को बाहर में कोई शरण नहीं। यह जीव अनादिकाल से बाहरी-बाहरी चीजों में रमकर, ठोकरें खाकर अब तक इस तरह दु:खी होता आया है मगर अपने आनंदमय घर में नहीं बैठ सकता। जिस भव में जाता उस भव में जो मिलता वह उसे ऐसा नया लगता कि मानो इसने कभी पाया ही नहीं। तो बाह्य वस्तुओं में रमना यह प्रमाद है, क्योंकि उसके साथ मोह और कषाय दोनों ही लग रहे हैं- अज्ञान है और कषाय है। जो जैसा करता है वैसा भरता है, ऐसा जानकर कषाय के हुक्म में अपने आत्मा को मत लगावें। जो कषाय ने हुक्म दिया, जो राग ने प्रेरणा दी उसमें ही बह गये, ऐसा पकड़कर रह गये ऐसा आग्रह न करो। इस आग्रह का फल बुरा होता है। इस आग्रह के संबंध में एक घटना सुनो- एक गाँव का कोई मुखिया किसी पंचायत में इस बात पर हठ कर गया कि 30 और 30 मिलकर 70 ही होते हैं। बाकी सब लोग कहें कि 60 ही होते हैं। कुछ शान में आकर मुखिया बोला कि यदि 30 और 30 मिलकर 70 न होते हों तो मैं अपनी सारी भैंसे हार जाऊँगा। अब तो सभी पंचों ने समझ लिया कि इस मुखिया की सभी भैंसे हम लोगों को मिल जायेंगी। उधर मुखिया की स्त्री को भी पता पड़ गया कि आज हमारे पतिदेव साहब पंचों के बीच इस-इस तरह से बोल गये सो वह बड़ी दु:खी थी, वह सोच रही थी अब क्या होगा, सारी भैंसे घर से चली जायेंगी, अब न जाने बच्चों का पालन-पोषण कैसे होगा? कमाई का और कोई जरिया भी नहीं है...इस प्रकार का चिंतन करती हुई वह मुखिया स्त्री घर में उदास बैठी हुई थी। उसी समय मुखिया पहुँचा घर। स्त्री को बहुत दु:खी पाया। दु:खी होने का कारण पूछा। तुम्हारी करतूत ने हमको दु:खी किया।...अरे ! कैसी करतूत? यही कि तुम पंचों के बीच यह बोल आये कि 30 और 30 मिलकर अगर 70 न होते हों तो मैं अपनी सारी भैंसे दे दूँगा..., तो मुखिया बोला- अरे ! तू तो बड़ी भोली है, जब मैं अपने मुख से कहूँगा कि 30 और 30 मिलकर 60 होते हैं तभी तो वे हमारी भैंसे ले सकेंगे। अब बताओ ऐसा तो आग्रह लोग करते। तो ऐसे पक्ष, आग्रह, विषय ये सब मोक्षमार्ग में बाधक हैं। इनसे हटना है। ऐसी प्रवृत्ति से भरा हुआ जो भाव अशुभभाव, पाप भाव, अज्ञान भाव, वह शुद्ध भाव कैसे हो सकता है और जब शुद्ध भाव नहीं है तो फिर शांतिपथ में गमन कैसे हो सकता।
1581- स्वरसनिर्भर स्वभाव में स्थिर होने का कर्तव्य-
अब क्या करना है कि स्वरस से भरे हुये स्वभाव में स्थिर होते हुए, चैतन्यरस प्रतिभासमात्र सहज आनंदमय अंतर्भाव में नियमित होते हुये अपनी साधना में चलते हुये उस परम शुद्धता को प्राप्त करो। देखिये, जो जिस प्रकार का उपयोग रखता है, एकाग्र होकर जैसा ध्यान रखता है, बस उसकी वैसी ही वृत्ति बन जाती है। चाहे कोई खेल भी हो, नाटक हो, किसी जगह हो, जैसा अपने को सोचा उसके अनुसार उसकी वृत्ति बन जाती है। बच्चे लोग भी तो घोड़े का खेल खेलते। दोनों हाथ दोनों घुटने-याने पैरों से चलकर घोड़े का खेल खेलते, वे उस समय अपने को घोड़ारूप अनुभव करते, एक दूसरे के सिर से सिर भिड़ा देते, जोर-जोर से एक दूसरे के सिर में सिर मार देते, उनमें तेज लड़ाई-सी हो जाती। उस समय वे बालक अपने को घोड़ारूप अनुभव करते। ऐसे ही जब मान लो बालक पैदा हुआ तो उस समय पिता यह अनुभव करता कि मैं इस लड़के का बाप हूँ तो इस निर्णय के साथ ही साथ कितनी उमंग होती है, कितना भार होता है याने वे सब कलायें आ जाती जो कि बाप के अध्यवसाय में बना करती हैं। इस आत्मा का धन सिर्फ ज्ञान है और ज्ञान के द्वारा ये सब कुछ अपनी परिणतियाँ और भविष्य बना करते हैं। उल्टा सोचना, खोटा सोचना, अच्छा सोचना, सब कुछ इस ज्ञान पर ही निर्भर है, तो जब ज्ञानसाध्य ही ये सारी बातें हैं, तो कोई अनुभव ज्ञान बनाना चाहिए जिससे कि संसार-संकटों से अपनी निवृत्ति हो जाय। जो शुद्ध तत्त्व निरंतर ध्यान में रखेगा वह शुद्ध बनेगा, जो अशुद्धरूप अपने को अनुभवेगा वह अशुद्ध बनता हुआ संसार में जन्म-मरण करेगा। शुद्ध तत्त्व के मायने अपना सहज स्वरूप। मैं स्वयं अपने आप क्या हूँ, उस भाव में अनुभव बनायें कि मैं यह हूँ। जो अनवरत अनवच्छिन्न धारा से अपने को शुद्ध स्वरूप में निरखेगा, उसके कषायें हटेंगी, अज्ञान हटेगा। ऐसा अध्यात्मयोगी एक अद्भुत आनंद का अनुभव करता है, यह है परमधन जीव का जिससे कि यह अमीर कहलाता। भैया ! धन के कारण अमीर मानना भ्रम है, धन न होने के कारण गरीब मानना भ्रम है। उस दुनियाँ की गरीबी और अमीरी से आत्मा को क्या लाभ अलाभ है।
1582- दु:खियों द्वारा सुखमुद्रा की बनावट-
भैया, थोड़ासा जीवन है। इतने से जीवन में कुछ मान्यता सी बन गई, कल्पना बन गई, कल्पना से कुछ मौज मान रहा, सो उसमें भी जितना मौज माना उससे कई गुना कष्ट हैं, तो ऐसा लग रहा है यह सब दिखावा। जैसे अचानक कोई पुरुष किसी के घर पहुँचता तो वहाँ उसका पता पाते ही उस घर वाला पुरुष क्या करता? पहले तो जैसा चाहे फटा-पुराना कोई कपड़ा पहने बैठा था, मानो फटे-पुराने तौलिया, बनियान ही पहने हो, पर उस पुरुष के आ जाने पर साफ, स्वच्छ कपड़े पहनता, कुछ तेल लगाकर कंघा से बाल ओंछता, कुछ अपना ढंग बनाता तब वह उस पुरुष से मिलता है। ठीक ऐसा ही हाल हम सबका चल रहा है। दु:ख, कष्ट, विकल्प, विरोध, ईर्ष्या और और भी बातें जीवन में चलती हैं मगर इनकी बाहरी मुद्रा देखकर तो यों समझ में आता कि इन्हें कोई कष्ट नहीं है, सब लोग बड़े आराम से बैठे हैं, तो यह उसी तरह की तो बात हुई जैसे वह पुरुष घर में कैसे ही फटे-पुराने वस्त्र तौलिया, बनियान वगैरह पहने था, पर किसी अतिथि के आने पर नये-नये पहन लेता, तेल, कंघा कर लेता...ऐसे ही ये देखने में तो बड़े शांत, सुखी नजर आते पर जरा इनके भीतर की बात तो पहचानो, ये भीतर ही भीतर कष्ट की ज्वाला में झुलस रहे हैं। तो यह सब अज्ञान की लीला है। अज्ञानी की सारी बातें अज्ञानमय ही चलती हैं। अब क्या करना? अपने ज्ञानस्वभाव को निरखो, शरीर से कैसे ही रहो, लोग कैसा ही समझें, इन लोगों की समझ से अगर अपना आचरण बनाया व्यवहार बनाया, तो पार नहीं पा सकते; सबको हम खुश नहीं कर सकते। नम्रता करें तो कहते हैं कि ये कायर हैं, कठोरता करें तो कहते कि यह घमंडी है, थोड़ा बोले तो कहते कि यह तो कुछ नहीं जानता, किसी से इसको प्यार ही नहीं है। मौन से रहें तो कहते कि किसी का यह ख्याल ही नहीं करता, खूब बोलें तो कहते कि यह तो बड़ा बकवादी है, बहुत बोलता है।
1583- सबको प्रसन्न करने की अशक्यता-
यहाँ कोई किसी दूसरे को खुश नहीं कर सकता? मेरे खुश करने से सभी खुश हो जायें ऐसा हो नहीं सकता। कोई खुश होता तो कोई नाखुश भी। इसलिए यहाँ किसको खुश करना सोचते? इसके संबंध में एक दृष्टांत लो- एक सेठ के चार बेटे थे और 5 लाख की संपत्ति थी। चारों खुशी-खुशी से सही न्यारे हो गए, तो सेठ बोला अपने बेटों से कि तुम लोग सहर्ष न्यारे हो गए अब इसके उपलक्ष में सभी लोग बारी-बारी से प्रीतिभोज कराना, बिरादरी की पंगत कराना।...ठीक है। सबसे पहले छोटे बेटे ने बिरादरी की पंगत किया तो उसने 5-7 मिठाइयाँ बनवायीं, बड़ा उत्सव मनाया, तो उस पंगत में बिरादरी के लोग जीमते जायें और कहते जायें कि मालूम होता है कि इसको सबसे अधिक धन मिला है। छोटा बेटा है प्यार भी इसी पर रहा होगा। चाभी भी तो तिजोरी की इसके हाथ में रहा करती होगी, इसने बहुत-सा धन तो दाब भी लिया होगा तभी तो यह बड़ा उत्सव मना रहा।...उसके बाद दूसरे बेटे की बारी आयी प्रीतिभोज कराने की तो उसने कोई दो तीन ही मिठाइयाँ बनवायीं। वहाँ बिरादरी के लोग जीमते जायें और कहते जायें देखो यह कितना बदमाश निकला, इसने तो बस दो-तीन मिठाइयों में ही टरका दिया, दाब रखा हो चाहे बहुत-सा धन। तीसरे बेटे की पंगत कराने की बारी आयी तो उसने मिठाइयों का नाम न लिया, बस वही पूड़ी साग बनवाया, वहाँ भी बिरादरी के लोग जीमते जाते और कहते जाते अरे ! यह तो बड़ा कंजूस निकला, इसने तो मिठाई का नाम तक नहीं लिया, बस पूड़ी साग में ही टरका दिया..., चौथे बेटे ने जब पंगत किया तो उसने मिठाई पूड़ी साग ये कुछ न बनवाया, बस सीधी-सादी रोटी, दाल बनवाई, यहाँ भी बिरादरी के लोग जीमते जाते और आपस में बात करते जाते, अरे ! यह तो महा कंजूस निकला। इसने तो बस रोटी दाल में ही टरका दिया। यह सेठ का सबसे बड़ा बेटा था, सबसे पहिला प्यारा था। शायद सेठ ने इसको सबसे ज्यादह धन दे रखा होगा, पर यह सबसे कंजूस निकला। तो भाई यहाँ किसको खुश करना चाहते, आप कितना ही कुछ कर लें पर किसी को खुश नहीं कर सकते। दूसरों को खुश करने की बात चित्त से निकाल दो।
1584- लोक को प्रसन्न रखने के लिये कमर कसने वालों की विडंबना-
यहाँ आप कितना ही कुछ कर लें, पर आपके करने से सभी लोग खुश हो जायें ऐसा हो नहीं सकता। एक दृष्टांत है कि एक बार कोई बाप बेटा किसी दूसरे गाँव को जा रहे थे सो बाप तो बैठा था घोड़े पर और बेटा पैदल चल रहा था। तो जब किसी गाँव से निकले तो लोग बोले, अरे ! देखो यह बाप कितना चालाक है। खुद तो घोड़े पर लदा है और अपने सुकुमाल बेटे को पैदल चला रहा है, यह बात सुनकर बाप बोला अपने बेटे से, ऐ बेटे ! अब हम घोड़े पर बैठकर नहीं चलेंगे, लोग हमारा नाम धरते हैं, अब तुम घोड़े पर बैठकर चलो। ठीक है, बेटा घोड़े पर बैठ गया, अब दूसरा गाँव मिला तो वहाँ के लोग बोले- देखो यह लड़का कितना उद्दंड है, खुद तो हट्टा-कट्टा पट्ठा घोड़े पर लदा है और अपने बूढ़े बाप को पैदल चला रहा है। यह बात सुनकर बेटा बोला अपने बाप से पिताजी हम भी नहीं बैठेंगे इस घोड़े पर क्योंकि लोग हमारा नाम धरते हैं। खैर, दोनों में सलाह हुई कि अपन दोनों घोड़े पर बैठकर चलें। सो दोनों घोड़े पर बैठकर जा रहे थे, रास्ते में कई तीसरा गाँव मिला, वहाँ के लोग बोले मालूम होता है कि यह घोड़ा माँगे का है तभी तो ये दोनों हट्टे-कट्टे इस घोड़े पर लदे हैं। यदि खुद का घोड़ा होता तो ऐसा न करते। इस बात को सुनकर दोनों ने सलाह की कि देखो, इसमें भी लोग नाम धर रहे तो चलो अपन दोनों पैदल चलें। अब दोनों पैदल चल रहे थे घोड़े की लगाम पकड़े हुए, आगे चौथा गाँव पड़ा, वहाँ के लोग बोले ये दोनों बड़े मूरख मालूम पड़ते हैं, अरे ! जब पैदल ही चलना था तो फिर साथ में घोड़ा लेकर चलने की क्या जरूरत थी?...अब भला बतलाओ, क्या काम करें वे दोनों जिससे कि सभी लोग खुश हो जावें? शायद इस काम के करने से सब खुश हो जावेंगे कि घोड़े के चारों पैर रस्सी से बाँधकर उसके बीच एक लाठी फँसाकर दोनों (बाप बेटा) अपने-अपने कंधे पर लाठी रखकर घोड़े को लादकर चलें (हँसी)। अरे भाई ! यहाँ किसको खुश करना चाहते? यहाँ कितना ही कुछ कर लो, पर सबको खुश नहीं कर सकते। यहाँ मोहीजन सोचते हैं कि हमें तो ऐसा काम करना है कि जिससे ये सब लोग खुश रहें तो वे तो मोहियों के सिरताज कहलायेंगे। यों सिरताज शब्द सुनकर खुश न हो जाना, जैसे डाकुओं का सिरताज, बदमाशों का सिरताज, ऐसे ही मोहियों का सिरताज। अरे ! बाहर में कहीं कुछ न सोचो, अपने भीतर परख करो, अपने सहज स्वभाव को निरखो और उसको निरखते-निरखते अपने आपमें प्रसन्नता प्राप्त करो तो यह तो है भलाई का काम और इस अपनी स्वरूप-सुध को छोड़कर बाहर-बाहर ही उपयोग भ्रमाया, भटकाया तो इसका फल नियम से दुर्गति पाना है, संसार में जन्म-मरण करना है।