वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 189
From जैनकोष
यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं
तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुत: स्यात् ।
तत्किं प्रमाद्यति जन: प्रपतन्नधोऽध:
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमाद: ॥189॥
1567- अज्ञानी जनों के अप्रतिक्रमण की ऐकांतिक विषरूपता का समर्थन-
इस प्रसंग में यह बताया गया है कि अप्रतिक्रमण, द्रव्यप्रतिक्रमण और दोनों कल्पनाओं से, विचारों से रहित विशुद्ध चैतन्यस्वभाव का आश्रय, अनुभवन यह तीसरी भूमि का अप्रतिक्रमण है। अब इन तीनों का निर्णय किया गया था कि जो अप्रतिक्रमण है, अविरतभाव है, असंयमभाव है वह तो विष है और तब द्रव्यप्रतिक्रमण अमृत है याने कोई दोष करे, उन दोषों का निवेदन किया, कुछ प्रायश्चित्त लिया तो वह अमृतकुंभ है किंतु यह द्रव्यप्रतिक्रमण अमृत कब बनता है? जब कि तृतीय भूमि का स्पर्श उसके हो, अन्यथा वह द्रव्यप्रतिक्रमण भी विष है। तो जहाँ प्रतिक्रमण को भी विष कहा है वहाँ अज्ञानी जनों में पाया जाने वाला अविरतभाव, अप्रतिक्रमणभाव यह कैसे अमृत हो सकता है? यह बात समझायी गई तो इससे क्या निष्कर्ष लेना? इससे यह निष्कर्ष लेना कि इस अविरतभाव में, असंयमभाव में कुछ मौज-सा मानते हुए क्षण मत बिताओ, वह मोहविष है। ऊपर संयमभाव में आयें, व्रत तपश्चरण आदिक परिणामों में आयें, पर केवल इतने को ही सर्वस्व न मानें किंतु जो सहज स्वभाव का आलंबन है उसकी ओर बढें, वह है आपका प्रधान लक्ष्य और जिसने अपना लक्ष्य नहीं पाया उसके लिए व्रत, तप, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदिक सब बातें ये अमृत नहीं हो सकती। तब नीचे-नीचे न गिरें, किंतु ऊपर उसके उठें, अविरतभाव से हटें, संयमभाव में आइये, संयम से ऊपर आइये और सहज निरपेक्ष चैतन्यस्वभाव का आलंबन लीजिए, निष्प्रमाद होकर ऊपर-ऊपर उठना चाहिए।
1568- अपने उद्धरण की चर्चा-
देखिये, यह बात किसी दूसरे की नहीं है, खुद को समझना चाहिए, शांति के काम बनावें। शांति के काम बाहरी पदार्थों का निग्रह-अनुग्रह नहीं किंतु अपने ज्ञान को विशुद्ध बनावें, शांति मिलेगी। वह ज्ञान की विशुद्धि क्या? अपना जो सहज स्वरूप है उसे ज्ञान में लीजिए। मैं क्या हूँ, जिसको अपने आपका पता नहीं वह शांति का पात्र कैसे हो सकेगा? किसी बड़ी भीड़ में कोई बच्चा गुम गया और बच्चा अपना पता न दे सके कि मैं अमुक हूँ, मेरे पिता का यह नाम है, मेरा यह घर है, तो उस बच्चे का ठिकाना लग सकता क्या? और, भूल गया, भीड़ में बिछुड़ गया, रो-गा रहा मगर पता है उसको अपना कि मैं यह हूँ, मैं इस जगह का रहने वाला हूँ, लोगों को बतावेगा, सो लोग उसे ठिकाने पहुँचा देंगे। तो ऐसे ही जिस जीव को अपना पता नहीं है उसका क्या ठिकाना लग सकता, वह तो रुलेगा, यहाँ-वहाँ भटकेगा, तो परमात्मा से बिछुड़ गया ना? वह अज्ञानी, उसकी क्या खैर क्या है? जिसको अपने आपका पता है वह कहीं भी रहे, अपने आपके स्वरूप में अपनी झलक पाले, शांति हो जायगी। यहाँ बाहरी पदार्थ आश्रयभूत कारण हैं, पंचेंद्रिय के विषयभूत पदार्थ इनका संबंध जुड़ना, आश्रयभूत कारण हैं। इनसे हटना, निमित्त कारणों से हटना, नैमित्तिक भाव से हटना, एक सहज स्वभाव को लेना...यही तो उद्देश्य है मोक्षमार्ग का। इसमें फर्क ही नहीं तो विवाद बनावें। एक ही बात है, आश्रयभूत कारण से हटना मायने यह ध्यान में लावें कि बाहरी परिणतियाँ मेरे को सुख-दु:ख, क्लेश-संक्लेश पैदा नहीं करती, किंतु यह मैं आत्मा ही अपने मुड में किए हुए उन बाहरी पदार्थों में उपयोग जुटाकर खुद अपने को सुखी-दु:खी मान अनुभव करता हूँ। ये बाहरी पदार्थ मेरे को दु:खी नहीं करते, मेरे में कोई परिणति नहीं करते, ऐसा परिचय पा लेना यह ही आश्रयभूत कारण से हटना है। फिर और विशेष हटे एक संयम में बढ़ते हुए, पर इसका एक हटाव भी तो एक प्रारंभिक कदम है।
1569- आश्रयभूत कारण से हटने की प्रक्रिया-
कोई भी बाहरी पदार्थ मेरे को सुखी-दु:खी नहीं करता, यह बात अब चित्त में नहीं रहती तो बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है, कोई भी जीव मेरे को सुखी नहीं कर सकता। मैं ही स्वभाव से चिगता हूँ और अपने में कल्पनायें बनाकर दु:खी होता हूँ। कभी किसी रिसाते हुए बच्चे को देखा होगा पैर फैलाकर बैठ जाता है और हाथ-पैर हिला-हिलाकर रोता रहता। अगर बहुत देर तक रोते-रोते कुछ रोना कम होता है तो फिर वह बल लगाता है और पैरों को तोड़-मरोड़कर फिर अपने में वह बात लाना चाहता है। तो जैसे वह बालक अलग बैठा-बैठा रोता रहता उसे कोई मार भी नहीं रहा पर रोने की आदत है ऐसे ही ये अज्ञानी जीव स्वयं अपने आपको दु:खी कर रहे, वस्तुत: कोई दूसरा जीव किसी दूसरे को दु:खी करने में समर्थ नहीं, अगर कोई सोचे कि इस दूसरे ने मुझे दु:खी किया तो वह उसका अध्यवसाय है, मोह है। ऐसी भिन्नता का परिचय होना यह कहलाती है आश्रयभूत कारण से हटने की प्रक्रिया।
1570- निमित्तकारण से हटने की प्रक्रिया-
अच्छा, और उक्त ही प्रक्रिया है निमित्त कारण से हटने की। मुझे अपने आपके विकार के कारणों से हटना है, कषाय का उदय आया, क्रोध प्रकृति का उदय आया, अन्य- अन्य प्रकृतियों का उदय आया यहाँ आत्मा में क्रोधादिक जगे और जो यह मानेगा कि देखो, अमुक ने क्रोध पैदा कर दिया, कर्म ने इस जीव में क्रोध परिणति कर दी, तो अब निमित्त से हटने की गुंजाइश कहाँ रही? निमित्तभूत कर्म प्रकृतियाँ इस जीव में रागादिक परिणमन नहीं करती, अगर करें तो ऐसे ही चाहे ईश्वर को मान लो, चाहे कर्म को, चाहे यह कहो कि ईश्वर ने दिया दु:ख-सुख, चाहे कर्म ने दिया यों कह लो, हाँ तो फिर कैसीबात भई? ये विकार कैसे पैदा हुये? विकार यों पैदा हुये कि उस कर्मविपाक के उदयकाल में ऐसा ही वह निमित्त योग है कि यह अशुद्ध उपादान वाला जीव अपनी परिणति से क्रोधरूप परिणम गया। अच्छा यही बता दो कि इतने श्रोता जो यहाँ पर बैठे हैं वे सब हमारे को ये सब परिणतियाँ कर रहे क्या? अरे !हमारी परिणतियों को दूसरा कोई नहीं कर रहा पर एक वातावरण ही ऐसा है कि इन सब श्रोताओं का ऐसा सन्निधान पाकर हम अपने अंदर अपनी परिणति कर रहे, अगर ये सब श्रोता न होते और मैं इस जगह बैठा हुआ अकेला ही इस तरह से बोलने, हाथ हिलाने आदि की चेष्टायें करता तो देखने वाले लोग तो समझते कि आज तो महाराज जी, कुछ पागलों की जैसी चेष्टायें कर रहे, तो इस वातावरण के बिना मैं इस प्रकार कह नहीं सकता, यह ही तो बात है रागादिक परिणति की। कर्म के उदय के बिना यह जीव राग-विकार कर नहीं सकता, पर कर्म ने अपनी परिणति से राग कर दिया हो यह बात नहीं। तो निमित्त से हटना, आश्रयभूत कारण से हटना। इन दो का हटाव परस्पर कर्ता-कर्म बुद्धि के प्रतिषेध से हुआ।
1571- नैमित्तिक भावों से हटने की प्रक्रिया-
अच्छा, आश्रयभूत कारण व निमित्तकारण दो से तो हटा दिया, अब नैमित्तिकभाव से कैसे हटे? जो एक खास बात है, अत्यंत निकट की बात है, खुद में जुड़ा हुआ ऊधम है, उससे जीव कैसे हटे? तो नैमित्तिक भाव से हटाने का उपाय निमित्तनैमित्तिक योग का परिचय करना है। अब आप यहीं प्रयोगात्मक देख लो, दर्पण रखा है, सामने लाल चीज रखी है, तो उस लाल चीज का फोटो दर्पण में आया हुआ है। अब वह लाल फोटो हटाना है तो कैसे हटावें? जब यह ज्ञान में है कि यह फोटो अमुक लाल कपड़े का निमित्त पाकर हुआ है तो आपको उसके हटाने का भी उपाय मिल जाता, चूंकि ये दोनों अचेतन हैं इसलिए कपड़ा हटा दिया, फोटो हट गया। पर चेतन में तो यह विधि नहीं कि कर्मविपाक को हटा दे और जीवविकल्प हट गया। होता तो यों ही है कर्मविपाक न रहा तो विकार न रहे, जीव में होने की बात दूसरे ढंग की नहीं, पर यह जीव कर्मविपाक को हटाये कैसे? अपने ज्ञान को सम्हाले तो कर्म विपाक हटेगा। तो चूंकि ये रागादिक विकार नैमित्तिक हैं, मुझे इनसे प्रयोजन नहीं, रुचि नहीं, इनमें मैं न लगूँगा, ये दु:ख रूप हैं, दु:खी करने वाले हैं, इनसे मेरा प्रयोजन नहीं है। ऐसी उपेक्षा से ज्ञानस्वभाव में प्रवेश होता है।
1572- अनात्मतत्त्व से हटकर स्वभावाश्रय करने के पौरुष का प्रकाश-
आश्रयभूत कारण से हटना है, निमित्त कारणों से हटना है, नैमित्तिक भावों से हटना है और अपने सहज स्वभाव में आना है। जिस विधि से इन तीनों का हटाव बनता हो उस विधि से ज्ञानप्रयोग किया जाय। उद्देश्य यह है कि मैं सर्व पर और परभावों से हटकर अपने आपके स्वभाव में मग्न होऊँ। स्वभावदृष्टि, स्वभाव का आश्रय, यह है तृतीय भूमि। इसका भी नाम अप्रतिक्रमण हैं। और अज्ञानी होने से जो असंयमभाव हैं, जो दोष कर रहे हैं उन पर ग्लानि भी न आना आदिक जो एक उद्दंडता उसे भी अप्रतिक्रमण कहते और द्रव्यप्रतिक्रमण मायने संयमी पुरुष के, व्रती पुरुष के कदाचित् कोई दोष लगजायें तो उन दोषों की निवृत्ति के लिए जो साधना करते, गुरु से निवेदन करते, प्रतिक्रमण करते यह कहलाता है द्रव्यप्रतिक्रमण और भाव से भी अपने साथ है तो यही भाव- प्रतिक्रमण है, तो यहाँ यह बात जानना कि अज्ञानीजनों का अप्रतिक्रमण तो अत्यंत विष है ही, उसमें दूसरी बात सोचने की गुंजाइश नहीं, मगर ज्ञानी जीव के जो प्रतिक्रमण चलता है वह एक निगाह से देखा अमृतकुंभ और एक जगह से देखा विषकुंभ। और ये प्रतिक्रमण, व्रत, तप, संयम आदिक ये सब व्यवहार चारित्र, ये भी अमृत बने, इसका कारण क्या? वह तृतीयभूमि।
1573- ज्ञान के अवशिष्ट दोषों के प्रताप के परिचय से ज्ञानी के ज्ञानी की श्लाघ्यता-
ज्ञानी जीव के साथ, सम्यग्दृष्टि के साथ जो कुछ राग शेष रहता है व उस रागवश जो कुछ प्रवर्तन होता है उसकी भी बड़ी महिमा है। तीर्थकर प्रकृति का बंध हो गया तो क्या वीतरागभाव से बंध हुआ? उस सम्यक्त्व के रहते हुये जिनको भीतर में यह भावना उत्पन्न हुई है कि मैं लोगों का कल्याण करूँ उनके तो यह कर्तृत्वभाव बन गया, किंतु ये जगत के जीव जिनको स्वभाव दृष्टिगोचर हो रहा है, यह जीव उपयोगस्वरूप खुद ही तो आनंदस्वरूप है। ये जीव क्यों नहीं अपनी दृष्टि अपनी ओर लगाते और संसार संकटों को मेटते? इस भावना के फल में उन्हें तीर्थकर प्रकृति का बंध होता। तो देखिये- जैसे किसी बड़े मिनिस्टर के साथ छोटे-छोटे सिपाही भी हो तो उनकी भी महिमा होती है उनसे भी लोग डरते हैं, उनका भी लोग आदर करते हैं, उनका भी कुछ प्रभाव है। ऐसे ही ज्ञानी जीव के साथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र जहाँ तक जो संभव है उसके साथ जो कुछ राग शेष रहा है उस राग की भी इतनी अद्भुत महिमा है कि इंद्र, चक्रवर्ती आदिक के बड़े ऊँचें-ऊँचें पद यह जीव प्राप्त कर लेता है। अगर लक्ष्य रहे अपने आत्मस्वभाव का तो इन दोषों में भी प्रभाव बनेगा इतना ऊँचा और आत्मस्वभाव का लक्ष्य नहीं है तो इन दोषों में भी बल नहीं होता। तो बात जो जहाँ जैसी है समझिये, अपने को ऊपर-ऊपर चलना है, नीचे नहीं उतरना है, मायने नीचे उतरने का यत्न नहीं करना है।
1574- प्रभुस्वरूपदर्शन का विशुद्धि में सहयोग-
अपने आपकी भावना में उत्कृष्टता जगे, विशुद्धि जगे, इन सबके उपाय बनायें, क्या-क्या उपाय बनें, बनावें? देखो, तीन बातें तो कहते आ रहे- देवदर्शन, स्वाध्याय, गुरुसेवा। इन तीनों का अद्भूत प्रभाव है। देवदर्शन करना, प्रभु के गुणों का स्मरण करना, अपने स्वभाव का स्मरण करना, प्रभु से और अपने उस अंत:स्वरूप से तुलना करना और जब पर्याय की तनिक खबर भई, यह वीतरागता और यहाँ सरागता, इतनी बात में इतना बड़ा अंतर है कि वे तो हैं पवित्रप्रभु, त्रिलोकाधिपति और यह मैं बन रहा संसारी, भिखारी; जब इसकी सुध नहीं आती तो यह एक खेद में होता प्रभु पूजा में, देवदर्शन में और जब स्वरूप की तुलना होती है तो एक अद्भुत आनंद जगता है, उमंग जगती है कि मैं भी तो यह होसकता हूँ। जरा भी तो रुकावट नहीं, स्वरूप की समता है। तो भला कभी कोई ऐसी नदी देखो कि जिसमें दो नदियाँ एक जगह आकर मिल गई, एक नदी ठंडे जल वाली और एक नदी गरम जल वाली। देखा है कि रुड़की में है एक दृश्य ऐसा कि जैसे मानो पूरब दिशा से पश्चिम की ओर को नदी निकली और उत्तर दक्षिण को ऊपर से नहर निकली। उन दोनों का पानी एक जगह मिल जाता और वहाँ इंजिनियरों ने कोई ऐसा पुल बनाया है कि जिसमें पानी झरता रहता है, जिस दिन पानी का झरना बंद हो जायगा उस दिन वह पुल टूट जायगा, ऐसा भी इंजिनियरों का कहना है। तो वहाँ जब दोनों का पानी एक जगह मिलता तो वहाँ गरम जल व ठंडा जल, ये दोनों भी अलग-अलग महसूस होते। तो ऐसी ही बात यहाँ देखना है कि प्रभुभक्ति के समय जो भक्त को अंदर अश्रुपात होवे उसमें दोनों प्रकार के अश्रुवों का समावेश होना चाहिए, एकता आनंद के अश्रु और दूसरे अपने दोषों के प्रति पश्चाताप के अश्रु। ऐसी स्थिति में अपने अंदर एक बड़ी पवित्रता जगती है।
1575- सभी अनुयोगों के स्वाध्याय की लाभ करता-
अच्छा, अब स्वाध्याय की बात सुनो। स्वाध्याय में जो कुछ भी पढ़ें उससे अपने आत्मस्वभाव की दृष्टि बने, इस तरह के मुड से पढ़ना चाहिए, और पढ़ें सब। कभी कोई कथा ग्रंथ भी लिया जाय, कभी चरणानुयोग ग्रंथ लिया जाय, दार्शनिक शास्त्र, अध्यात्म शास्त्र, करणानुयोग लिया जाय देखिये- प्रगति के लिए बहुत से उपाय हैं सो आप खुद अनुभव कर लेंगे, क्योंकि मान लो हम एक ही तरह का छोटा शास्त्र लेकर बैठ गए, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, बस वही चार छह दस बार बोलें रोज रोज, तो ऐसी रुटीन बन जायगी कि जैसे ठठेरे का कबूतर। जैसे एक ठठेरे की दूकान में कोई कबूतर रहता था, अब वहाँ तो 20 घंटे बस वही ठन-ठन की आवाज होती रहती थी, अब वह कबूतर वहाँ से उड़े ही नहीं, बस वहीं खूंटी पर बैठा रहा करे। मानो किसी ने पूछा उससे कि अरे ! कबूतर तू तो जरा सी ठन-ठन की आवाज सुनकर उड़ जाने वाला पक्षी है, पर इस दूकान में तो बहुत ठन-ठन की आवाज होती ही रहती है वहाँ से क्यों नहीं उड़ता? क्यों बड़े ठाठ से बैठा रहता? तो मानो वह कबूतर बोला- भाई ! क्या करें, ऐसा तो रोज-रोज ही ठन-ठन होता रहता, हम कहाँ तक रोज-रोज उड़े? तो यहाँ आप प्रयोग करके देख लो, आपमें कुछ प्रगति होती है या नहीं, यदि नहीं होती है तो कुटेव छोड़ दो। दार्शनिक शास्त्र में जहाँ आत्मतत्त्व विवेचनात्मक चलता है, आपको आध्यात्मिक तत्त्व की जानकार बनेगी तो चूंकि यह युक्तिपूर्वक, अनुमानपूर्वक अविनाभाव का दर्शन कराता हुआ प्रतिपाद्य तत्त्व का वर्णन करता है तो आपको अपनी उस प्रक्रिया के वर्णन में अपने आपके ज्ञानस्वरूप के निर्णय में एक ऐसा स्पष्ट प्रकाश मिलेगा कि उपयोग आनंद विभोर हो जायगा। आप पढ़ें कथानकों के ग्रंथ, कभी कोई चारित्र पढ़ें, मानो श्रीराम भगवान का चरित्र पढ़ें तो उन प्रसंगों में आपको बड़ी उमंग जगेगी। जब वर्णन आता है चक्रवर्ती का इतना बड़ा वैभव और जब विरक्त हुए तो उपेक्षा का परिणाम न बनेगा क्या? थियेटर (नाटक) देखने के मायने क्या? वह एक प्रथमानुयोग का स्वाध्याय समझो। मान लो आप अकलंक-निकलंक नाटक देख रहे तो वहाँ आप क्या दृश्य देख रहे कि अकलंक निकलंक से बार-बार प्रार्थना करता है कि ऐ मेरे भैया ! देखो हम तुम दोनों को जैन-धर्मावलंबी जानकर ये विद्वेषीजन अपने-अपने हाथों में खड्ग लिए हुए हम तुम दोनों को मौत के घाट उतारने आ रहे हैं, सो तुम यहीं कहीं छिप जावो किसी झाड़ी में या तालाब में, मैं इनके पास जाकर सहर्ष अपने प्राण न्योछावर कर दूँगा, तो वहाँ वह निकलंक क्या कहता है, भैया ! मुझे इस बात की भिक्षा दे दो, मैं तुमसे यह माँगता हूँ कि तुम तो किसी तरह से लुक-छिपकर बच जाओ और मुझे ही सहर्ष इनके पास जाकर प्राणों का दान दे देने दो।...इस प्रकार की बातें जब नाटक में देखते हैं तो वहाँ कैसा एक दया से हृदय भर जाता है, तो प्रथमानुयोग के ग्रंथों को पढ़ने से भी एक बहुत बड़ी प्रेरणा मिलती। जब करणानुयोग के ग्रंथ पढ़ें तो वहाँ भी इस बात का चिंतन करना चाहिए कि मेरे अंदर ये कोई कषायें न जगें, उसका ही तो प्रभाव बनता है, तो करणानुयोग के ग्रंथों का विषय समझकर, अरहंत भक्ति से, चिंतन में जब यह उपयोग लगता है तो वहाँ कषाय नहीं जगती, वहाँ एकाग्रमन होता, और उसमें भी कर्म की चर्चा करना इसको अध्यात्म शास्त्र कहा। धवला वगैरह में देखो ये अध्यात्म शास्त्र हैं मायने आत्मा में जो गुजर रही उसका वर्णन करें।
1576- प्रभुपूजा, स्वाध्याय, गुरुसेवा करते हुए अंतस्तत्त्व की उपादान से मोक्षमार्ग में निर्वाध प्रगति-
अब यहाँ अपने ढंग से सोच लो, निमित्त से हटना, नैमित्तिक से हटना, आश्रयभूत कारण से हटना है, यह लक्ष्य न छोड़े तो आप वहाँ भी कोई चीज पायेंगे? सर्व प्रकार से स्वाध्याय करें और जीवनभर करना। यहाँ ज्ञानार्जन करने के सिवाय और कुछ काम नहीं पड़ा है ऐसा अपना एक मजबूत निर्णय रखें, फिर गुरु सेवा, किस ढंग से सेवा होती, क्या होती जब चित्त समर्पित है तो गुरुसेवा है और जहाँ चित्त अलग है, वहाँ गुरुसेवा नहीं बनती। बहुत से भाई ऐसी बात सामने रखा करते कि हम तो बहुत-बहुत स्वाध्याय करते मगर हमारे भावों में तो कुछ प्रगति नहीं होती, तो भाई यों कैसे भावों में प्रगति बने? इसके लिए तो तीन बातें चाहिए- देव दर्शन, स्वाध्याय और गुरुसेवा, इन तीनों से अपने जीवन में एक विकास करना है, बढे़ चलो। जो काम कर रहे आप वह क्या अमृत है? हाँ है, तो अमृत ही है? नहीं है। यह काम करने के लिए काम नहीं है, किंतु एक शुद्ध अंतस्तत्त्व स्वभाव की प्राप्ति के लिए यहाँ से भी गुजर रहे, इस तरह अपने जीवन को निर्मोह और मंद कषाय इन दो विधियों में बितायें तो इससे भविष्य में आत्मगुणों का विकास होगा।