वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 5
From जैनकोष
जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सह पंजयेहिं विविहेहिं।
ते होति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलुक्कं।।।।
पदार्थ की अविभागिता―जिन पदार्थों का नाना गुणों और नाना पर्यायों से सहित अस्तित्व भाव है वे अस्तिकाय होते हैं, जिनके द्वारा ये तीन लोग उत्पन्न होते हैं। अस्तिकायों में नाना गुण और नाना पर्यायों में साथ आत्मभाव है, अभिन्नता है पदार्थ तो प्रत्येक एक पूर्ण स्वतंत्र है और वह अविभागी है, एक का कभी विभाग नहीं होता और एक से पहिले कोई संख्या नहीं है। आध चौथाई ऐसी जो मान्यता है वह वास्तविक एक आधा चौथाई नहीं है, किंतु वह एक जो अनेक से मिलकर कल्पना में आया है इसका आधा चौथाई किया जाता है। तो पदार्थ प्रत्येक अविभागी हैं और वे अपनी शक्ति में अपनी परिणतियों में तन्मय हैं।
द्रव्य की गुणपर्यायमयता―पदार्थ है तो उसका कोई न कोई स्वभाव होना ही चाहिए। वह ही स्वभाव गुण है और जब गुण है, शक्ति है तो उसका कोई न कोई परिणमन होना ही चाहिए। वह परिणमन पर्याय है तो पर्याय भी पदार्थ से जुदी नहीं है। हालांकि पर्याय अगले समय में नहीं रहेगी, अगले समय में नवीन पर्याय होगी फिर भी जब जो पर्याय है, तब वह पर्याय उस पदार्थ उस पदार्थ में तन्मय है, अथवा यों कहो कि पर्याय का पदार्थ से अलग सत्त्व नहीं है, वह पदार्थ जिस देशरूप वर्त रहा है उस देश का नाम पर्याय है। पर्याय से जुदा सत्त्व नहीं और गुण का भी पदार्थ जुदा सत्त्व नहीं। पदार्थ जिस स्वभाव को लेकर रहता है उस ही का नाम गुण है, इस कारण गुण का भी पदार्थ से कोई जुदा अस्तित्व नहीं है और कभी तत्त्व पर्यायों से जुदा द्रव्य का अस्तित्व नहीं है। द्रव्य का लक्षण जैन दर्शन में गुण पर्यायबद्द्रव्यं कहा है। गुण पर्यायात्मक परद्रव्य होते हैं। इस त्रितय में से किसी एक को जुदा स्वतंत्र नहीं ठहराया जा सकता है। द्रव्य अलग हो, गुण अलग हो, पर्याय अलग हो, इनकी सत्ता जुदी-जुदी हो ऐसा नहीं है।
भेदवाद का एक स्रोत―भैया किन्हीं सिद्धांतों ने माना है कि द्रव्य अलग पदार्थ है, गुण अलग पदार्थ है और क्रिया अलग पदार्थ हैं। वैशेषिक लोग 7 पदार्थ मानते है―द्रव्य, गुण, क्रिया, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। ये सातों के सातों एक पदार्थरूप हैं। ये भिन्न-भिन्न नहीं है, पर लोगों को समझाने के लिए उस पदार्थ की जो विशेषता बतायी जाती है वह विशेषता इन 6 रूपों में है। गुण, क्रिया, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव पदार्थ एक ही है, जैसे एक जीव पदार्थ ले लीजिए। जीव पदार्थ में जो ज्ञान दर्शन आदिक गुण हैं यह गुण पृथक् पदार्थ नहीं हैं, जीव स्वयं ज्ञान स्वरूप है। ज्ञान जीव से अभिन्न है। उस भिन्न तत्त्व को समझाने के लिये जो भेद करके कहा जाता है वह व्यवहार दृष्टि से गुण कहलाया।
द्रव्य की गुणपर्यायमयता―जीव का गुण जीव से न्यारा नहीं है और जीव का जो गुण है वह प्रतिसमय किसी न किसी रूप परिणमता है। जैसे ज्ञान गुण से अमुक पदार्थ जाना इसी प्रकार जो ज्ञानगुण का परिणमन है उसका नाम क्रिया है। पर्याय कहो या क्रिया कहो, एक ही अर्थ है। क्रिया नाम केवल चलने का नहीं है, किंतु कुछ भी परिणमन बनाना चाहे वह क्षेत्र क्षेत्रांतर का परिणमन हो या उसही क्षेत्र में रहकर एक परिणमन को त्यागकर दूसरे परिणमन रूप हो वह सब क्रिया कहलाती है, जीव की क्रिया जीव से भिन्न नहीं है, पर नाम तो जुदा-जुदा है। गुण क्रिया इसका अर्थ जुदा है, इसके लक्षण को जुदा देखकर वैशेषिकों ने अलग-अलग तत्त्व मान लिया है।
द्रव्य की सामान्यविशेषात्मकता―और तो क्या, सामान्य और विशेष इन दो को उन्होंने जुदा-जुदा माना है, पर कहीं निर्विशेष मनुष्य देखा है किसी ने या विशेष देखा है किसी ने। चीज है, उसको ही सामान्य दृष्टि से देखते हैं तो वहाँ सामान्य प्रतिभास होता है, विशेष दृष्टि से देखते हैं तो वहाँ विशेष प्रतिभास होता है। जैसे सब मनुष्य बैठे हैं सभी वर्ण के, जाति के, धर्म के बैठे हैं उन सबको यदि केवल सामान्य रूप में निरखा जाय तो वहाँ मनुष्य सामान्य नजर आता। और वहाँ कारण वश, प्रयोजनवश में अमुक वर्ण के हैं, ये सेठ हैं, ये बाबू हैं आदिक रूप से देखा जाय तो वही विशेष बन गया। अब उन सब लोगों को छोड़कर सामान्य कुछ अलग बात है क्या। अथवा उन लोगों को छोड़कर विशेष क्या अलग बात है? वह ही सब सामान्य रूप से देखने पर सामान्य है और विशेष रूप से देखने पर विशेष है। सामान्य और विशेष भी पदार्थ से जुदी चीज नहीं है।
समवाय की कल्पना―एक पदार्थ समवाय माना गया है वह भी जुदी चीज है, इसकी कल्पनाएं देखिये थोड़ा सा भी शब्द के माध्यम से भेद का अवसर पाये तो यह भेद में बढ़ जाता है। जीव स्वतंत्र पदार्थ है। गुण स्वतंत्र पदार्थ है क्रिया, सामान्य आदि स्वतंत्र पदार्थ हैं जब ऐसा वैशेषिकों द्वारा मान लिया गया तो वहाँ यह प्रश्न होता है कि जब ये दो पदार्थ जुदे हैं, जीव जुदा हैं, ज्ञान जुदा हैं, तो जैसे यह चौकी जुदी हैं, मैं जीव जुदा हूं, तो मुझमें यह चौकी प्रवेश नहीं कर जाती ऐसे ही जब ज्ञान जुदा मान लिया और जीव जुदा मान लिया तो जीव में ज्ञान क्यों प्रवेश करेगा। उसके समाधान रूप में समवाय नाम का पदार्थ माना है। समवाय नाम है सर्वव्यापी का। उस समवाय के कारण जीव और ज्ञान का अभिन्न संबंध हो जाता हैं। कोई चीज एक बार झूठ कह दी जाय तो उस झूठ को साबित करने के लिये अनेक झंझट उठाने पड़ते हैं। मूल में झंझट यह हुआ कि द्रव्य जुदा हैं, गुण जुदा हैं, पर्याय जुदी हैं तो अब और-और भी मानना पड़ा।
जैनदर्शन की उदारदृष्टि―जैन दर्शन कहता है कि परमार्थ से तो वह सब एक हैं, पर संज्ञा लक्षण प्रयोजन सामान्य आदि व्यवहार धर्म चलाने के लिये द्रव्य गुण पर्याय ये जुदे बताये गये हैं। जैसे मिट्टी का घड़ा है और उस घड़े को फोड़ दिया, खपरियां बन गई तो घड़ा पर्याय कहां गया, किस जगह विलीन हो गया बाहर निकलकर नष्ट हुआ य मिट्टी में अब भी पड़ा हुआ है खपरियां बन जाने पर घड़े की हालत क्या हुई हैं? क्या बतावोगे। घड़ा बाहर भी जाकर नहीं नष्ट हुआ, घड़ा मिट्टी में भी मौजूद नहीं हैं और वह जो कुछ घड़ा कहलाता था वह मैटर घड़े में भी नहीं हैं, ऐसा भी नहीं कह सकते। ऐसा त्रिलक्षणात्मक पदार्थ है कि उसको केवल समझाने के लिये ही अलग बताया जाता हैं। वस्तुत: यह तत्त्व अलग-अलग नहीं हैं। इन समस्त द्रव्यों में गुण और पर्याय द्रव्य से अभिन्न हैं। गुण नाम तो हैं जो अन्वय रूप से रहे और पर्याय नाम हैं जो व्यतिरेक रूप से रहे। हैं ये दोनों वस्तु के विशेष जैसे ज्ञानशक्ति―यह जीव पदार्थ में अनादि से अंतकाल तक सदा एक रूप रही आयी है, और उस ज्ञान में जो परिणमन चलता हैं वह व्यतिरेकी हैं। जो इस समय का ज्ञान है वह अगले समय में नहीं। प्रत्येक समय में भिन्न-भिन्न चलता जाता हैं।
अभावपदार्थ की कल्पना―एक वस्तु का दूसरी वस्तु में अभाव होना जानकर अभावनात्मक पदार्थ की कल्पना भी भेदवाद में होती है, किंतु अभाव कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं हैं। पदार्थ का अपने स्वरूप से ही होना अन्य पदार्थों का अभाव है। समस्त वक्तव्य सप्रतिपक्ष हैं। विवक्षित पदार्थ हैं यह ‘‘है पना’’ अविवक्षित पदार्थों के अभाव का समर्थक है। एक वस्तु में अन्य समग्र वस्तुवों का अभाव उस वस्तु के सद्भावरूप है।
उत्पादव्ययध्रौव्य की एकाधिकरणता―गुण और पर्याय से अभिन्न होने के कारण वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक कहा जाता है। एक पर्याय विलीन हुई, नवीन पर्याय उत्पन्न हुई और वह पर्याय जिस शक्ति में बनती है वह शक्ति अन्वय रूप रहती हैं। सो गुण की दृष्टि से ध्रुव हुई। यों पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक हैं। देखिये पदार्थ में यह स्वरूप पड़ा हुआ हैं कि वह प्रतिसमय नवीन दशा अपनी बना ले और पुरानी दशा को विलीन कर दे, और ऐसा उत्पादव्ययध्रौव्य होकर भी स्वयं का कभी अभाव नहीं होता। जिसमें यह उत्पादव्यय होता हैं वह पदार्थ ध्रुव रहा करें। प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वरूप से हैं, इसका विश्वास हो जाय तो मोह नहीं ठहर सकता हैं। प्रत्येक पदार्थ केवल खुद में ही परिणमता है, दूसरे में नहीं।
मोह का अनवकाश―प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने सत्त्व से सदा सुरक्षित हैं, दूसरे की आशा पर नहीं, ऐसे ही मैं हूं, मैं अपने उपादान में अपनी योग्यता के अनुकूल अपने आपमें परिणमता रहता हूं। मैं किसी अन्य को पहिचानता भी नहीं, यों ही दूसरे पदार्थ भी अपने ही गुणों के वे अपने में ही परिणमते हैं। वे मुझमें नहीं आते, तब मोह किस बात पर करना। तब कोई वस्तु मेरा नहीं है मैं किसी का नहीं हूं। परिणमन स्पष्ट जुदा-जुदा है त्रिकाल भी संबंध हो नहीं सकता। वस्तु के सत्ता के कारण ही यह दृढ़ व्यवस्था हैं, ऐसा परिज्ञान होने पर फिर कैसे माना जा सकता है कि यह पदार्थ इसका हैं। जब स्वरूपसत्त्व स्वतंत्र हैं तो किसी को किसी का कुछ मान लेना यह कभी हो नहीं सकता। प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने ही गुण पर्याय से अभिन्न हैं।
उत्पादव्ययध्रौव्य की अविनाभाविता―पर्याय अलग वस्तु हैं, द्रव्य अलग वस्तु हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि कोई चीज नष्ट हो गयी, कोई दूसरी चीज उत्पन्न हो गयी, कोई दूसरा ध्रुव है तो क्या है, कोई ऐसा पदार्थ जो बने और बिगड़ नहीं और बना रहे? है क्या कोई ऐसा पदार्थ जो बना रहे, और बने बिगड़े नहीं? बनना, बिगड़ना, बना रहना इन तीनों का अविनाभाव हे। इन तीनों में से कोई एक न माना तो बाकी दो भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं। तो कि सब पदार्थ गुणपर्यायात्मक हैं। यह तो अस्तित्व का अंश सिद्ध किया। अब ये काम क्यों कहलाते हैं दूसरी बात सुनिये।
प्रदेश की दृष्टि और अस्तिकायत्व की सिद्धि―ये 5 काय क्यों कहलाते हैं। इन 5 पदार्थों के जो अवयव हैं, अविभागी अंश हैं, प्रदेश हैं वे प्रदेश यद्यपि न्यारी-न्यारी सत्ता लिए हुए नहीं हैं, लेकिन एक-एक प्रदेश को न्यारा-न्यारा ज्ञान में न लेने पर असंख्यात प्रदेश कैसे कहेंगे। जीव में असंख्यात प्रदेश हैं, तो असंख्यात की किसी रूप में भी गणना तो तब सिद्ध होगी जब इतना जान लिया कि एक इतना है, एक यह है और ये सब मिलकर असंख्यात हैं। देखिये निश्चय और व्यवहार का कैसा संबंध उपयोग में रखना पड़ता है। निश्चय से पदार्थ अखंड है, उसमें असंख्यात प्रदेश और अवयव नहीं हैं, पर दिखता है कि पदार्थ दोनों में पड़ा है तो प्रदेश अवयव हैं। वे प्रदेश परस्पर व्यतिरेकी भी है। जैसे दृष्टांत के लिए एक चौकी लो। यह डेढ़ फिट लंबी चौड़ी, इसमें एक-एक सूत स्थान कितने पड़े हैं। तो मान लो कि हजारों लाखों हो गए। अब एक सूत स्थान सूत दूसरे सूत वाले स्थान से जुदा है कि नहीं? है। अगर उन प्रत्येक सूतों को व्यतिरेकी न मानें तो सारी चौकी एक सूत बराबर कहलायेगी। यह सारी चौकी मान लो हजार सूत प्रमाण है तो यह तब ही बन सकती है जबकि प्रत्येक सूत व्यतिरेकी हो, जुदा-जुदा हो। ऐसे ही आत्मा असंख्यात प्रदेशी है तो उसके प्रत्येक प्रदेश जुदे-जुदे हैं, फिर भी सत्व जुदा नहीं है वह सब एक अखंड द्रव्य हैं। ऐसा उन असंख्यात प्रदेशों का द्रव्य जीव है, यों जीव कायवान होता है। जो पदार्थ अस्ति है और कायवान है उसे अस्तिकाय कहते हैं। इन अस्तिकायों का वर्णन इस ग्रंथ में मोह हटाने के लिए किया जा रहा है कि हम उन पदार्थों की स्वतंत्रता जाने और इस ज्ञानबल से हम पर से मोह हटाकर अपने आपके स्वरूप में मग्न रहा करें।
आत्मश्रद्धान―पदार्थों के स्वरूप का वर्णन चल रहा है। जीव का कल्याण पदार्थ के यथार्थस्वरूप के ज्ञान से ही होगा। जीव को शांति का उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। जो पदार्थ जिस रूप से हैं उन पदार्थों के रूप से श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है। जैसे यह मैं आत्मा अमूर्त ज्ञान दर्शन शक्ति आनंद का पिंड सबसे न्यारा सत् हूं। यह ही अनेक परमाणुवों से मिलकर बना हुआ स्कंध है। यह देह विघट जायगा, यह मैं आत्मा अखंड सदा अपने ही स्वरूप रहने वाला हूं। जगत में जो भी जीव दिखते हैं उन सबकी यही परिस्थिति है। उनमें रहने वाला जीव ज्ञानानंदपुंज है। और यह दृश्यमान शरीर अनंत पुद्गल परमाणुवों का पिंड है। शरीर से यह जीव अत्यंत न्यारा है। मुझसे सब जीव और समस्त पुद्गल धर्मादिक द्रव्य सब न्यारे है। मैं अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सत् हूं। परिपूर्ण हूं, अपने ही स्वरूप से अपने में परिणमता रहता हूं। ऐसी स्थिति प्रत्येक पदार्थ की है। ऐसा सत्य श्रद्धान होता है तो परपदार्थों से मोह दूर होता है।
मोहसंकट―जीव को जितनी भी परेशानी है वह सब मोह की परेशानी है अन्यथा सोचो आज जीवन है, अचानक मरण हो गया तब यहाँ की क्या कोई चीज अपने काम आयगी? अरे यहाँ का सब ठाठ भूल जायगा। जहां अगले भव में जावेंगे वहाँ के आश्रय से विकल्प चलेंगे। यहाँ तो व्यर्थ ही विकल्प बनाकर दु:खी होते हैं। सम्यग्ज्ञान में यह प्रताप है कि परपदार्थों को पर और निज को निज जानने के कारण मोह का संकट नहीं रहता है।
वस्तु का पुन: निर्देशन―वस्तु स्वरूप का यह संक्षिप्त वर्णन चल रहा है। पदार्थ 6 जाति के होते हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। जिसमें जानने देखने की शक्ति है, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है वह तो जीव द्रव्य है। जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाया जाता है वे सब पुद्गल द्रव्य हैं। चाहे कोई पुद्गल दिखने में आये अथवा न आये, सूक्ष्म हो अथवा स्थूल हो, जितने भी पुद्गल है वे सब रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले हैं। जीव और पुद्गल के गमन कने में जो सहायक सत् है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं। यहाँ धर्मद्रव्य से मतलब पुण्य से नहीं है, धर्म करने से नहीं है, किंतु धर्म नाम का एक ऐसा द्रव्य है कि जो न हो तो जीव पुद्गल को गमन नहीं मिलता है। जैसे मछली के चलने में जल सहायक है, जल जबरदस्ती मछली को चलाता नहीं है, पर मछली चले तो उसमें जल कारण है। ऐसे ही हम लोगों को यह धर्मद्रव्य जबरदस्ती चलाता नहीं है, पर हम लोग चले तो यह धर्मद्रव्य सहायक है। धर्मद्रव्य रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है, इस कारण किसी इंद्रिय के द्वारा ज्ञात नहीं होता है। किंतु, वीतराग ऋषिसंतों ने यह सब सूक्ष्म तत्त्व भी बताया है और आजकल वैज्ञानिक लोग भी ऐसा अनुमान करते हैं कि आकाश में ऐसे सूक्ष्म तत्त्व हैं जिनसे चलने को मार्ग मिलता है। उनके तरंग है। उनके आश्रय से चला करते हैं, वह धर्मद्रव्य है और जीव पुद्गल के ठहरने में जो सहायक हो वह अधर्मद्रव्य है। समस्त पदार्थ जिस स्थान में रहें उसका नाम आकाश द्रव्य है, और कालद्रव्य जिसके कारण पदार्थ परिणमता रहे, बदलता रहे उसका नाम कालद्रव्य है।
स्वस्वविस्तार―इन 6 पदार्थों में से काल द्रव्य तो निरवयव है। केवल एक प्रदेशमात्र है। अस्तिकाय नहीं कहलाता है, शेष जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये अस्तिकाय कहलाते हैं। जीव जितने विस्तार में है, जितने घेरे को लिए हुए हम आप अपने में सुख दु:ख का अनुभव करते हैं वह जीव का विस्तार है। उसमें असंख्यात प्रदेश हैं। पुद्गल में जो वास्तविक परमाणु पदार्थ हैं वे तो निरावयव हैं। वे एकप्रदेशी है। उसका विस्तार नहीं है। पर पुद्गल में ऐसी शक्ति है कि वह परमाणु मिल जुलकर एक बड़े स्कंध बन सकते हैं, अन्य द्रव्य आपस में मिलकर स्कंध नहीं बन सकते। जीव-जीव 10, 20, 0 आपस में मिलकर एक पिंड बन जायें सो नहीं बन सकते हैं। सब जीव न्यारे-न्यारे ही रहेंगे। धर्म, अधर्म, आकाश ये भी न्यारे-न्यारे ही रहेंगे। काल तो न्यारा हैं ही। पुद्गल में ऐसी विशेषता है कि बहुत से स्कंध मिलकर एक बड़ा रूप पा लेते हैं। अथवा बहुप्रदेशी होने की शक्ति है इस कारण पुद्गल को अस्तिकाय कहा है।
सावयव में अस्तिकायपना―इस प्रकरण में यह जिज्ञासा हो सकती है कि हमको तो पुद्गल अस्तिकाय मालूम होते हैं क्योंकि कभी परस्पर मिलकर बड़े हो जाते हैं, कभी बिखरकर छोटे हो जाते है। उसमें तो मालूम होता है कि वह अस्तिकाय हैं, किंतु अन्य जो जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, नाम के अमूर्त पदार्थ हैं उनमें बहुप्रदेशी क्या? पुद्गल में तो साफ नजर आता है कि अब यह बड़ा स्कंध हो गया, अब यह छोटा स्कंध रह गया। यहाँ तो अस्तिकाय का होना ठीक जंच रहा है, पर जीव में क्या, जीव तो एक है, वह बहु प्रदेशों का मिलकर कैसे बना? आकाश एक है, अनंतप्रदेशी है उसमें अनंत प्रदेश है। ये कैसे आये समाधान यह है कि यद्यपि वे अमूर्त हैं और उनके प्रदेशों का कभी विभाग भी नहीं हो सकता, फिर भी वे अवयव सहित हैं।
अखंड आकाश में सावयवता―जैसे इतना बड़ा आकाश है वह एक है। आकाश अनेक नहीं हैं, एक है, फिर भी उस आकाश में हिस्सों की कल्पना हो जाती हैं। यह घड़े का आकाश है, यह कमरे का आकाश है। यद्यपि आकाश असीम अनंत हैं, उसमें विभाग बन गए, ऐसे ही यह जीव एक है, फिर भी इसका विस्तार है। देखो ना इस देह में सर्वत्र सुख दु:ख का अनुभव होता है कभी हाथ में फोड़ा फुंसी हो जाय, क्लेश बढ़ जाय तो ऐसा लगता है कि बड़ा कष्ट होता है, पर कष्ट कहां-कहां हो रहा है? इस देह भर में जो आत्मा फैला हुआ है उस संपूर्ण आत्मा में कष्ट हो रहा है। ऐसा नहीं है कि हाथ के क्लेश जो आत्मा के प्रदेश हैं उनमें कष्ट होता हो बाकी जगह कष्ट न होता हो। जीव तो एक अखंड है। वह जो कुछ भी अनुभव करता है अपने में समस्त प्रदेशों में अनुभव करता है। यों ही समस्त अमूर्त द्रव्यों को जान लेना चाहिए। यदि इन अमूर्त पदार्थों में अवयव अंश की कल्पना न की जाय। प्रदेश न माना जाय तो यह एक प्रदेशमात्र रह जायगा। जैसे आकाश का टुकड़ा नहीं होता ठीक है, फिर भी उसमें अंश न माना जाय कि यह घड़े का आकाश है, और यह संदूक का आकाश है तो इसका अर्थ यह है कि जो घड़े का आकाश है वही संदूक का आकाश बन गया। फिर घड़ा क्या रहा, संदूक क्या रहा? तो अविभागी भी पदार्थ में प्रदेश की कल्पना होती है। केवल एक कालाणु काल द्रव्य ही अस्तिकाय नहीं है, बाकी समस्त पदार्थ अस्तिकाय हैं।
धर्मपालन में वस्तुविज्ञान का सहयोग―भैया ! पदार्थ का स्वरूप बताना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि धर्मपालन का साधन वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान है। भगवान से मोक्ष की भीख मांगने से मोक्ष न मिल जायगा। प्रभु से सुख की भीख मांगने से सुख न मिल जायगा, किंतु प्रभु का जो स्वरूप है उस स्वरूप को निरख-निरखकर अपने आपमें अपनी शक्ति का उत्साह बनाया जाय और अपने गुणों का अनुराग किया जाय तो उसमें अपने ही ज्ञान गुण के अनुभव से मोक्ष का मार्ग मिलेगा और अपने ही शुभ परिणामों के अनुसार सुख मिलेगा। भगवान तो हमारे ध्यान में आश्रयभूत हैं। यही उनकी करुणा है पर हम खुद चलें उल्टा, विपरीत श्रद्धा रक्खे। पाप का परिणाम करें और भगवान से रोज अपनी माफी मांगते रहें तो यों माफी नहीं मिलती है। खुद की मलिनता करके किए गए पापों की माफी खुद के निर्मल परिणामों पर ही संभव है। यह सब निर्मलता हमारी तब प्रकट होगी जब हम अपने स्वरूप की ओर झुकें, इससे ही निर्मलता पा सकेंगे। इसी प्रयोजन के अर्थ वस्तु के स्वरूप का वर्णन इस ग्रंथ में किया जा रहा है।
त्रैलोक्य―इन समस्त द्रव्यों से यह तीनलोक बना हुआ है। जैसे एक नगर में हजारों घर हैं उन हजारों घरों को एक समूचे रूप से देखा जाय तो उसका नाम नगर है ऐसे ही अनंत जीव और उनसे भी अनंतगुणे पुद्गल एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य इन सब पदार्थों का जो समूह है उसका नाम तीनलोक है। वह तीनलोक से संपन्न हुआ, तीनलोक के रूप में निष्पन्न हुआ यह समस्त अस्तिकाय है।
वस्तुस्वरूप में स्वातंत्र्य की सिद्धि―ये सभी पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्य करके सहित है जैन सिद्धांत में तत्वार्थसूत्र में बताया है उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्तसत् पर दृष्टि दे तो यह मालूम पड़ेगा कि अन्य समस्त व्याख्यान इस सूत्र का विस्तार है। पंचम अध्याय में एक सूत्र आया है, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तां सत्। सत् किसे कहते हैं, पदार्थ किसे कहते हैं? जो उत्पादव्यय और ध्रौव्य करके सहित हो। इसमें क्या मर्म आया है। जो भी पदार्थ हैं वे अपने स्वरूप के कारण अपने आपमें उत्पन्न होते हैं और अपने ही सत्त्व के कारण पुरातन पर्याय को विलीन कर देते हैं, और अपने सत्त्व से सदा ध्रुव बने रहते हैं, यह पदार्थ में उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्त होने का परिणाम पाया जाता है, स्वरूप पाया जाता है, अब कोई भी पदार्थ एक भी समय बिना परिणमे रहेगा नहीं, प्रतिसमय परिणमते रहते हैं। तब बतलावो दूसरा कैसे परिणमायेगा? प्रत्येक पदार्थ में खुद के परिणमन का सामर्थ्य बसा हुआ है इस कारण कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ को परिणमा ही नहीं सकता है। कितनी स्वतंत्रता है, हम आप कितने निर्लेप हैं। किसी भी वस्तु से कुछ संबंध नहीं है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से है पर के स्वरूप से नहीं है मेरा अस्तित्व मेरे में ही है, पर का स्वरूप पर में ही है, कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का स्वामी नहीं हो सकता। जब प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव से निरंतर परिणमते रहते हैं तब मैं किसी पदार्थ को परिणमाने वाला कैसे हूं। मैं अपने आपका ही कुछ से कुछ बन सकता हूं, किसी दूसरे पदार्थ का मैं कुछ भी नहीं बन सकता। हाँ कोई किसी दूसरे के परिणमाने में निमित्त भले ही हो जायें पर कोई भी पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का कुछ करने वाला नहीं है।
धर्मार्थ जीवन―भैया ! पूर्वकृत पुण्य के उदय से आज जो कुछ वैभव मिला है, सामग्री मिली है तो इसमें मोह ममता का हो जाना यह तो इस जीवन पर बड़ी विपदा लाना है। यह धन वैभव तो पुण्य के उदय से आता है। न हो किसी के पुण्य के उदय तो कितने भी विकल्प मचा डाले पर धन वैभव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ज्ञानी जीव को किसी भी बात का कभी विकल्प नहीं होता है उसने तो अपना सारा जीवन धर्म साधना के लिए माना है, बाह्य वस्तुओं के विकल्प के लिए उसने अपना जीवन नहीं माना है। यह प्रभु अरहंत देव जिनकी हम आप मूर्ति बनाकर पूजते हैं उन्होंने भी समस्त प्रकार के पर के विकल्प का परित्याग कर अपने को आकिंचन्य स्वरूप निरखा था। यही पाठ सीखने के लिए तो हम आप उन अरहंत प्रभु की मूर्ति बनाकर उसकी स्थापना करके पूजते हैं।
मूर्ति का माध्यम―मूर्ति स्वयं भगवान नहीं है, उसमें तो प्रभु के गुणों का एक संकेत है, जैसे कागज के नोट चलते हैं तो उस कागज का कुछ भी मूल्य नहीं है मूल्य तो उस चिन्ह का है जो कि उसमें छपा हुआ रहता है। सरकार की विधि में आज उसकी मान्यता चल रही है। हम आप ग्रंथ में ये अक्षर पढ़ते हैं, जो मुख से शब्द बोले जाते हैं उनकी यह मूर्ति है, उनकी मूर्ति बना ली गई है, स्थापना हो गयी है। ऐसा आकार बनाया तो उसका नाम अक्षर है, वह अक्षर में मूर्ति है। जितने शब्द हम आप बोलते है स्वर और व्यंजन वहाँ मूर्ति ये अक्षर हैं, तो मूर्ति के बिना किसी का काम भी नहीं चल पाता है। हम आप लोग साधुसंतों की फोटो उतार लेते हैं। वह उनकी मूर्ति हैं, उससे पहिचान होती है कि यह अमुक साधु हैं। तो व्यवहार में किसी न किसी रूप में यथार्थ बहुत की मूर्ति हो जाती है।
प्रभुत्व―निज भगवान की इस मूर्ति में स्थापना की गई है वह भगवान क्या है? केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनंत सुख और अनंत शक्ति के पिंड हैं। हम जिसे चाहें उसे भगवान मान लें तो ऐसा कैसे हो सकता है। जिसके ध्यान करने से जिसके स्मरण करने से रागद्वेष दूर हो उस भगवान की मान्यता से लाभ हैं और जिसके स्मरण से रागद्वेष बढ़े उसके भगवान मानने से क्या लाभ है? प्रभु का स्वरूप स्वयं समता का पुंज हैं। उनके ध्यान से समता का पाठ मिलता है वह प्रभु शुद्ध गुण शुद्ध पर्याय के पिंड हैं।
निजास्तिकाय का सुप्रतिबोध―प्रत्येक पदार्थ अपनी शक्ति और अपनी पर्याय में तन्मय हैं। ये सब अस्तिकाय हैं। इस जीव का पता अपने को बहुत जल्दी हो जाता है, पर धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य इनका पता नहीं पड़ सकता है। कारण कि ये अमूर्त हैं और यह मैं आत्मा अमूर्त हूं पर मैं खुद हूं ना, मेरी बात मुझ पर ही बीतती है, और मैं खुद, खुद को ही न जान पाऊँ यह कैसे होगा। हम अपने आपमें यह बराबर देख रहे हैं कि हम इतने बड़े विस्तार वाले हैं अस्तिकाय है ऐसा धर्म और अधर्म तथा आकाशद्रव्य अस्तिकाय है।
जीव की विस्तारशक्ति और अस्तिकायों का निर्देश―जीव कितना बड़ा है प्रदेश की दृष्टि से? तो अनुमान कर लीजिये। चींटी के शरीर में जीव पहुंच गया तो उस समय भी उतना ही बड़ा है। एक स्थिति होती है सयोगकेवली भगवान की केवली समुद्घात में लोकपूरण की स्थिति। जिस समय भगवान के प्रदेश समस्त लोकाकाश में पूर्ण व्यापकर फैल जाते हैं तब समझा ओह ! यह जीव कितने विस्तार वाला है―असंख्यात प्रदेशी है, और पुद्गल द्रव्य में तो इसके स्कंधों को देखकर यह अंदाज हो जाता है कि यह इतने बड़े विस्तार वाला है, अस्तिकाय है। यों अस्तिकाय के प्रकरण में अस्ति और काय का अर्थ बताया गया है। जो हो उसे अस्ति कहते हैं और जो प्रदेश प्रचयात्मक हो उसे काय कहते हैं। जीव और पुद्गल दोनों अस्तिकाय है। धर्म, अधर्म और आकाश भी अस्तिकाय है।
संकटहरण सम्यक् दर्शन―जो पदार्थ जैसा है वैसा ही मान लो तो आज ही सारे संकट खतम है। यह मैं आत्मा त्रिकाल समस्त पदार्थों से न्यारा हूं। जिस समय यह मोही जीव सारे पदार्थों को अपना ही मान रहा है उस समय भरी सारे पदार्थों से यह न्यारा है। जब यह जीव सम्यक् परिज्ञान करके समस्त पर पदार्थों से अपने को न्यारा निरखता है उस समय भी यह जीव निर्मल है और जब सर्व कर्मबंधन से छूटकर केवल एक असंपृक्त रह गया तब भी यह जीव निर्मल है यह जीव धन वैभव इत्यादि समस्त पर से न्यारा है देह तक से भी न्यारा है। यों मैं सबसे न्यारा हूं ऐसा अकिंचन ज्ञानमात्र अपने आपको अनुभव करेंगे तो शांति मिलेगी। पुण्य बढ़ेगा, जो-जो बात सोच रक्खी हों उन सबसे न्यारे अपने को आकिंचन्यस्वरूप ज्ञानमात्र निरखने से सारी सिद्धि हो जाती है:―