वैराग्य: Difference between revisions
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रा.वा./७/१२/४/५३९/१३ <span class="SanskritText">विरागस्य भावः कर्म वा वैराग्यम् </span>= <span class="HindiText">(विषयों से विरक्त होना विराग है । | रा.वा./७/१२/४/५३९/१३ <span class="SanskritText">विरागस्य भावः कर्म वा वैराग्यम् </span>= <span class="HindiText">(विषयों से विरक्त होना विराग है । देखें - [[ विराग | विराग ]]) विराग का भाव या कर्म वैराग्य है । </span><br /> | ||
द्र.स./टी./३५/११२/८ पर उद्धृत-<span class="PrakritText">संसारदेहभोगेसु विरत्तभावो य वैरग्गं । </span>= <span class="HindiText">संसार देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है । <br /> | द्र.स./टी./३५/११२/८ पर उद्धृत-<span class="PrakritText">संसारदेहभोगेसु विरत्तभावो य वैरग्गं । </span>= <span class="HindiText">संसार देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है । <br /> | ||
देखें - [[ सामायिक#1 | सामायिक / १ ]] । (माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परमशान्ति, ये सब एकार्थवाची हैं ।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ</strong> </span><br /> | ||
त.सू./७/१२ <span class="SanskritText">जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।१२। </span><br /> | त.सू./७/१२ <span class="SanskritText">जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।१२। </span><br /> | ||
स.सि./७/१२/३५०/५<span class="SanskritText"> जगत्स्वभावस्तावदनादिरनिधनो वेत्रासनझल्लरीमृदङ्गनिभः । अत्र जीवा अनादिसंसारेऽनन्त-कालं नानायोनिषु दुःखं भोजं भोजं पर्यटन्ति । न चात्र किंचिन्नयतमस्ति जलबुद्बुदापमं जीवितम्, विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसंपद इति । एवमादिजगत्स्वभावचिन्तनात्संसारात्संवेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारता अशुचित्वमिति । एवमादिकायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तेर्वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यौ ।</span> = <span class="HindiText">संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए ।१२। जगत् का स्वभाव यथा-यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के समान है ( | स.सि./७/१२/३५०/५<span class="SanskritText"> जगत्स्वभावस्तावदनादिरनिधनो वेत्रासनझल्लरीमृदङ्गनिभः । अत्र जीवा अनादिसंसारेऽनन्त-कालं नानायोनिषु दुःखं भोजं भोजं पर्यटन्ति । न चात्र किंचिन्नयतमस्ति जलबुद्बुदापमं जीवितम्, विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसंपद इति । एवमादिजगत्स्वभावचिन्तनात्संसारात्संवेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारता अशुचित्वमिति । एवमादिकायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तेर्वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यौ ।</span> = <span class="HindiText">संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए ।१२। जगत् का स्वभाव यथा-यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के समान है ( देखें - [[ लोक#2 | लोक / २ ]]) । इस अनादि संसार में जीव अनन्त काल तक नाना योनियों में दुःख को पुनः पुनः भोगते हुए भ्रमण करते हैं । इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है । जीव जल के बुलबुले के समान है और भोग सम्पदाएँ बिजली और इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं । इत्यादिरूप से जगत् के स्वभाव का चिन्तन करने से संसार में संवेग या भय उत्पन्न होता है । काय का स्वभाव यथा<strong>–</strong>यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है और अशुचि है इत्यादि । इस प्रकार काय के स्वभाव का चिन्तन करने से विषयों से आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अतः जगत् और काय के स्वभाव की भावना करनी चाहिए । (रा.वा./७/१२/४/५३९/१५) । <br /> | ||
देखें - [[ अनुप्रेक्षा | अनुप्रेक्षा ]]–(अनित्य अशरण आदि १२ भावनाओं का पुनः पुनः चिन्तवन करना वैराग्य के अर्थ होता है । इसीलिए वे १२ वैराग्य भावना कहलाती हैं) । <br /> | |||
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Revision as of 00:20, 28 February 2015
- वैराग्य
रा.वा./७/१२/४/५३९/१३ विरागस्य भावः कर्म वा वैराग्यम् = (विषयों से विरक्त होना विराग है । देखें - विराग ) विराग का भाव या कर्म वैराग्य है ।
द्र.स./टी./३५/११२/८ पर उद्धृत-संसारदेहभोगेसु विरत्तभावो य वैरग्गं । = संसार देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है ।
देखें - सामायिक / १ । (माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परमशान्ति, ये सब एकार्थवाची हैं ।)
- वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ
त.सू./७/१२ जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ।१२।
स.सि./७/१२/३५०/५ जगत्स्वभावस्तावदनादिरनिधनो वेत्रासनझल्लरीमृदङ्गनिभः । अत्र जीवा अनादिसंसारेऽनन्त-कालं नानायोनिषु दुःखं भोजं भोजं पर्यटन्ति । न चात्र किंचिन्नयतमस्ति जलबुद्बुदापमं जीवितम्, विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसंपद इति । एवमादिजगत्स्वभावचिन्तनात्संसारात्संवेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारता अशुचित्वमिति । एवमादिकायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तेर्वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यौ । = संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए ।१२। जगत् का स्वभाव यथा-यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के समान है ( देखें - लोक / २ ) । इस अनादि संसार में जीव अनन्त काल तक नाना योनियों में दुःख को पुनः पुनः भोगते हुए भ्रमण करते हैं । इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है । जीव जल के बुलबुले के समान है और भोग सम्पदाएँ बिजली और इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं । इत्यादिरूप से जगत् के स्वभाव का चिन्तन करने से संसार में संवेग या भय उत्पन्न होता है । काय का स्वभाव यथा–यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है और अशुचि है इत्यादि । इस प्रकार काय के स्वभाव का चिन्तन करने से विषयों से आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अतः जगत् और काय के स्वभाव की भावना करनी चाहिए । (रा.वा./७/१२/४/५३९/१५) ।
देखें - अनुप्रेक्षा –(अनित्य अशरण आदि १२ भावनाओं का पुनः पुनः चिन्तवन करना वैराग्य के अर्थ होता है । इसीलिए वे १२ वैराग्य भावना कहलाती हैं) ।
- सम्यग्दृष्टी विरागी है– देखें - राग / ६ ।