अति संक्लेश विशुद्ध शुद्ध पुनि
From जैनकोष
अति संक्लेश विशुद्ध शुद्ध पुनि, त्रिविध जीव परिनाम बखाने ।।टेक ।।
तीव्र कषाय उदय तैं भावित, दर्वित हिंसादिक अघ ठाने ।
सो संक्लेश भावफल नरकादिक गति दुख भोगत असहाने ।।१ ।।
शुभ उपयोग कारनन में जो, रागकषाय मंद उदयाने ।
सो विशुद्ध तसु फल इंद्रादिक, विभव समाज सकल परमाने ।।२ ।।
परकारन मोहादिकतैं च्युत, दरसन ज्ञान चरन रस पाने ।
सो है शुद्ध भाव तसु फलतैं, पहुँचत परमानंद ठिकाने ।।३ ।।
इनमें जुगल बंधके कारन, परद्रव्याश्रित हेयप्रमाने ।
`भागचन्द' स्वसमय निज हित लखि, तामैं रम रहिये भ्रम हाने ।।४ ।।