इन्द्रिय, मन व योग सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान
From जैनकोष
- इन्द्रिय, मन व योग सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान
- द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा पञ्चेन्द्रियत्व है, भावेन्द्रियों की अपेक्षा नहीं
रा.वा./१/३०/९/९२/१४ आर्षं हि सयोग्ययोगिकेवलिनो: पञ्चेन्द्रियत्वं द्रव्येन्द्रियं प्रति उक्तं न भावेन्द्रियं प्रति। यदि हि भावेन्द्रियमभविष्यत्, अपि तु तर्हि असंक्षीणसकलावरणत्वात् सर्वज्ञतैवास्य न्यवर्तिष्यम् ।=आगम में सयोगी और अयोगी केवली को पञ्चेन्द्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येन्द्रियों की विवक्षा है, ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप भावेन्द्रियों की नहीं। यदि भावेन्द्रियों की विवक्षा होती तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती थी।
ध./१/१,१/३७/२६३/५ केवलिनां निर्मूलतो विनष्टान्तरङ्गेन्द्रियाणां प्रहतबाह्येन्द्रियव्यापाराणां भावेन्द्रियजनितद्रव्येन्द्रियसत्त्वापेक्षया पञ्चेन्द्रियत्वप्रतिपादनात् ।=केवलियों के यद्यपि भावेन्द्रियाँ समूल नष्ट हो गयी है, और बाह्य इन्द्रियों का व्यापार भी बन्द हो गया है, तो भी (छद्मस्थ अवस्था में) भावेन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न हुर्इ द्रव्येन्द्रियों के सद्भाव की अपेक्षा उन्हें पञ्चेन्द्रिय कहा गया है।
गो.जी./जी.प्र./७०१/११३५/१२ सयोगिजिने भावेन्द्रियं न, द्रव्येन्द्रियापेक्षया षट्पर्याप्तय:।=सयोगी जिनविषैं भावेन्द्रिय तौ है नाहीं, द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्ति हैं।
- जातिनाम कर्मोदय की अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय हैं
ध.१/१,१,३९/२६४/२ पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्पञ्चेन्द्रिय:। समस्ति च केवलिनां....पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदय:। निरवद्यत्वात् व्याख्यानमिदं समाश्रयणीयम् ।=पञ्चेन्द्रिय नामकर्म के उदय से पञ्चेन्द्रिय जीव होते हैं। व्याख्यान के अनुसार केवली के भी....पञ्चेन्द्रिय जाति नामकर्म का उदय होता है। अत: यह व्याख्यान निर्दोष है। अतएव इसका आश्रय करना चाहिए। (ध.७/२,१,९/१६/५)
- पञ्चेन्द्रिय कहना उपचार है
ध.१/१,१,३७/२६३/५ केवलिनां... पञ्चेन्द्रियत्व...भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणाद्वा। =केवली को भूतपूर्व का ज्ञान कराने वाले न्याय के आश्रय से पञ्चेन्द्रिय कहा है।
ध.७/२,१,१५/६७/३ एइंदियादीणमोदइयो भावो वत्तव्वो, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण एइंदियादिभावोवलंभा। जदि एवं ण इच्छिज्जदि तो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं ण लब्भदे, खीणावरणे पंचण्हमिंदियाणं खओवसमा भावा। ण च तेसिं पंचिंदियत्ताभावो पंचिंदिएसु समुग्घादपदेण असंखेज्जेषु भागेसु सव्वलोगे वा त्ति सुत्तविरोहादो। एत्थ परिहारो वुच्चदेखें - सजोगिअजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तजुज्जदि त्ति जीवट्ठाणे पि उववण्णं। किंतु खुद्दाबंधे सजोगि -अजोगिजिणाणं सुद्धणएणाणिंदियाणं पंचिंदियत्तं जदि इच्छिज्जदि तो ववहारणएण वत्तव्वं। तं जहा-पंचसु जाईसु जाणि पडिबद्धाणि पंच इंदियाणि ताणि खओवसमियाणि त्ति काऊण उवयारेण पंच वि जादीओ खओवसमियाओ त्ति कट्टु सजोगि-अजोगिजिणाणं खओवसमियं पंचिंदियत्तं जुज्जदे। अधवा खीणावरणे णट्ठे वि पंचिंदियखओवसमे खओवसमजणिद णं पंचण्ह वज्झिंदियाणमुवयारेण लद्धखओवसमण्णाणमत्थित्तदंसणादो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिंदियत्तं साहेयव्वं।=प्रश्न—एकेन्द्रियादि को औदयिक भाव कहना चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रिय जाति आदिक नामकर्म के उदय से एकेन्द्रियादिक भाव पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जायेगा तो सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेन्द्रिय भाव नहीं पाया जायेगा, क्योंकि, उनके आवरण के क्षीण हो जाने पर पाँचों इन्द्रियों के क्षयोपशम का भी अभाव हो गया है। और सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेन्द्रियत्व का अभाव होता नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर ‘‘पञ्चेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा समुद्घातपदके द्वारा लोक के असंख्यात बहुभागों में अथवा सर्वलोक में जीवों का अस्तित्व है’’ इस सूत्र से विरोध आ जायेगा? उत्तर—यहाँ उक्त शंका का परिहार करते हैं...सयोगी और अयोगी जिनों का पञ्चेन्द्रियत्व योग्य होता है, ऐसा जीवस्थान खण्ड में स्वीकार किया गया है। (ष.खं./१/१,१/सू.३७/२६२) किन्तु इस क्षुद्रकबंध खण्ड में शुद्ध नय से अनिन्द्रिय कहे जाने वाले सयोगी और अयोगी जिनों के यदि पञ्चेन्द्रियत्व कहना है, तो वह केवल व्यवहार नय से ही कहा जा सकता है। वह इस प्रकार है—पाँच जातियों में जो क्रमश: पाँच इन्दियाँ सम्बद्ध हैं वे क्षायोपशमिक हैं ऐसा मानकर और उपचार से पाँचों जातियों को भी क्षायोपशमिक स्वीकार करके सयोगी और अयोगी जिनों के क्षायोपशमिक पंचेन्द्रियत्व सिद्ध हो जाता है। अथवा, आवरण के क्षीण होने से पञ्चेन्द्रियों के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने पर भी क्षयोपशम से उत्पन्न और उपचार से क्षायोपशमिक संज्ञा को प्राप्त पाँचों बाह्येन्द्रियों का अस्तित्व पाये जाने से सयोगी और अयोगी जिनों के पञ्चेन्द्रियत्व सिद्ध कर लेना चाहिए।
- भावेन्द्रिय के अभाव सम्बन्धी शंका-समाधान
ध.२/१,१/४४४/५ भाविंदायाभावादो। भाविंदियं णाम पंचण्हमिंदियाणं खओवसमो। ण सो खीणावरणे अत्थि।=सयोगी जिन के भावेन्द्रियाँ नहीं पायी जाती हैं। पाँचों इन्द्रियावरण कर्मों के क्षयोपशम को भावेन्द्रियाँ कहते हैं। परन्तु जिनका आवरण समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता। (ध./२/१,१/६५८/४)
- केवली के मन उपचार से होता है
ध.१/१,१,५२/२८५/३ उपचारतस्तयोस्तत: समुत्पत्तिविधानात् ।=उपचार से मन के द्वारा (केवली के) उन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है।
गो.जी./मू./२२८ मणसहियाणं वयणं दिट्ठं तप्पुव्वमिदि सजोगम्हि। उत्तो मणोवयारेणिंदियणाणेण हीणम्मि।२२८।=इन्दिय ज्ञानियों के वचन मनोयोग पूर्वक देखा जाता है। इन्द्रिय ज्ञान से रहित केवली भगवान् के मुख्यपनैं तो मनोयोग नहीं है, उपचार से कहा है।
- केवली के द्रव्यमन होता है भावमन नहीं
ध.१/१,१,५०/२८४/४ अतीन्द्रियज्ञानत्वान्न केवलीनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनस: सत्त्वात् । प्रश्न—केवली के अतीन्द्रिय ज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया जाता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उनके द्रव्य मन का सद्भाव पाया जाता है।
- तहाँ मन का भावात्मक कार्य नहीं होता, पर परिस्पन्दनरूप द्रव्यात्मक कार्य होता है
ध.१/१,१,५०/२८४/५ भवतु द्रव्यमनस: सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्याभाव:, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोऽस्त्येव तस्य प्रतिबन्धकत्वाभावात् । तेनात्मनो योग: मनोयोग:। विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्न: किमिति स्वकार्यं न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणक्षयोपशमाभावात् । प्रश्न—केवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा आवे, परन्तु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है? उत्तर—द्रव्यमन के कार्यरूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव भले ही रहा आवे, परन्तु द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि, द्रव्य मन की वर्गणाओं को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं पाया जाता है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उस मन के निमित्त से जो आत्मा का परिस्पन्दरूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। प्रश्न—केवली के द्रव्यमन को उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, केवली के मानसिक ज्ञान के सहकारी कारणरूप क्षयोपशम का अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता है। (ध.१/१,१,२२/३६७-३६८/७); (गो.जी./मू. व जी.प्र./२२९)।
- भावमन के अभाव में वचन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है
ध.१/१,१,१२३/३६८/३ तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् । अक्रमज्ञानात्कथं क्रमवतां वचनानामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयाक्रमज्ञानसमवेतकुम्भकाराद्घंटस्य क्रमेणोत्पत्त्युपलम्भात् । मनोयोगाभावे सूत्रेण सह विरोध: स्यादिति चेन्न, मन:कार्यप्रथमचतुर्थवचसो: सत्त्वापेक्षयोपचारेण तत्सत्त्वोपदेशात् । जीवप्रदेशपरिस्पन्दहेतुनोकर्मजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया वा तत्सत्त्वान्न विरोध:।=प्रश्न—अरहन्त परमेष्ठी में मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं। प्रश्न—अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर—नहीं, क्योंकि, घट विषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुम्भकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। प्रश्न—सयोगि केवली के मनोयोग का अभाव मानने पर ‘‘सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलित्ति। (ष.ख./१/१,१/५०/२८२) इस सूत्र के साथ विरोध आ जायेगा? उत्तर—नहीं, क्योंकि, मन के कार्यरूप प्रथम और चतुर्थ भाषा के सद्भाव की अपेक्षा उपचार से मन के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। अथवा, जीवप्रदेशों के परिस्पन्द के कारणरूप मनोवर्गणारूप नोकर्म से उत्पन्न हुई शक्ति के अस्तित्व की अपेक्षा सयोगि केवली के मन का सद्भाव पाया जाता है ऐसा मान लेने में भी कोई विरोध नहीं आता है। (ध.१/१,१,५०/२८५/२) (ध.१/१,१,१२२/३६८/२)।
- मन सहित होते हुए भी केवली को संज्ञी क्यों नहीं कहते
ध.१/१,१,१७२/४०८/१० समनस्कत्वात्सयोगिकेवलिनोऽपि संज्ञिन इति चेन्न, तेषां क्षीणावरणानां मनोऽवष्टम्भबलेन बाह्यार्थ ग्रहणाभावतस्तदसत्त्वात् । तर्हि भवन्तु केवलिनोऽसंज्ञिन इति चेन्न, साक्षात्कृतशेषपदार्थानामसंज्ञित्वविरोधात् । असंज्ञिन: केवलिनो मनोऽनपेक्ष्य बाह्यर्थ ग्रहणाद्विकलेन्द्रियवदिति चेद्भवत्येवं यदि मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य निबन्धनमिति चेन्मनसोऽभावाद् बुद्धयतिशयाभाव:, ततो नानन्तरोक्तदोष इति।=प्रश्न—मन सहित होने के कारण सयोगकेवली भी संज्ञी होते हैं? उत्तर—नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से रहित उनके मन के अवलम्बन से बाह्य अर्थ का ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें संज्ञी नहीं कह सकते। प्रश्न—तो केवली असंज्ञी रहे आवें? उत्तर—नहीं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थों को साक्षात् कर लिया है, उन्हें असंज्ञी मानने में विरोध आता है। प्रश्न—केवली असंज्ञी होते हैं, क्योंकि, वे मन की अपेक्षा के बिना ही विकलेन्द्रिय जीवों की तरह बाह्य पदार्थों का ग्रहण करते हैं? उत्तर—यदि मन की अपेक्षा न करके ज्ञान की उत्पत्ति मात्र का आश्रय करके ज्ञानोत्पत्ति असंज्ञीपने की कारण होती तो ऐसा होता। परन्तु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि कदाचित् मन के अभाव से विकलेन्द्रिय जीवों की तरह केवली के बुद्धि के अतिशय का अभाव भी कहा जावेगा। इसलिए केवली के पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता।
- योगों के सद्भाव सम्बन्धी समाधान
स.सि./६/१/३१९/१ क्षयेऽपि त्रिविधवर्गणापेक्ष: सयोगकेवलिन: आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगो वेदितव्य:।=वीर्यान्तराय और ज्ञानवरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगकेवली के जो <a name="5.10" id="5.10">तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश परिस्पन्द होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिए। (ध.१/१,१,/१२३/३६८/१)
ध.१/१,१,२७/२२०/५९) अत्थि लोगपूरणम्हि ट्ठियकेवलीणं।=लोकपूरण समुद्घात में स्थित केवलियों के भी योग प्रतिपादक आगम उपलब्ध है।
- केवली के पर्याप्ति, योग तथा प्राण विषयक प्ररूपणा—
(ध.२/११/४४४.३+४४६.४÷६५८.७+४१९.१६); (गो.जी./जी.प्र./७०१/११३५.१२;७२६/११६२.१)
- द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा पञ्चेन्द्रियत्व है, भावेन्द्रियों की अपेक्षा नहीं
निर्देश |
पर्याप्तापर्याप्त विचार |
प्राण (देखें - उपर्युक्त प्रमाण ) |
पर्याप्ति ( देखें - पर्याप्ति / ३ |
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योग देखें - योग / ४ |
आहारकत्व देखें - आहारक |
पर्याप्तापर्याप्त देखें - नीचे |
सं० |
विवरण |
सं० |
विवरण |
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सयोग केवली— |
|
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सामान्य |
७* |
आहा.,अना |
पर्या., अप. |
४ |
वचन, काय, आयु, श्वास |
६ |
छहों पर्याप्ति,अप. |
||
पर्याप्त |
५* |
आहारक |
पर्याप्त |
४ |
" |
६ |
" पर्याप्ति |
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अपर्याप्त |
२* |
अनाहारक |
अपर्याप्त |
२ |
आयु तथा श्वास |
६ |
" अपर्याप्ति |
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समुद्घात केवली— |
( देखें - केवली / ७ / १२ ,१३) |
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प्र. समय दण्ड |
औदारिक |
आहारक |
पर्याप्त |
३ |
काय, आयु, श्वास |
६ |
छहों पर्याप्ति |
||
द्वि. " कपाट |
औदा.मिश्र |
आहारक |
अपर्याप्त |
२ |
काय तथा आयु |
१ |
आहार पर्याप्ति |
||
तृ॰ " प्रतर |
कार्मण |
अनाहारक |
" |
१ |
आयु |
६ |
छहों अपर्याप्ति |
||
चतु॰ " लोकपूरण |
कार्मण |
" |
" |
१ |
" |
६ |
" " |
||
पंचम " प्रतर |
" |
" |
" |
१ |
" |
६ |
" " |
||
षष्टम " कपाट |
औदा.मिश्र |
आहारक |
" |
२ |
काय, आयु, श्वास |
१ |
आहार पर्याप्ति |
||
सप्तम " दण्ड |
औदारिक |
" |
पर्याप्त |
३ |
काय, आयु, श्वास |
६ |
छहों पर्याप्ति |
||
अष्टम " शरीर प्रवेश |
" |
" |
" |
४ |
वचन, काय, आयु, श्वास |
६ |
" " |
||
अयोग केवली— |
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प्रथम समय |
३* |
आहारक |
पर्याप्त |
६ |
काय, आयु, श्वास(वचन निरोध) |
६ |
छहों पर्याप्ति |
||
अन्तिम समय |
× |
अनाहारक |
" |
१ |
आयु, (श्वास निरोध) |
६ |
" " |
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*—७ योग=सत्य तआ अनुभव मन तथा वचन, औदा. द्विक, कार्मण ५ योग=उक्त २ मन, २ वचन औदारिक काय ३ योग=उक्त २ मन, औदारिक काय २ योग=औदारिक मिश्र तथा कार्मण |
- द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते
ध.२/१,१/४४४/६ अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमपज्जतकाले सत्त पाणा पिंडिदूण दो चेव पाणा भवंति। पंचण्ह दव्वेंदियाणमभावादो। तम्हा सजोगिकेवलिस्स चत्तारि पाणा दो पाणा वा।=प्रश्न—द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा दश प्राण क्यों नहीं कहते? उत्तर—यदि प्राणों में द्रव्येन्द्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि, उनके द्रव्येन्द्रियों का अभाव होता है। अत: यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिन के चार अथवा दो ही प्राण होते हैं। (ध.२/१,१/६५८/५)। - समुद्घातगत केवली को चार प्राण कैसे कहते हो
ध.२/१,१/६५९/१ तेसिं कारणभूद-पज्जत्तीओ अत्थि त्ति पुणो उवरिमछट्ठसमयप्पहुडिं वचि-उस्सासपाणाणं समणा भवदि चत्तारि वि पाणा हवंति।=समुद्घातगत केवली के वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों की कारणभूत वचन और आनपान पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं, इसलिए लोकपूरण समुद्घात के अनन्तर होने वाले प्रतर समुद्घात के पश्चात् उपरिम छठे समय से लेकर आगे वचनबल और श्वासोच्छ्वास प्राणों का सद्भाव हो जाता है, इसलिए सयोगिकेवली के औदारिकमिश्र काययोग में चार प्राण भी होते हैं। - अयोगी के एक आयु प्राण होने का क्या कारण है
ध.२/१,१/४४५/१० आउस-पाणो एक्को चेव। केण कारणेण। ण ताव णाणावरण-खओवसम-लक्खण-पचिंदियपाणा तत्थ संति, खीणावरणे खओवसमाभावादो। आणापाणभासा-मणपाणा वि णत्थि, पज्जत्ति-जणिद-पाण-सण्णिद-सत्ति-अभावादो। ण सरीर-बलपाणो वि अत्थि, सरीरो-दय-जणिद-कम्म-णोकम्मागमाभावादो तदो एक्को चेव प्राणो।=(अयोग केवली के) एक आयु नामक प्राण होता है। प्रश्न—एक आयु प्राण के होने का क्या कारण है? उत्तर—ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमस्वरूप पाँच इन्द्रिय प्राण तो अयोगकेवली के हैं नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय हो जाने पर क्षयोपशम का अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार आनपान, भाषा और मन:प्राण भी उनके नहीं हैं, क्योंकि पर्याप्ति जनित प्राण संज्ञावाली शक्ति का उनके अभाव है। उसी प्रकार उनके कायबल नाम का भी प्राण नहीं है, क्योंकि उनके शरीर नामकर्म के उदय जनितकर्म और नोकर्मों के आगमन का अभाव है। इसलिए अयोगकेवली के एक आयु ही प्राण होता है। ऐसा समझना चाहिए।