ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 131 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुंजदे णियदं । (131)
जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि ॥141॥
अर्थ:
क्योंकि कर्म का फल विषय नियम से स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा सुख-दु:ख रूप में जीव भोगता है, इसलिए कर्म मूर्त है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जम्हा] जिस कारण से [कम्मस्स फलं] उदय में आए कर्म का फल । वह फल कैसा है ? [विसयं] मूर्त पंचेन्द्रिय विषय-रूप है, [भुंजदे] भोगा जाता है, [णियदं] निश्चित । कर्ताभूत किसके द्वारा भोगा जाता है ? [जीवेण] विषयातीत परमात्म-भावना से उत्पन्न सुखामृत रस के आस्वाद से च्युत जीव द्वारा भोगा जाता है । उसके द्वारा किन साधनों से भोगा जाता है ? [फासेहिं] स्पर्शन इन्द्रिय आदि से रहित अमूर्त शुद्धात्म-तत्त्व से विपरीत स्पर्शन आदि मूर्त इन्द्रियों द्वारा भोगा जाता है । वह पंचेन्द्रिय विषय-रूप कर्म-फल और कैसा है ? [सुहदुक्खं] सुख-दु:ख रूप है । यद्यपि शुद्ध-निश्चय से अमूर्त है; तथापि अशुद्ध-निश्चय से पारमार्थिक अमूर्त परमाह्लादमय एक लक्षण निश्चय-सुख से विपरीत होने के कारण वह सुख-दु:ख हर्ष-विषाद रूप मूर्त है । [तम्हा मुत्ताणि कम्माणि] जिस कारण पूर्वोक्त प्रकार से स्पर्श आदि मूर्त पंचेन्द्रिय-रूप मूर्त इन्द्रियों द्वारा भोगा जाता है और स्वयं मूर्त सुख-दु:खादि रूप कर्म, कार्य देखा जाता है; इसलिए 'कारण के समान कार्य होता है;' -- ऐसा मानकर कार्य-रूप अनुमान से कर्म मूर्त हैं, ऐसा ज्ञात होता है, यह सूत्रार्थ है ॥१४१॥
इस प्रकार नैयायिक मत का आश्रय लेने-वाले शिष्य के सम्बोधनार्थ नय-विभाग से पुण्य-पाप दोनों के मूर्तत्व-समर्थन-रूप एक सूत्र द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।