ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 132 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
मुत्तो फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण बन्धमणुहवदि । (132)
जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि ते तेहिं उग्गहदि ॥142॥
अर्थ:
मूर्त मूर्त को स्पर्श करता है, मूर्त मूर्त के साथ बंध का अनुभव करता है / बँधता है; मूर्ति-विरहित-जीव उन्हें अवगाहन देता है और उनके द्वारा अवगाहित होता है ।
समय-व्याख्या:
मूर्तकर्मणोरमूर्तजीवमूर्तकर्मणोश्च बन्धप्रकारसूचनेयम् ।
इह हि संसारिणि जीवेऽनादिसन्तानेन प्रवृत्तमास्ते मूर्तकर्म । तत्स्पर्शादिमत्त्वादागामिमूर्तकर्म स्पृशति, ततस्तन्मूर्तं तेन सह स्नेहगुणवशाद्बन्धमनुभवति । एष मूर्तयोःकर्मणोर्बन्धप्रकारः । अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्मनिमित्तरागादिपरिणामस्निग्धःसन् विशिष्टतया मूर्तानि कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणामैः मूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च । अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्तकर्मणोर्बन्धप्रकारः । एवममूर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापकर्मणा कथञ्चिद्बन्धो न विरुध्यते ॥१३२॥
- इति पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम् ।
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, मूर्त कर्म का मूर्त-कर्म के साथ जो बन्ध-प्रकार तथा अमूर्त जीव का मूर्त-कर्म के साथ जो बन्ध-प्रकार उसकी सूचना है ।
यहाँ (इस लोक में), संसारी जीव में अनादि संतति से (प्रवाह से) प्रवर्तता हुआ मूर्त-कर्म विद्यमान है । वह, स्पर्शादि-वाला होने के कारण, आगामी मूर्त-कर्म को स्पर्श करता है, इसलिये मूर्त ऐसा वह वह उसके साथ, स्निग्धत्व-गुण के वश (अपने स्निग्ध-रूक्षत्व-पर्याय के कारण), बन्ध को प्राप्त होता है । यह, मूर्त-कर्म का मूर्त-कर्म के साथ बन्ध-प्रकार है ।
पुनश्च (अमूर्त जीव का मूर्त-कर्मों के साथ बन्ध-प्रकार इस प्रकार है कि), निश्चय-नय से जो अमूर्त है ऐसा जीव, अनादि मूर्त-कर्म जिसका निमित्त है ऐसे रागादि-परिणाम द्वारा स्निग्ध वर्तता हुआ, मूर्त-कर्मों को विशिष्ट-रूप से अवगाहता है (अर्थात् एक-दूसरे को परिणाम में निमित्त मात्र हों ऐसे सम्बन्ध विशेष सहित मूर्तकर्मों के क्षेत्र में व्याप्त होता है) और उस रागादि-परिणाम के निमित्त से जो अपने (ज्ञानावरणादि) परिणाम को प्राप्त होते हैं ऐसे मूर्त-कर्म भी जीव को विशिष्ट-रूप से अवगाहते हैं (अर्थात् जीव के प्रदेशों के साथ विशिष्टता-पूर्वक एक-क्षेत्रावगाह को प्राप्त होते हैं)। यह, जीव और मूर्त-कर्म का अन्योन्य-अवगाह-स्वरूप बन्ध-प्रकार है । इस प्रकार अमूर्त ऐसे जीव का भी मूर्त पुण्य-पाप कर्म के साथ कथंचित (किसी प्रकार) बन्ध विरोध को प्राप्त नहीं होता ॥१३२॥
इस प्रकार पुण्य-पाप पदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
अब आश्रव-पदार्थ का व्याख्यान है ।