ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 141 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स । (141)
संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स कम्मस्स ॥151॥
अर्थ:
वास्तव में जब जिस विरत के योग में पुण्य-पाप नहीं हैं, तब उनके शुभाशुभ कृत कर्म का संवर होता है ।
समय-व्याख्या:
विशेषेण संवरस्वरूपाख्यानमेतत् ।
यस्य योगिनो विरतस्य सर्वतो निवृत्तस्य योगे वाङ्मनःकायकर्मणि शुभपरिणामरूपंपुण्यमशुभपरिणामरूपं पापञ्च यदा न भवति तस्य तदा शुभाशुभभावकृतस्य द्रव्यकर्मणः संवरः स्वकारणाभावात्प्रसिद्धयति । तदत्र शुभाशुभपरिणामनिरोधो भावपुण्यपापसंवरोद्रव्यपुण्यपापसंवरस्य हेतुः प्रधानोऽवधारणीय इति ॥१४१॥
- इति संवरपदार्थव्याख्यानं समाप्तम् ।
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, विशेष-रूप से संवर का स्वरूप का कथन है ।
जिस योगी को, विरत अर्थात् सर्वथा निवृत्त वर्तते हुए, योग में, वचन, मन और काय सम्बन्धी क्रिया में, शुभ-परिणाम-रूप पुण्य और अशुभ-परिणाम-रूप पाप जब नहीं होते, तब उसे शुभाशुभ-भाव-कृत द्रव्य-कर्म का (शुभाशुभ-भाव जिसका निमित्त होता है ऐसे द्रव्य-कर्म का), स्व-कारण के अभाव के कारण संवर होता है ।
इसलिये यहाँ (इस गाथा में) शुभाशुभ परिणाम का निरोध, भाव-पुण्य-पाप-संवर, द्रव्य-पुण्य-पाप-संवर का १प्रधान हेतु अवधारना (समझना) ॥१४१॥
इस प्रकार संवरपदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
१प्रधान हेतु= मुख्य निमित्त। (द्रव्यसंवर में 'मुख्य निमित्त' जीव के शुभाशुभ परिणाम का निरोध है। योग का निरोध नहीं है। यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि द्रव्यसंवर का उपादान कारण- निश्चय कारण तो पुद्गल स्वयं ही है।)