ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 154 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जो परदव्वम्हि सुहं असुहं रायेण कुणदि जदि भावं । (154)
सो सगचरित्तभट्ठो परचरियचरो हवदि जीवो ॥164॥
अर्थ:
जो (जीव) राग से परद्रव्य में यदि शुभ-अशुभ भाव करता है, तो वह जीव स्वचारित्र से भ्रष्ट परचारित्र रूप आचरण करने वाला होता है ।
समय-व्याख्या:
परचरितप्रवृत्तस्वरूपाख्यानमेतत् ।
यो हि मोहनीयोदयानुवृत्तिवशाद्रज्यमानोपयोगः सन् परद्रव्ये शुभमशुभं वाभावमादधाति, स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरित्रचर इत्युपगीयते; यतो हि स्वद्रव्ये शुद्धोपयोगवृत्तिः स्वचरितं, परद्रव्ये सोपरागोपयोगवृत्तिः परचरितमिति ॥१५४॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, पर-चारित्र में प्रवर्तन करने वाले के स्वरूप का कथन है ।
जो (जीव) वास्तव में मोहनीय के उदय का अनुसरण करने वाली परिणति के वश (अर्थात् मोहनीय के उदय का अनुसरण करके परिणमित होने के कारण) रंजित-उपयोगवाला (उपरक्त उपयोग वाला) वर्तता हुआ, पर-द्रव्य में शुभ या अशुभ भावको धारण करता है, वह (जीव) स्व-चारित्र से भ्रष्ट ऐसा पर-चारित्र का आचरण करने वाला कहा जाता है; क्योंकि वास्तव में स्व-द्रव्य में शुद्ध उपयोग-रूप परिणति वह स्व-चारित्र है और पर-द्रव्य में १सोपराग-उपयोगरूप परिणति वह पर-चारित्र है ॥१५४॥
१सोपराग = उपरागयुक्त्त; उपरक्त; मलिन; विकारी; अशुद्ध (उपयोग में होनेवाला, कर्मोदयरूप उपाधि के अनुरूप विकार अर्थात कर्मोदयरूप उपाधि जिसमें निमित्तभूत होती है ऐसी औपाधिक विकृति) वह उपराग है ।