ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 157 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
चरियं सगं सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा । (157)
दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो ॥167॥
अर्थ:
परद्रव्यात्मक भावों से रहित स्वरूप वाला जो दर्शन-ज्ञान के विकल्प को आत्मा से अविकल्प / अभिन्न रूप आचरण करता है, वह स्वचारित्र का आचरण करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[चरदि] आचरण करता है । किसका आचरण करता है ? [चरियं] चारित्र का आचरण करता है । वह चारित्र कैसा है ? [सगं] स्व का अपना है । [सो] वह पुरुष निरुपराग सदानन्द एक लक्षण निजात्मा के अनुचरण रूप, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, निंदा-प्रशंसा आदि में समता भावना के अनुकूल अपने चारित्र का / स्वचारित्र का आचरण करता है । जो किस विशेषता वाला है ? [जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा] जो परद्रव्यात्मक भाव से रहित स्वरूप वाला है; पंचेन्द्रिय विषयों की अभिलाषा, ममत्व आदि सम्पूर्ण विकल्प-जाल से रहित होने के कारण ममत्व के कारणभूत समस्त बहिरंग परद्रव्यों में उपादेयबुद्धि, आलम्बनबुद्धि, ध्येयबुद्धि रूप से स्वात्मभाव को जोडने / लगाने वाले भाव से रहित है आत्मा अर्थात् स्वभाव जिसका, वह पर-द्रव्यात्मक भाव से रहितात्मा है । जो और क्या करता है ? [दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो] दर्शन-ज्ञान के विकल्प को आत्मा से अविकल्प, अभिन्नरूप आचरण करता है ।
वह इसप्रकार -- पहले सविकल्प अवस्था में 'मैं ज्ञाता हूँ, मैं दृष्टा हूँ' -- ये जो दो विकल्प थे; उन्हें निर्विकल्प-समाधि के समय अनन्त ज्ञानानन्द आदि गुणस्वभावी आत्मा से अभिन्नरूप आचरण करता है, ऐसा सूत्रार्थ है ॥१६७॥
इसप्रकार निर्विकल्प स्वसम्वेदन स्वरूप के ही और भी विशेष व्याख्यान रूप दो गाथायें पूर्ण हुईं ।