ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 158 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । (158)
चिट्ठा तवं हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोत्ति ॥168॥
अर्थ:
धर्मादि का श्रद्धान सम्यक्त्व है; अंग-पूर्वगत ज्ञान, ज्ञान है और तप में चेष्टा / प्रवृत्ति चारित्र है, ऐसा व्यवहार मोक्षमार्ग है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
धर्मादि का श्रद्धान सम्यक्त्व है, उनका अधिगम ज्ञान है और बारह प्रकार के तपों में चेष्टा चारित्र है । यहाँ इनका विस्तार करते हैं वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत जीवादि पदार्थ के विषय में सम्यक् श्रद्धान और ज्ञान -- ये दोनों गृहस्थ और तपोधन / मुनिराज के समान हैं; परंतु चारित्र तपोधनों के आचार आदि चरणानुयोग के ग्रन्थों में बताए गए मार्गानुसार प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थान के योग्य पंच-महाव्रत, पंच-समिति, तीन-गुप्ति, षडावश्यक आदि रूप है; तथा गृहस्थों के उपासकाध्ययन ग्रंथ में बताए गए मार्गानुसार पंचम गुणस्थान के योग्य दान, शील, पूजा, उपवासादि रूप या दार्शनिक, व्रतिक आदि एकादश निलय, स्थान / प्रतिमा रूप है । -- इसप्रकार व्यवहार-मोक्षमार्ग का लक्षण है ।
स्व-पर प्रत्यय रूप पर्याय के आश्रित भिन्न साध्य-साधन भावमय व्यवहार-नय का आश्रय कर ज्ञात होने योग्य यह व्यवहार-मोक्षमार्ग निश्चय-नय से भिन्न साध्य-साधन भाव का अभाव होने से, स्वयं ही निज शुद्धात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान रूप से परिणमन करने वाले भव्य जीव को भी, सुवर्ण-पाषाण को अग्नि के समान निश्चय-मोक्षमार्ग का बहिरंग साधक होता है, ऐसा सूत्रार्थ है ॥१६८॥
इसप्रकार निश्चय-मोक्षमार्ग के साधक व्यवहार-मोक्षमार्ग के कथन रूप से पाँचवें स्थल में गाथा पूर्ण हुई ।