ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 171 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
मग्गप्पभावणट्ठं पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया । (171)
भणियं पवयणसारं पंचत्थीयसंगहं सुत्तं ॥181॥
अर्थ:
प्रवचन की भक्ति से प्रेरित मेरे द्वारा मार्ग प्रभावना के लिए प्रवचन का सारभूत यह 'पंचास्तिकाय-संग्रह' सूत्र कहा गया है ।
समय-व्याख्या:
कर्तुः प्रतिज्ञानिर्व्यूढिसूचिका समापनेयम् ।
मार्गो हि परमवैराग्यकरणप्रवणा पारमेश्वरी परमाज्ञा; तस्याः प्रभावनं प्रख्यापनद्वारेण प्रकृष्टपरिणतिद्वारेण वा समुद्योतनम्; तदर्थमेव परमागमानुराग-वेगप्रचलितमनसा संक्षेपतः समस्तवस्तुतत्त्वसूचकत्वादतिविस्तृतस्यापि प्रवचनस्य सारभूतं पञ्चास्तिकायसंग्रहाभिधानं भगवत्सर्वज्ञोपज्ञत्वात् सूत्रमिदमभिहितं मयेति । अथैवं शास्त्रकारःप्रारब्धस्यान्तमुपगम्यात्यन्तं कृतकृत्यो भूत्वा परमनैष्कर्म्यरूपे शुद्धस्वरूपे विश्रान्त इति श्रद्धीयते ॥१७१॥
इति समयव्याख्यायां नवपदार्थपुरस्सरमोक्षमार्गप्रपञ्चवर्णनो द्वितीयः श्रुतस्कन्धःसमाप्तः ॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, कर्ता की प्रतिज्ञा की पूर्णता सूचितवाली समाप्ति है (अर्थात् यहाँ शास्त्र कर्ता श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य-देव अपनी प्रतिज्ञा की पूर्णता सूचित करते हुए शास्त्र समाप्ति करते हैं) ।
मार्ग अर्थात् परम वैराग्य की ओर ढलती हुई पारमेश्वरी परम आज्ञा (अर्थात् परम वैराग्य करने की परमेश्वर की परम आज्ञा); उसकी प्रभावना अर्थात् प्रख्यापन द्वारा अथवा प्रकृष्ट परिणति द्वारा उसका समुद्योत करना; (परम वैराग्य करने की जिन-भगवान की परम आज्ञा की प्रभावना अर्थात् १. उसकी प्रख्याति-विज्ञापन-करने द्वारा अथवा २. परम-वैराग्यमय प्रकृष्ट परिणमन द्वारा, उसका सम्यक् प्रकार से उद्योत करना) उसके हेतु ही (मार्ग की प्रभावना के लिये ही), परमागम की ओर के अनुराग के वेग से जिसका मन अति चलित होता था ऐसे मैंने यह 'पंचास्तिकाय-संग्रह' नाम का सूत्र कहा -- जो कि भगवान सर्वज्ञ द्वारा उपज्ञ होने से (वीतराग सर्वज्ञ जिन-भगवान ने स्वयं जानकर प्रणीत किया होने से) 'सूत्र' है, और जो संक्षेप से समस्त वस्तु-तत्त्व का (सर्व वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप का) प्रतिपादन करता होने से, अति विस्तृत ऐसे भी प्रवचन के सार-भूत हैं (द्वादशांग-रूप से विस्तीर्ण ऐसे भी जिन-प्रवचन के सार-भूत हैं ) । इस प्रकार शास्त्र-कार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य-देव) प्रारम्भ किये हुए कार्य के अन्त को पाकर, अत्यन्त कृत-कृत्य होकर, परम-नैष्कर्म्य-रूप शुद्ध-स्वरूप में विश्रांत हुए (परम निष्कर्मपनेरूप शुद्ध-स्वरूप में स्थिर हुए) ऐसे श्रद्धे जाते हैं (अर्थात् ऐसी हम श्रद्धा करते हैं) ॥१७१॥
((परिणाम जीव मुत्तं सपदेसं एय खेत किरिया च
णिच्चं कारण कत्ता सव्वगदिदरं हि यप्पवेसो ॥चूलिका॥))
((परिणाम जीव प्रदेश कर्ता नित्य सक्रिय सर्वगत
प्रविष्ट कारण क्षेत्र रूपी एक ये विपरीत युत ॥चूलिका॥))
अपनी शक्ति से जिन्होंने वस्तु का तत्त्व (यथार्थ स्वरूप) भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दों ने यह समय की व्याख्या (अर्थसमय का व्याख्यान अथवा पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्र की टीका) की है; स्वरूपगुप्त (अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूप में गुप्त) अमृतचंद्रसूरि का (उसमें) किंचित् भी कर्तव्य नहीं हैं ॥८॥
इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य-देव प्रणीत श्री पंचास्तिकाय-संग्रह शास्त्र की श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य-देव विरचित) समय-व्याख्या नाम की टीका में नवपदार्थ पूर्वक मोक्ष-मार्ग-प्रपंच वर्णन नामका द्वितीय श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।