ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 17 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो व होदि इदरो वा । ।
उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो ॥17॥
अर्थ:
मनुष्यत्व से नष्ट हुआ देही (शरीरधारी जीव) देव या अन्य रूप में उत्पन्न होता है; (परन्तु) इन दोनों (दशाओं) में जीव भाव नष्ट नहीं हुआ है और अन्य उत्पन्न नहीं हुआ है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब पर्यायार्थिक-नय से उत्पाद-विनाश होने पर भी द्रव्यार्थिकनय से उत्पाद-विनाश नहीं होते हैं; इसका समर्थन करते हैं--
[मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा] देही / संसारी जीव मनुष्य से / मनुष्यपर्याय से नष्ट होता है, विनष्ट होता है, मरता है; पुण्य के वश से देव होता है अथवा अपने कर्मवश उससे भिन्न नारक, तिर्यंच या मनुष्य होता है। [उभयत्त जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो] यहाँ उभयत्र का क्या अर्थ है? मनुष्य-भव में अथवा देव-भव में, पर्यायार्थिक-नय से मनुष्य-भव नष्ट हो जाने पर द्रव्यार्थिक-नय से कुछ नष्ट नहीं होता; उसीप्रकार पर्यायार्थिक-नय से देव पर्याय उत्पन्न होने पर भी द्रव्यार्थिक-नय से कुछ दूसरा अपूर्व उत्पन्न नहीं होता; किन्तु वही रहता है। वह कौन है? वह जीव भाव / जीव पदार्थ है। इसप्रकार पर्यायार्थिक-नय से उत्पाद-व्ययत्व होने पर भी द्रव्यार्थिक-नय से उत्पाद-व्ययत्व नहीं है, यह सिद्ध है ।
इस व्याख्यान द्वारा क्षणिक एकान्त मत और नित्य एकान्त मत का निषेध किया गया है -- यह सूत्रार्थ है ॥१७॥