ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 18 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सो चेव जादि मरणं जादि ण णट्ठो ण चेव उप्पण्णो । ।
उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसोत्ति पज्जाओ ॥18॥
अर्थ:
वही उत्पन्न होता है, वही मरण को प्राप्त होता है; तथापि न वह नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है; देव-मनुष्य आदि पर्यायें ही उत्पन्न होती हैं, नष्ट होती हैं।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब उसी अर्थ को दो नयों द्वारा और भी दृ़ढ करते हैं--
[सो चेव जादि मरणं] वही जीव पदार्थ पर्यायार्थिक-नय की अपेक्षा देव पर्याय रूप से उत्पन्न होता है और वही मरण को प्राप्त होता है। [ण णट्ठो ण चेव उप्पण्णो] तथापि द्रव्यार्थिक-नय से वह न नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है । तब फिर वह कौन नष्ट होता है? कौन उत्पन्न होता है? [उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसोत्ति पज्जाओ] पर्यायार्थिकनय से देव पर्याय उत्पन्न होती है, मनुष्य पर्याय नष्ट होती है ।
यदि उसमें उत्पाद-विनाश होता है तो उसी पदार्थ के नित्यता कैसे है? और यदि नित्यता है तो उसके ही उत्पाद-व्यय दोनों कैसे हैं? शीत-उष्ण के समान यह परस्पर विरुद्ध है ऐसा पूर्वपक्ष (प्रश्न) होने पर परिहार करते हैं -- जिनके मत में सर्वथा एकान्त से वस्तु नित्य है या क्षणिक है, उनके मत में यह दोष है । वह कैसे है? जिस रूप से नित्यता है, उसी रूप से अनित्यता घटित नहीं होती है । जिस रूप से अनित्यता है , उससे ही नित्यता घटित नहीं होती । यह किस कारण घटित नहीं होती है? उनके मत में वस्तु का एक स्वभावत्व होने से यह घटित नहीं होती है। जैन मत में वस्तु अनेक स्वभाव रूप है, उस कारण द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा द्रव्य रूप से नित्यता घटित होती है और पर्यायार्थिक-नय की अपेक्षा पर्याय रूप से अनित्यता घटित होती है। वे द्रव्य और पर्याय परस्पर सापेक्ष हैं और वह सापेक्षता 'पर्याय से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय नहीं है' इत्यादि रूप से पहले (१२वीं गाथा में ) व्याख्यात हो गई होने के कारण द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय का परस्पर गौण-मुख्य भाव से व्याख्यान होने के कारण एक देवदत्त के जन्य जनक / पुत्र-पिता आदि भाव के समान एक ही द्रव्य के नित्यता-अनित्यता घटित होती है, उसमें विरोध नहीं है -- यह सूत्रार्थ है ॥१८॥