ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 20 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ठु अणुबद्धा । ।
तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो ॥20॥
अर्थ:
[ज्ञानावरणाद्याः भावाः] ज्ञानावरणादि भाव [जीवेन] जीव के साथ [सुष्ठु] भलीभाँति [अनुबद्धाः] अनुबद्ध है; [तेषाम् अभावं कृत्वा] उनका अभाव करके वह [अभूतपूर्वः सिद्धः] अभूतपूर्व सिद्ध [भवति] होता है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब यद्यपि शुद्ध द्रव्यार्थिक-नय से शुद्धरूप सर्वदा ही है; तथापि पर्यायार्थिक-नय से सिद्ध का सतत उत्पाद होता है ऐसा आवेदन करते हैं (मर्यादा-पूर्वक ज्ञान कराते हैं); अथवा जो मनुष्य पर्याय-रूप से नष्ट हुआ था, देव पर्याय-रूप से उत्पन्न हुआ था, वही जीव उसी-प्रकार मिथ्यात्व-रागादि परिणामों का अभाव होने से संसार-पर्याय के नष्ट हो जाने पर तथा सिद्ध-पर्याय-रूप से उत्पन्न होने पर भी जीवत्व रूप से नष्ट नहीं हुआ है, दोनों दशाओं में वही जीव है, ऐसा दिखाते हैं; अथवा परस्पर सापेक्ष द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दो नयों द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से अनेकान्तात्मक तत्त्व का प्रतिपादन करके, बाद में संसार अवस्था में ज्ञानावरणादि रूप बंध के कारण-भूत मिथ्यात्व-रागादि परिणाम को छोडकर शुद्ध भावरूप परिणमन से मोक्ष होता है, ऐसा कहते हैं; इसप्रकार तीन पातनिका मन में धारण कर यह गाथा-सूत्र प्रतिपादित करते हैं --
((वे भाव ज्ञानावरण आदि, जीव से अनुबद्ध हैं ।
ये नाश कर उनका अभूतपूर्व, सिद्ध पद को प्राप्त हैं ॥))
[णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ठु अणुबद्धा] ज्ञानावरणादि भाव-द्रव्य-कर्म रूप पर्यायें संसारी जीव के साथ सुष्ठु, संश्लेष रूप से अनादि परम्परा से बद्ध हैं । [तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो] जब कालादि लब्धि के माध्यम से भेदाभेद रत्नत्रयात्मक व्यवहार-निश्चय मोक्षमार्ग को प्राप्त करता है, तब उन ज्ञानावरणादि भावों का, द्रव्य-भाव कर्म रूप पर्यायों का अभाव / विनाश कर पर्यायार्थिक-नय से अभूतपूर्व सिद्ध होता है, द्रव्यार्थिक-नय से पहले से ही सिद्ध रूप है -- ऐसा वार्तिक है ।
वह इसप्रकार -- जैसे एक महान वेणुदण्ड (बाँस) पूर्वार्ध भाग में विचित्र चित्र से खचित / शवलित / मिश्रित है (उसके पूर्वार्ध में अनेक चित्र बने हुए हैं) उससे ऊपर आधे भाग में विचित्र चित्रों का अभाव होने से शुद्ध ही है । वहाँ जब कोई देवदत्त दृष्टि से अवलोकन करता है तो भ्रांति-ज्ञान-वश विचित्र चित्रों के कारण अशुद्ध जानकर उससे ऊपर के आधे भाग में भी अशुद्धता मान लेता है । उसीप्रकार यह जीव व्यवहार से संसार अवस्था में मिथ्यात्व-रागादि विभाव परिणामों के कारण अशुद्ध है, शुद्ध द्रव्यार्थिक-नय द्वारा अन्तरंग में केवल ज्ञानादि स्वरूप से शुद्ध ही है । जब रागादि परिणामों से आविष्ट होता हुआ (रागादि को ही अपना मानता हुआ) सविकल्प-रूप इन्द्रिय-ज्ञान से विचार करता है; तब जैसे बहिर्भाग में (वर्तमान पर्याय में) रागादि से आविष्ट आत्मा को अशुद्ध देखता है; उसीप्रकार अभ्यन्तर में (त्रैकालिक ध्रुवस्वभाव में) भी केवल ज्ञानादि स्वरूप में भी भ्रांति ज्ञान से अशुद्धता मान लेता है। जैसे वेणुदण्ड में भ्रांतिज्ञान का कारण विचित्र चित्रों की मिश्रितता है; उसीप्रकार यहाँ जीव के भ्रांतिज्ञान का कारण मिथ्यात्व-रागादि रूप परिणमन है। जैसे विचित्र चित्रों के प्रक्षालन कर देने पर वेणुदण्ड शुद्ध हो जाता है; उसीप्रकार जब यह जीव भी गुरुओं के निकट शुद्धात्म-स्वरूप के प्रकाशक परमागम को जानता है ।.........?
प्रश्न - उसे कैसा जानता है?
उत्तर - 'मैं एक, निर्मम, शुद्ध, ज्ञानी और योगीन्द्र-गोचर हूँ । इसके अतिरिक्त सभी बाह्य संयोगज भाव मेरे से सदैव भिन्न हैं' इत्यादि रूप से उसे जानता है । उसीप्रकार जल और अग्नि के समान भिन्न लक्षण से लक्षित होने के कारण शरीर और आत्मा का अत्यन्त भेद अनुमान-ज्ञान से जानता है; और उसीप्रकार वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान से जानता है । वह इसप्रकार आगम, अनुमान, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान से शुद्ध होता है । यहाँ अभूतपूर्व सिद्ध-स्वरूप शुद्ध जीवास्तिकाय नामक शुद्धात्म-द्रव्य उपादेय है -- यह तात्पर्यार्थ है ॥२०॥
इसप्रकार तीसरे स्थल में पर्यायार्थिक-नय से सिद्ध के अभूत-पूर्व उत्पाद के व्याख्यान की मुख्यता से गाथा पूर्ण हुई ।