ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 20 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ठु अणुबद्धा । ।
तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो ॥20॥
अर्थ:
[ज्ञानावरणाद्याः भावाः] ज्ञानावरणादि भाव [जीवेन] जीव के साथ [सुष्ठु] भलीभाँति [अनुबद्धाः] अनुबद्ध है; [तेषाम् अभावं कृत्वा] उनका अभाव करके वह [अभूतपूर्वः सिद्धः] अभूतपूर्व सिद्ध [भवति] होता है ।
समय-व्याख्या:
अत्रात्यन्तासदुत्पादत्वं सिद्धस्य निषिद्धम् । यथा स्तोककालान्वयिषु नामकर्मविशेषोदयनिर्वृत्तेषु जीवस्य देवादिपर्यायेष्वेकस्मिन् स्वकारणनिवृत्तौ निवृत्तेऽभूतपूर्व एव चान्यस्मिन्नुत्पन्ने नासदुत्पत्ति:, तथा दीर्घकालान्वयिनि ज्ञानावरणादिकर्मसामान्योदयनिवृत्तसंसारित्वपर्याये भव्यस्य स्वकारणनिवृत्तौ निवृत्ते समुत्पन्ने चाभूतपूर्वे सिद्धत्वपर्याये नासदुत्पत्तिरिति । किं च—यथा द्राघीयसि वेणुदण्डे व्यवहिताव्यवहितविचित्रचित्रकिर्मीरताखचिताधस्तनार्धभागे एकान्तव्यवहितसुविशुद्धोर्ध्वार्धभागेऽवतारिता दृष्टि: समन्ततो विचित्रचित्रकिर्मीरताव्याप्तिं पश्यन्ती समनुमिनोति तस्य सर्वत्राविशुद्धत्वं, तथा क्वचिदपि जीवद्रव्ये व्यवहिताव्यवहितज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरताखचितबहुतराधस्तनभागे एकान्तव्यवहितसुविशुद्धबहुतरोर्ध्वभागेऽवतारिता बुद्धि: समन्ततो ज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरताव्याप्तिं व्यवस्यन्ती समनुमिनोति तस्य सर्वत्राविशुद्धत्वम् । यथा च तत्र वेणुदण्डे व्याप्तिज्ञानाभासनिबन्धनविचित्रचित्रकिर्मीरतान्वय:, तथा च क्वचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरतान्वय: । यथैव च तत्र वेणुदण्डे विचित्रचित्रकिर्मीरतावन्याभावात्सुविशुद्धत्वे, तथैव च क्वचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरतान्वयाभावादाप्तागमसम्यगनुमानातीन्द्रियज्ञानपरिच्छिन्नात्सिद्धत्वमिति ॥२०॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ, सिद्ध को अत्यन्त असत्-उत्पाद का निषेध किया है । (अर्थात सिद्धत्व होने से सर्वथा असत् का उत्पाद नहीं होता -- ऐसा कहा है) ।
जिस प्रकार कुछ समय तक अन्वय-रूप से (साथ-साथ) रहने वाली, नाम-कर्म-विशेष के उदय से उत्पन्न होनेवाली ज देवादि-पर्यायें उनमें से जीव को एक पर्याय स्व-कारण की निवृत्ति होने पर निवृत्त हो तथा अन्य कोई अभूत-पूर्व पर्याय ही उत्पन्न हो, वहाँ असत् की उत्पत्ति नहीं है; उसी प्रकार दीर्घ-काल तक अन्वय-रूप से रहने वाली ज्ञानावरणादि कर्म-सामान्य के उदय से उत्पन्न होनेवाली सन्सारित्व-पर्याय भव्य को स्व-कारण की निवृत्ति होने पर निवृत्त हो और अभूत-पूर्व (पूर्व-काल में नहीं हुई ऐसी) सिद्धत्व-पर्याय उत्पन्न हो, वहाँ असत् की उत्पत्ति नहीं है ।
पुनश्च (विशेष समझाया जाता है ।) :
जिस प्रकार जिसका विचित्र चित्रों से चित्र-विचित्र नीचे का अर्ध-भाग कुछ ढँका हुआ और कुछ बिन ढँका हो तथा सुविशुद्ध (अचित्रित) ऊपर का अर्ध भाग मात्र ढँका हुआ ही हो ऐसे बहुत लंबे बाँस पर दृष्टी डालने से वह दृष्टी सर्वत्र विचित्र चित्रों से हुए चित्र-विचित्र-पने की व्याप्ति का निर्णय करती हुई 'वह बाँस सर्वथा अविशुद्ध है (अर्थात सम्पूर्ण रंग-बिरंगा है)' ऐसा अनुमान करती है; उसीप्रकार जिसका ज्ञानावरणादि कर्मों से हुआ चित्र-विचित्रता-युक्त (विविध विभाव-पर्याय-वाला) बहुत बड़ा नीचे का भाग कुछ ढँका हुआ और कुछ बिन ढँका है तथा सुविशुद्ध (सिद्ध-पर्याय-वाला) बहुत बड़ा ऊपर का भाग मात्र ढँका हुआ ही है ऐसे किसी जीव-द्रव्य में बुद्धि लगाने से वह बुद्धि सर्वत्र ज्ञानावरणादि कर्म से हुए विचित्र-पने की व्याप्ति का निर्णय करती हुई 'वह जीव सर्वत्र अविशुद्ध है (अर्थात सम्पूर्ण संसार-पर्याय वाला है)' ऐसा अनुमान करती है । पुनश्च जिस प्रकार उस बाँस में व्याप्ति-ज्ञानाभास का कारण (नीचे के खुले भाग में) विचित्र चित्रों से हुए चित्र-विचित्र-पने का अन्वय (सन्तति / प्रवाह) है, उसी प्रकार उस जीव-द्रव्य में व्याप्ति-ज्ञानाभास का कारण (नीचे के खुले भाग में) ज्ञानावरणादि कर्म से हुए चित्र-विचित्र-पने का अन्वय है । और जिस प्रकार बाँस में (ऊपर के भाग में) सुविशुद्ध-पना है क्योंकि (वहाँ) विचित्र चित्रों से हुए चित्र-विचित्र-पने के अन्वय का अभाव है, उसी प्रकार उस जीव-द्रव्य में (ऊपर के भाग में) सिद्ध-पना है क्योंकि (वहाँ) ज्ञानावरणादि कर्म से हुए चित्र-विचित्र-पने के अन्वय का अभाव है -- की जो अभाव आप्त-आगम के ज्ञान से सम्यक अनुमान-ज्ञान से और अतीन्द्रिय ज्ञान से ज्ञात होता है ॥२०॥
*पर्व = एक गाँठ से दूसरी गाँठ तक का भाग; पोर