ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 27 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
कम्ममलविप्पमुक्को उड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता । (27)
सो सव्वणाणदरिसी लहइ सुहमणिंदियमणंतं ॥28॥
अर्थ:
कर्ममल से विप्रमुक्त, ऊर्ध्व-लोक के अन्त को प्राप्त वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी आत्मा अनन्त अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करते हैं ।
समय-व्याख्या:
अत्र मुक्तावस्थस्यात्मनो निरुपाधिस्वरूपमुक्तम् । आत्मा हि परद्रव्यत्वात्कर्मरजसा साकल्येन यस्मिन्नेव क्ष्णे मुच्यते तस्मिन्नेवोर्ध्वगमनस्वभावत्वाल्लोकांतमधिगम्य परतो गतिहेतोरभावादवस्थित: केवलज्ञानदर्शनाभ्यां स्वरूपभूतत्वादमुक्तोऽनेतमतीन्द्रियं सुखमनुभवति । मुक्तस्य चास्य भावप्राणधारणलक्षणं जीवत्वं, चिद᳭रूपलक्षणं चेतयितृत्वं, चित्परिणामलक्षणउपयोग:, निर्वर्तितसमस्ताधिकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं, समस्तवस्त्वसाधारणस्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्वं, स्वरूपभूतस्वातन्त्र्यलक्षणसुखोपलम्भरूपं भोक्तृत्वं, अतीतानंतरशरीरपरिमाणावगाहपरिणामरूपं देहमात्रत्वं, उपाधिसंबन्धविविक्तमात्यन्तिकममूर्तत्वम् । कर्म संयुक्तत्वं तु द्रव्यभावकर्मविप्रमोक्षान्न भवत्येव । द्रव्यकर्माणि हि पुद्गलस्कंधा, भावकर्माणि तु चिद्विर्ता: । विवर्तते हि चिच्छफितरनादिज्ञानावरणादिकर्मसंपर्ककूणितप्रचारा परिच्छेद्यस्य विश्वस्यैकदेशेषु क्रमेण व्याप्रियमाणा । यदा तु ज्ञानावरणादिकर्मसंपर्क: प्रणश्यति तदा परिच्देद्यस्य विश्वस्य सर्वदेशेषु युगपद्वयापृता कथंचित्कौटस्थ्यमवाप्य विषयांतरमनाप्नुवंती न विवर्तते । स खल्वेष निश्चित: सर्वज्ञसर्वदर्शित्वोपलम्भ: । अयमेव द्रव्यकर्मनिबंधनभूतानां भावकर्मणां कर्तृत्वोच्छेद: । अयमेव च विकारपूर्वकानुभवाभावादौपाधिकसुखदु:खपरिणामानां भोक्तृत्वोच्छेद: । इदमेव चानादिविवर्तखेदविच्छित्तिसुस्थितानंतचैतन्यस्यात्मन: स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षणसुख्स्य भोक्तृत्वमिति ॥२७॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ मुक्तावस्था वाले आत्मा का निरुपाधि स्वरूप कहा है ।
आत्मा (कर्म-रज के) पर-द्रव्यपने के कारण कर्म-रज से सम्पूर्ण-रूप से जिस क्षण छूटता है (मुक्त होता है), उसी क्षण (अपने) उर्ध्व-गमन-स्वभाव के कारण लोक के अंत को पाकर आगे गति-हेतु का अभाव होने से (वहाँ) स्थिर रहता हुआ, केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन (निज) स्वरूप-भूत होने के कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अनिन्द्रिय सुख का अनुभव करता है । उस मुक्त आत्मा को,
- भाव-प्राण-धारण जिसका लक्षण (स्वरूप) है ऐसा जीवत्व होता है;
- चिद्रूप जिसका लक्षण है ऐसा चेतयितृत्व होता है;
- चित्परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा उपयोग होता है;
- प्राप्त किये हुए समस्त (आत्मिक) अधिकारों की शक्तिमात्र-रूप प्रभुत्व होता है;
- समस्त वस्तुओं से असाधारण ऐसे स्वरूप की निष्पत्ति-मात्र-रूप (निज-स्वरूप को रचने-रूप) कर्तत्व होता है;
- स्वरूप-भूत स्वातन्त्र्य जिसका लक्षण है ऐसे सुख की उप्लाब्धि-रूप भोक्तृत्व होता है;
- अतीत अनन्तर (अन्तिम) शरीर-प्रमाण अवगाह-परिणाम-रूप देहप्रमाण-पना होता है; और
- उपाधि के सम्बन्ध से विविक्त ऐसा आत्यन्तिक (सवर्था) अमूर्त-पना होता है ।
- कर्म-संयुक्त-पना तो होता ही नहीं, क्योंकि द्रव्य-कर्मों और भाव-कर्मों से विमुक्ति हुई है । द्रव्य-कर्म वे पुद्गल-स्कन्ध है और भाव-कर्म वे चिद-विवर्त हैं ।
- चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादि-कर्मों के सम्पर्क से (सम्बन्ध से) संकुचित व्यापार-वाली होने के कारण ज्ञेय-भूत विश्व के (समस्त पदार्थों के) एक-एक देश में क्रमश: व्यापार करती हुई विवर्तन को प्राप्त होती है । किन्तु जब ज्ञानावरणादि-कर्मों का सम्पर्क विनष्ट होता है, तब वह ज्ञेय-भूत विश्व के सर्व देशों में युगपद व्यापार करती हुई कथंचित कूटस्थ होकर, अन्य विषय को प्राप्त न होती हुई विवर्तन नहीं करती । वह यह (चित्शक्ति के विवर्तन का अभाव), वास्तव में निश्चित (नियत, अचल) सर्वज्ञ-पने की सर्वदर्शी-पने की उपलब्धि है ।
- यही, द्रव्य-कर्मों के निमित्तभूत भाव-कर्मों के कर्तत्व का विनाश है;
- यही, विकार-पूर्वक अनुभव के अभाव के कारण औपाधिक सुख-दुःख-परिणामों के भोक्तृत्व का विनाश है;
- और यही, अनादि विवर्तन के खेद के विनाश से जिसका अनन्त चैतन्य सुस्थित हुआ है ऐसे आत्मा को स्वतन्त्र-स्वरूपानुभूति-लक्षण सुख का (स्वतंत्र स्वरूप की अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे सुख का) भोक्तृत्व है ॥२७॥