ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 30-31 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
अगुरुलहुगाणंता तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे । (30)
देसेहिं असंखादा सियलोगं सव्वमावण्णा ॥31॥
केचिच्च अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोग जुदा । (31)
विजुदा य तेहिं बहुगा सिद्धा संसारिणो जीवा ॥32॥
अर्थ:
अगुरुलघुक अनंत हैं, उन अनन्तों द्वारा सभी परिणमित हैं, वे प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात हैं । उनमें से कुछ तो कथंचित् सम्पूर्ण लोक को प्राप्त हैं और कुछ अप्राप्त हैं । अनेक जीव मिथ्यादर्शन, कषाय से सहित संसारी हैं तथा अनेक उनसे रहित सिद्ध हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब अगुरुलघुत्व, असंख्यात प्रदेशत्व, व्यापकत्व, अव्यापकत्व, मुक्त और अमुक्तत्व का प्रतिपादन करते हैं--
[अगुरुलहुगा अणंता] प्रत्येक षट्स्थान-पतित हानि-वृद्धि रूप अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों से सहित अगुरुलघु गुण अनंत हैं। [तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे] उन पूर्वोक्त अनन्तगुणों द्वारा सभी परिणमित हैं। सभी कौन हैं? सभी से, वे सभी जीव इसप्रकार सम्बन्ध है। [देसेहिं असंखादा] लोकाकाशप्रमाण अखण्ड प्रदेशों से सहित होने के कारण वे असंख्येय प्रदेश युक्त हैं । [सियलोगं सव्वमावण्णा] स्यात् / कथंचित्, लोकपूरण अवस्था की अपेक्षा लोकव्यापक है; अथवा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा लोक व्यापक है; वैसा ही कहा भी है 'सूक्ष्म जीवों से लोक निरंतर भरा है ।' वे जीव और कैसे हैं ? [केचितु अणावण्णा] तथा लोक पूरण अवस्था से रहित अथवा बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि कुछ अव्यापक है । वे जीव और किस विशेषता वाले हैं? [मिच्छादंसाणकसाय जोग जुदा] ऱागादि रहित परमानन्द एक स्वभावी शुद्ध जीवास्तिकाय से विलक्षण मिथ्यादर्शन, कषाय, योग से यथा-सम्भव युक्त हैं । मात्र युक्त ही नहीं है अपितु कुछ [विजुदायतेहिं] उन्हीं मिथ्यादर्शन, कषाय, योग से रहित हैं । दोनों ही कितनी संख्या वाले हैं? [बहुगा] बहुत, अनन्त संख्या वाले हैं । वे और कैसे हैं ? [सिद्धा संसारिणो] जो मिथ्यादर्शन, कषाय, योग से विमुक्त / रहित हैं, वे सिद्ध हैं; और जो उनसे सहित हैं वे संसारी हैं ।
यहाँ जीवित (जीवन की) आशा रूप रागादि विकल्पों के त्याग द्वारा सिद्ध जीवों के समान परम आह्लाद रूप सुख-रसास्वाद से परिणत / तन्मय निज शुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय है -- यह भावार्थ है ॥३१-३२॥
इसप्रकार पूर्वोक्त [वच्छरक्खं] नौ दृष्टान्तों द्वारा चार्वाक मतानुसारी शिष्य के सम्बोधन-हेतु जीव-सिद्धि की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।