ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 33 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
सव्वत्थ अत्थि जीवो ण य एक्को एक्कगो य एक्कट्ठो । (33)
अज्झवसाणविसिट्ठो चिट्ठदि मलिणो रजमलेहिं ॥34॥
अर्थ:
जीव सर्वत्र (सभी क्रमवर्ती शरीरों में) है तथा एक शरीर में (क्षीर-नीरवत्) एक रूप में रहता है; तथापि उसके साथ एकमेक नहीं है। अध्यवसान विशिष्ट वर्तता हुआ, रजमल (कर्ममल) द्वारा मलिन होने से वह भ्रमण करता है ।
समय-व्याख्या:
अत्र जीवस्य देहादेहांतरेऽस्तित्वं, देहात्पृथग्भूतत्वं, देहांतरसंचरणकारणं चोपन्यस्तम् । आत्मा हि संसारावस्थांक्रमवर्तिन्यनवच्छिन्नशरीरसंताने यथैकस्मिन शरीरे वृत्त: तथा क्रमेणान्येष्वपि शरीरेषु वर्तत इति तस्य सर्वत्रास्तित्वम् । न चैकस्मिन् शरीरे नीरे क्षीरमिवैक्येन स्थितोऽपि भिन्नस्वभावत्वात्तेन सहैक इति तस्य देहात्पृथग्भूतत्वम् । अनादिबंधनोपाधिविवर्तितविविधाध्यवसायविशिष्टत्वात्तन्मूलकर्मजालमलीमससत्वाच्च चेष्टमानस्यात्मनस्तथाविधाध्यवसायकर्मनिर्वर्तितेतरशरीरप्रवेशोभवतीति तस्य देहांतरसंचरणकारणोपन्यास इति ॥३३॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ जीव का देह से देहान्तर में (एक शरीर से अन्य शरीर में) अस्तित्व, देह से पृथक्त्व तथा देहान्तर में गमन का कारण कहा है ।
आत्मा संसार-अवस्था में क्रमवर्ती अच्छिन्न (अटूट) शरीर-प्रवाह में जिस प्रकार एक शरीर में वर्तता है उसी प्रकार क्रम से अन्य शरीरों में भी वर्तता है; इस प्रकार उसे सर्वत्र (सर्व शरीरों में) अस्तित्व है। और किसी एक शरीर में, पानी में दूध की भाँति एकरूप से रहने पर भी, भिन्न स्वभाव के कारण उसके साथ एक (तद्रूप) नहीं है; इस प्रकार उसे देह से पृथक्पना है। अनादि बंधनरूप उपाधि से विवर्तन (परिवर्तन) पानेवाले विविध अध्यवसायों से विशिष्ट होने के कारण (अनेक प्रकार के अध्यवसायवाला होने के कारण) तथा वे अध्यवसाय जिसका निमित्त हैं ऐसे कर्म-समूह से मलिन होने के कारण, भ्रमण करते हुए आत्मा को तथाविध अध्यवसायों तथा कर्मों से रचे जाने वाले (उस प्रकार के मिथ्यात्वरागादिरूप भावकर्मों तथा द्रव्यकर्मों से रचे जाने वाले) अन्य शरीर में प्रवेश होता है; इस प्रकार उसे (जीव को) देहान्तर में गमन होने का कारण कहा गया ॥३३॥