ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 34 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जेसिं जीवसहाओ णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स । (34)
ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ॥35॥
अर्थ:
जिनके विभाव-प्राण धारण करने-रूप जीव-स्वभाव नहीं है, और उसका सर्वथा अभाव भी नहीं है; वे शरीर से भिन्न, वचनगोचर अतीत / वचनातीत सिद्ध हैं ।
समय-व्याख्या:
सिद्धानां जीवत्वदेहमात्रत्वव्यवस्थेयम् । सिद्धानां हि द्रव्यप्राणधारणत्मको मुख्यत्वेन जीवस्वभावो नास्ति । न च जीवस्वभावस्य सर्वथाभावोऽस्ति भावप्राणधारणात्मकस्य जीवस्वभावस्य मुख्यत्वेन सद्भावात् । न च तेषां शरीरेण सह नीरक्षीरयोरिवैक्येन वृत्ति: यतस्ते तत्संपर्कहेतुभूतकषाययोगविप्रयोगादतीतानन्तरशरीरमात्रावगाहपरिणतत्वेऽप्यत्यंतभिन्नदेहा: । वाचां गोचरमतीतश्च तन्महिमा, यतस्ते लौकिकप्राणधारणमंतरेण शरीरसम्बन्धमंतरेण च परिप्राप्तनिरुपाधिस्वरूपा: सततं प्रतपंतीति ॥३४॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह सिद्धों के जीवत्व और देह-प्रमाणत्व की व्यवस्था है ।
सिद्धों को वास्तव में द्रव्यप्राण के धारण-स्वरूप जीव-स्वभाव मुख्यरूप से नहीं है; (उन्हें) जीव-स्वभाव का सर्वथा अभाव भी नहीं है, क्योंकि भाव-प्राण के धारण-स्वरूप जीव-स्वभाव का मुख्यरूप से सद्भाव है। और उन्हें शरीर के साथ, नीर-क्षीर की भाँति, एकरूप वृत्ति (वर्तन / अस्तित्व) नहीं है; क्योंकि शरीर संयोग से हेतुभूत कषाय और योग का वियोग हुआ है इसलिये वे अतीत अनन्तर शरीर (चरम-शरीर।) प्रमाण अवगाहरूप परिणत होने पर भी अत्यंत देह-रहित हैं। और वचनगोचरातीत (वचन-अगोचर) उनकी महिमा है; क्योंकि लौकिक प्राण के धारण बिना और शरीर के सम्बन्ध बिना, संपूर्णरूप से प्राप्त किये हुए निरुपाधि स्वरूप द्वारा वे सतत प्रतपते हैं (प्रतापवन्त वर्तते हैं) ॥३४॥