ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 5 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविएहिं ।
ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तेलोक्कं ॥5॥
अर्थ:
जिनका विविध गुणों और पर्यायों के साथ अस्तिस्वभाव है, वे अस्तिकाय हैं। उनसे तीन लोक निष्पन्न है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब पूर्वोक्त अस्तित्व और कायत्व किसप्रकार से सम्भव इसका प्रकृष्ट रूप में ज्ञान कराते हैं --
[जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सह पज्जएहिं विविएहिं ते होंति अत्थि] जिन पंचास्तिकायों के अस्तित्व है, वह कौन है ? स्वभाव, सत्ता, अस्तित्व, तन्मयत्व, स्वरूप है। यह किनके साथ है? यह गुण-पर्यायों के साथ है। वे कैसे हैं? विभिन्न /अनेक प्रकार के हैं, इसके द्वारा पाँचों का अस्तित्व कहा गया । वार्तिक में भी वैसा ही कहा है । गुण अन्वयी और पर्यायें व्यतिरेकी होती हैं, अथवा गुण सहभू/सहभावी/सहवर्ती और पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं । वे द्रव्य से संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि भेद की अपेक्षा भिन्न हैं तथा प्रदेश रूप या सत्ता रूप से अभिन्न हैं । वे और कैसे हैं ? विचित्र/अनेक प्रकार के हैं । किस रूप में अनेक प्रकार के हैं? अपने स्वभाव-विभाव रूप से या अर्थ-व्यंजन पर्याय रूप से अनेक प्रकार के हैं ।
जीव सम्बंधी ये सब कहते हैं -- केवल-ज्ञानादि स्वभाव-गुण, मति-ज्ञानादि विभाव-गुण हैं; सिद्धरूप स्वभाव-पर्याय हैं, नर-नारकादि रूप विभाव-पर्यायें हैं । ये ही पुद्गल सम्बंधी कहते हैं -- शुद्ध परमाणु के वर्णादि स्वभाव-गुण हैं, द्वयणुकादि स्कन्धों के वर्णादि विभाव-गुण हैं; शुद्ध परमाणु रूप से अवस्थान स्वभाव द्रव्य-पर्याय है, वर्णादि से अन्य वर्णादि रूप परिणमन स्वभाव गुण पर्याय है। द्वयणुकादि स्कंध रूप से परिणमन विभाव द्रव्य-पर्यायें हैं, उन द्वयणुकादि स्कन्धों में ही अन्य वर्णादि रूप परिणमन विभाव गुण-पर्यायें हैं । ये जीव-पुद्गल के विशेष गुण कहे। अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व आदि सामान्यगुण सभी द्रव्यों में साधारण हैं। धर्मादि के विशेष गुण-पर्याय आगे यथा-स्थान कहे गए है । इस-प्रकार के गुण-पर्यायों के साथ जिन पाँच अस्तिकायों का अस्तित्व है, वे 'अस्ति' हैं ।
अब कायत्व कहते हैं -- [काय] काय के समान काय, बहुप्रदेशों का प्रचय (समूह) होने के कारण शरीर के समान। उन पंचास्तिकायों से क्या किया गया है? [णिप्पण्णं जेहिं] उन पंचास्तिकायों से निष्पन्न उत्पन्न है । उनसे क्या निष्पन्न है ? [तेलोक्कं] तीन लोक निष्पन्न है ।
गाथा के इस चतुर्थ पाद के द्वारा ही अस्तित्व और कायत्व कहे गये हैं। इसके द्वारा वे कैसें कहे गए हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो (तो कहते हैं) -तीन लोक में जो कोई उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवान पदार्थ हैं; वे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप अस्तित्व कहलाते हैं। वे अस्तित्व कैसे कहलाते हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो (तो कहते हैं)- `उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त सत है'-ऐसा वचन होने से (तत्त्वार्थसूत्र, पंचमअध्याय, सूत्र) ऊर्ध्व-अधो-मध्य भाग रूप से तीन लोक के आकार परिणत जीव, पुद्गल आदि के सावयवता, सांशकता, सप्रदेशता होने से कालद्रव्य को छोडकर (शेष सभी के ) कायत्व है। इसप्रकार मात्र पूर्वोक्त प्रकार से ही नहीं; इसप्रकार से भी अस्तित्व-कायत्व जानना चाहिए। उनमें से शुद्ध जीवास्तिकाय की जो अनन्त ज्ञानादि गुण रूप सत्ता और सिद्ध पर्याय रूप सत्ता है तथा शुद्ध असंख्यात प्रदेश रूप कायत्व है वह ही उपादेय है -- यह भावार्थ है ॥५॥
इसप्रकार दूसरे स्थल में पंचास्तिकाय का संक्षेप व्याख्यान परक तीन गाथाओं पर्यन्त प्रकरण पूर्ण हुआ ।