ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 6 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
ते चेव अत्थिकाया तिक्कालियभावपरिणदा णिच्चा ।
गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुत्ता ॥6॥
अर्थ:
त्रिकालवर्ती भावों से परिणमित, नित्य वे ही अस्तिकाय, परिवर्तन लिंग (काल) सहित द्रव्य भाव को प्राप्त होते हैं।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब पंचास्तिकायों की और काल की द्रव्य संज्ञा कहते हैं --
[ते चेव अत्थिकाया तिक्कालियभावपरिणदा णिच्चा] वे ही पूर्वोक्त पंचास्तिकाय यद्यपि पर्यायार्थिक-नय से त्रैकालिक भाव परिणत / त्रिकालवर्ती पर्यायों रूप से परिणमित होते हुए क्षणिक, अनित्य, विनश्वर हैं; तथापि द्रव्यार्थिकनय से नित्य ही हैं । इसप्रकार द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा नित्यानित्यात्मक होते हुए [गच्छंति दवियभावं] द्रव्यभाव को जाते हैं द्रव्य नाम प्राप्त करते हैं । और कैसे होते हुए वे द्रव्य नाम पाते हैं? [परियट्टणलिंगसंजुत्ता] अग्नि का धुऐ के समान जीव, पुद्गलादि का परिणमन ही है कार्यभूत लिंग, चिंह, गमक, ज्ञापक, सूचक जिसका वह है परिवर्तन लिंग कालाणु, द्रव्य काल; उससे सहित होते हुए द्रव्य नाम प्राप्त करते हैं ।
प्रश्न - काल द्रव्य से संयुक्त - ऐसा कहना चाहिए; परिवर्तन लिंग से सहित-ऐसा अव्यक्त वचन किसलिए कहा गया?
उत्तर - ऐसा नहीं है। पंचास्तिकाय के प्रकरण में काल की मुख्यता नहीं है; क्योंकि वह पदार्थों की नवीन-पुरानी परिणतिरूप कार्यलिंग द्वारा ज्ञात होता है, उस कारण से ही परिवर्तन लिंग -- ऐसा कहा गया है।
इन छह द्रव्यों के बीच में शुद्ध निश्चय से दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, आहार-भय-मैथुन-परिग्रहादि संज्ञादि समस्त पर-द्रव्य के आलम्बन से उत्पन्न संकल्प-विकल्प से शून्य श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान-रूप अभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहज अपूर्व परमानंदमय स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा गम्य, प्राप्त, भरितावस्थ अपने देह में विद्यमान शुद्ध जीवास्तिकाय नामक जीव-द्रव्य ही उपादेय है -- यह भावार्थ है ॥६॥
इसप्रकार कालसहित पंचास्तिकायों की संज्ञा के कथनरूप से गाथा पूर्ण हुई।