ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 75 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
बादरसुहुमगदाणं खंदाणं पोग्गलोत्ति ववहारो । (75)
ते होंति छप्पयारा तेलोक्कं जेहिं णिप्पण्णं ॥82॥
अर्थ:
बादर और सूक्ष्म से परिणत स्कन्धों में पुद्गल ऐसा व्यवहार है। वे छह प्रकार के हैं, जिनसे तीन लोक निष्पन्न है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[बादर सुहुमगदाणं खंदाणं पोग्गलोत्ति ववहारो] बादर-सूक्ष्म-गत स्कन्धों में 'पुद्गल', ऐसा व्यवहार है । वह इसप्रकार -- जैसे शुद्ध निश्चय से सत्ता, चैतन्य, बोधादि शुद्ध प्राणों द्वारा जो जीते हैं, वे सिद्ध रूप जीव, हैं; तथापि व्यवहार से आयु आदि अशुद्ध प्राणों से जो जीता है, गुणस्थान-मार्गणा-स्थान आदि भेद से भिन्न / पृथक्-पृथक् है, वह भी जीव है । उसी प्रकार - 'स्कन्ध के समान जो वर्ण-गंध-रस-स्पर्श द्वारा पूरण-गलन करते हैं, इस कारण परमाणु पुद्गल हैं' ।
इस प्रकार श्लोक सें कहे गए लक्षण वाले परमाणु वास्तव में निश्चय से पुद्गल कहलाते हैं, तथा व्यवहार से द्वयणुक आदि अनंत परमाणु पिण्ड-रूप बादर-सूक्ष्म-गत स्कन्ध भी पुद्गल हैं, ऐसा व्यवहार होता है । [ते होंति छप्पयारा] वे छह प्रकार के होते हैं । जिनके द्वारा क्या किया गया है ? [णिप्पन्नंजेहिंतेलोक्कं] जिनके द्वारा तीन-लोक निष्पन्न है ।
यहाँ तात्पर्य यह है -- 'जीवादि पदार्थ जहाँ देखे जाते हैं, वह लोक है' -- ऐसा वचन होने से पुद्गलादि छह द्रव्यों से निष्पन्न यह लोक किसी अन्य पुरुष-विशेष द्वारा न किया जा रहा है, न नष्ट किया जा रहा है और न धारण किया जा रहा है ॥८२॥