ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 76 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सव्वेसिं खंदाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू । (76)
सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिभवो ॥84॥
अर्थ:
सभी स्कन्धों का जो अंतिम भाग है, उसे परमाणु जानो। वह शाश्वत, अशब्द, एक अविभागी और मूर्तिभव (मूर्त रूप से उत्पन्न होने वाला) जानना चाहिए।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[सव्वेसिं खंदाणं जो अंतो तं वियाण परमाणु] जैसे जो कर्म-स्कन्धों का अन्त / विनाश है, उसी शुद्धात्मा को जानो; उसी-प्रकार जो छह-प्रकार के स्कन्धों का अन्त, अवसान, भेद है, उसे परमाणु जानो । [सो] और वह । वह कैसा है ? [सस्सदो] जैसे परमात्मा द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक-स्वभाव से अविनश्वर होने के कारण शाश्वत हैं; उसीप्रकार पुद्गलपने से अविनश्वर होने के कारण परमाणु भी नित्य है । [असद्दो] जैसे शुद्ध जीवास्तिकाय निश्चय से स्व-संवेदन ज्ञान का विषय होने पर भी, शब्द का विषय या शब्द-रूप नहीं है, अत: अशब्द है; उसीप्रकार परमाणु भी शक्ति-रूप से शब्द का कारण-भूत होने पर भी व्यक्ति-रूप से शब्द पर्याय-रूप नहीं है; अत: अशब्द है । [एक्को] जैसे शुद्धात्म-द्रव्य निश्चय से पर की उपाधि से रहित होने के कारण केवल, असहाय (सहायता की आवश्यकता से रहित), एक कहलाता है; उसी प्रकार परमाणु द्रव्य भी द्व्यणुक आदि पर की उपाधि से रहित होने के कारण अथवा एक प्रदेशी होने के कारण केवल, असहाय, एक है ।
[अविभागी] जैसे परमात्म-द्रव्य निश्चय से लोकाकाश प्रमाण असंख्येय प्रदेशी होने पर भी विवक्षित अखण्ड एक द्रव्य होने के कारण भाग / भेद का अभाव होने से अविभागी है; उसीप्रकार परमाणु द्रव्य भी निरंश होने के कारण भाग / भेद का अभाव होने से अविभागी है । और वह परमाणु कैसा है ? [मुत्तिभवो] अमूर्त परमात्म-द्रव्य से विलक्षण जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण युक्त मूर्ति है, उससे उत्पन्न होने के कारण मूर्ति-भव है -- ऐसा सूत्र का अभिप्राय है ॥८४॥
इस प्रकार परमाणु के स्वरूप-कथन की अपेक्षा द्वितीय स्थल में प्रथम गाथा पूर्ण हुई ।