ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 7 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
अण्णोण्णं पविसंता देंता ओगासमण्णमण्णस्स ।
मेलंता वि य णिच्चं सगसब्भावं ण विजहंति ॥7॥
अर्थ:
वे परस्पर एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर में मिलते भी हैं; तथापि सदैव अपने स्वभाव को नहीं छाे़डते हैं।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब छहों द्रव्यों के परस्पर अत्यन्त संकर होने पर भी अपने-अपने स्वरूप से अच्यवन का / नहीं छूटने का उपदेश देते हैं --
[अण्णोण्णं पविसंता] परस्पर सम्बन्ध के लिए अन्य क्षेत्र से अन्य क्षेत्र के प्रति आते हुए को [देंता ओगासमण्णमण्णस्स] परस्पर अवकाश-दान देते हुए [मेलंतावि य णिच्चं] अवकाश-दान के बाद परस्पर मिलाप से अपने अवस्थान-काल पर्यन्त युगपत्-प्राप्तिरूप संकर, परस्पर विषय-गमनरूप व्यतिकर-इन दोनों के बिना नित्य / हमेशा रहते हुए भी [सगसब्भावं ण विजहंति] अपने स्वरूप को नहीं छोडते हैं; अथवा सक्रियवान जीव-पुद्गल की अपेक्षा परस्पर प्रवेश करते हुए; सक्रिय-निष्क्रिय द्रव्यों के मिलाप की अपेक्षा आए हुए को अवकाश देते हुए; धर्म, अधर्म, आकाश, कालरूप निष्क्रिय द्रव्यों की अपेक्षा हमेशा मिलाप पूर्वक रहते हुए भी अपने स्वभाव को नहीं छोडते हैं ।
इस प्रकार छह द्रव्यों में से ख्याति, पूजा, लाभ, दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, कृष्ण, नील, कापोतरूप अशुभ लेश्या आदि समस्त पर-द्रव्यों के आलम्बन से उत्पन्न संकल्प-विकल्परूपी कल्लोलमाला से रहित वीतराग निर्विकल्प समाधि से समुत्पन्न परमानन्द-रूप सुख रसास्वादमय परम समरसीभाव स्वभाव-रूप स्व-संवेदन-ज्ञान द्वारा जानने योग्य, प्राप्त होने योग्य, स्वावलम्ब, आधार, भरितावस्थ (परिपूर्ण) शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से या निश्चयनय से अपने देह में विद्यमान शुद्ध जीवास्तिकाय नामक जीवद्रव्य ही उपादेय है -- ऐसा भावार्थ है; और जो राग, द्वेष, मोह सहित अन्य एकान्तवादिओं के वायु-धारणादि सर्व शून्य ध्यान व्याख्यान अथवा आकाशध्यान हैं; वे सभी निरर्थक हैं। संकल्प-विकल्प का भेद कहते हैं -- चेतन-अचेतन-मिश्र बाह्य द्रव्य में 'यह मेरा है' -ऐसा परिणाम संकल्प है; अंतरंग में 'मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ' इत्यादि प्रकार का हर्ष-विषाद-रूप परिणाम विकल्प है -- इसप्रकार संकल्प-विकल्प का लक्षण जानना चाहिए । वीतराग निर्विकल्प समाधि का वीतराग विशेषण व्यर्थ है, ऐसा कहने पर (उसका) निराकरण करते हैं -- विषय-कषाय निमित्तक आर्त-रौद्ररूप अशुभ-ध्यान के निषेधार्थ होने से, हेतु-हेतुमद्भाव का व्याख्यान होने से, कर्मधारय समास होने से, भावना-ग्रन्थ में पुनरुक्ति दोष का अभाव होने से, स्वरूप का विशेषण होने से अथवा दृ़ढ करने के लिए होने से निर्विकल्प समाधि का भी वीतराग विशेषण दिया जाता है । वीतराग निर्विकल्प समाधि के व्याख्यान-काल में इसप्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । वीतराग, सर्वज्ञ, निर्दोष, परमात्मा इत्यादि शब्दों में भी इसीप्रकार से पूर्वपक्ष प्रस्तुत कर यथा-संभव परिहार करना चाहिए। जिसकारण वीतराग हैं, उसीकारण निर्विकल्प समाधि है इसप्रकार हेतु-हेतुमद्भाव शब्द का अर्थ है ॥७॥
इसप्रकार संकर-व्यतिकर दोष के निराकरण द्वारा गाथा पूर्ण हुई । इसप्रकार दो स्वतंत्र गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ । इसप्रकार प्रथम महाधिकार में सात गाथाओं द्वारा तीन स्थल से समय शब्दार्थ पीठिका नामक प्रथम अन्तराधिकार पूर्ण हुआ। अब [सत्तासव्वपदत्था...] इस गाथा से प्रारंभकर पाठक्रम से चौदह गाथाओं द्वारा जीव-पुद्गल आदि द्रव्यों की विवक्षा से रहित होने के कारण सामान्य द्रव्य पीठिका (नामक दूसरा अन्तराधिकार ) कहते हैं। वहाँ चौदह गाथाओं में से
- सामान्य-विशेष सत्ता लक्षण कथनरूप से [सत्तासव्वपदत्था...] इत्यादि प्रथम स्थल में एक गाथासूत्र,
- उसके बाद सत्ता और द्रव्य का अभेद तथा द्रव्य शब्द के व्युत्पत्ति-कथन की मुख्यता से [दवियदि...] इत्यादि दूसरे स्थल में एक गाथा,
- तत्पश्चात् द्रव्य के तीन लक्षणों की सूचनारूप से
- [दव्वं सल्लक्खणियं...] इत्यादि तीसरे स्थल में एक गाथा,
- तदनन्तर दो लक्षणों के प्रतिपादनरूप से [उप्पत्ती व विणासो...] इत्यादि एक गाथा तथा
- तीसरे लक्षण के कथनरूप में [पज्जयरहियं...] इत्यादि दो गाथायें,
- इसके बाद पाँचवे स्थल में सभी एकान्त मतों के निराकरण के लिए प्रमाण सप्तभंगी के व्याख्यान की मुख्यता से [सिय अत्थि...] इत्यादि एक गाथा है।
अब द्वितीय सप्तक में से
- प्रथम स्थल में बौद्धमत के एकान्त का निराकरण करने के लिए द्रव्य के स्थापन की मुख्यता से [भावस्स णत्थि णासो...] इत्यादि एक गाथा सूत्र है, उसके विवरण के लिए चार गाथायें हैं। उन चार गाथाओं में
- उसी अधिकार सूत्र का द्रव्य-गुण-पर्याय के व्याख्यान की मुख्यता से [भावा जीवादीया इत्यादि] एक गाथा,
- मनुष्यादि पर्याय की विनाश-उत्पादकता में भी ध्रुवरूप से विनाश नहीं होता है -इस कथनरूप से [मणुअत्तणेण] इत्यादि एक गाथा,
- इसके बाद उसे ही दृ़ढ करने के लिए [सो चेव] इत्यादि एक गाथा;
- उसीप्रकार द्रव्यार्थिकनय से सत का विनाश, असत का उत्पाद नहीं है, पर्यायार्थिकनय से वे दोनों होते हैं। -इसप्रकार दो नयों सम्बन्धी व्याख्यान के उपसंहाररूप से [एवं सदो विणासो...] इत्यादि एक उपसंहार गाथा सूत्र
- तत्पश्चात् तीसरे स्थल में सिद्ध के पर्यायार्थिक-नय की अपेक्षा असद उत्पाद की मुख्यता से [णाणावरणादीया...] इत्यादि एक गाथा है।
- इसीप्रकार चौथे स्थल में द्रव्यरूप से नित्यता होने पर भी पर्यायार्थिकनय से संसारी जीव के देवत्व आदि (पर्यायों) के उत्पाद-व्यय सम्बन्धी कर्तृत्व के व्याख्यान के उपसंहार की मुख्यता से अथवा द्रव्यपीठिका समाप्ति के लिए [एवं भावं...] इत्यादि एक गाथासूत्र है --
इसप्रकार चौदह गाथाओं वाले नौ अन्तर-स्थलों द्वारा द्रव्य-पीठिका की समुदाय पातनिका है ।
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प्रथम महाधिकार के द्वितीय अंतराधिकार की सारिणी | ||||
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स्थल-क्रम | विषय | गाथा | गाथा संख्या | |
प्रथम-सप्तक | 1 | सत्ता-लक्षण परक | ८ वीं | १ |
2 | द्रव्य शब्द व्युत्पत्ति परक | ९ वीं | १ | |
3 | द्रव्य के तीन लक्षण परक | १० वीं | १ | |
4 | वस्तु-व्यवस्था परक दो नय की विवक्षा | ११ से १३ वीं | ३ | |
5 | प्रमाण सप्त-भंगी | १४ वीं | १ | |
द्वितीय सप्तक | 1 | बौद्ध निराकरण परक | १५ वीं | १ |
2 | बौद्धमत निषेध -- स्पष्टीकरणार्थ | १६ से १९ | ४ | |
3 | अभूतपूर्व सिद्धदशा परक | २० | १ | |
4 | उपसंहार | २१ | १ | |
कुल | १४ |