ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 98 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जे खलु इन्दियगेज्झा विसया जीवेहिं हुन्ति ते मुत्ता । (98)
सेसं हवदि अमुत्तं चित्तं उभयं समादियदि ॥106॥
अर्थ:
जीवों द्वारा जो इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य विषय हैं, वे वास्तव में मूर्त हैं, शेष अमूर्त हैं; चित्त इन दोनों को ग्रहण करता है / जानता है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जे खलु इन्दियगेज्झा विसया] कर्मता को प्राप्त (कर्मकारक में प्रयुक्त) जो विषय वास्तव में करण-भूत इन्द्रियों से ग्राह्य हैं । कर्ता-भूत किसके द्वारा ग्राह्य हैं ? [जीवेहिं] नीराग, निर्विकल्प, निजानन्द एक लक्षण सुखामृत रस के आस्वाद से च्युत, विषय-सुख के आनन्द में रत बहिर्मुख जीवों द्वारा ग्राह्य हैं । [होंति ते मुत्ता] विषयातीत स्वाभाविक सुख-स्वभावी आत्म-तत्त्व से विपरीत वे विषय मूर्त हैं । यद्यपि उनमें से कुछ सूक्ष्म होने से वर्तमान काल में इन्द्रियों के विषय नहीं हैं; तथापि कालान्तर में होंगे इसप्रकार इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने की योग्यता का सद्भाव होने से वे भी इन्द्रिय-ग्रहण योग्य कहलाते हैं । [सेसं हवदि अमुत्तं] पुद्गल से भिन्न, अमूर्त, अतीन्द्रिय ज्ञान-सुखादि गुणों का आधार जो आत्म-द्रव्य, तत्प्रभृति पाँच द्रव्य रूप जो शेष हैं; वे अमूर्त हैं । [चित्तं उभयं समादियदि] चित्त दोनों को ग्रहण करता है / जानता है । चित्त वास्तव में मति-श्रुत ज्ञान का उपादान कारण-भूत और अनियत विषय वाला है; और वह श्रुत-ज्ञान स्व-सम्वेदन ज्ञान-रूप से जब आत्मा को ग्रहण करने / जानने वाले भाव श्रुत रूप होता है, वह प्रत्यक्ष है; और जो द्वादशांग, चौदह पूर्वरूप परमागम नामक श्रुत-ज्ञान है, वह मूर्त-अमूर्त दोनों की जानकारी के विषय में व्याप्ति-ज्ञान रूप से परोक्ष होने पर भी केवल-ज्ञान के समान है, ऐसा अभिप्राय है । वैसा ही कहा भी है 'श्रुत-ज्ञान और केवल-ज्ञान दोनों ही ज्ञान की अपेक्षा समान हैं; तथापि श्रुत-ज्ञान परोक्ष है और केवल-ज्ञान प्रत्यक्ष है ।' ॥१०६॥
इस प्रकार प्रकारान्तर से मूर्त-अमूर्त का स्वरूप कथन करने वाली गाथा पूर्ण हुई ।