ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 121
From जैनकोष
एक सौ इक्कीसवां पर्व
अथानंतर कष्ट सहन करने वाले, मुनिश्रेष्ठ श्री राम ने पाँच दिन का दूसरा उपवास लेकर यह अवग्रह किया कि मृग समूह से भरे हुए इस वन में मुझे जो भिक्षा प्राप्त होगी उसे ही मैं ग्रहण करूँगा-भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश नहीं करूँगा ॥1-2॥ इस प्रकार कठिन अवग्रह लेकर जब मुनिराज वन में विराजमान थे तब एक प्रतिनंदी नाम का राजा दुष्ट घोड़े के द्वारा हरा गया ॥3॥ तदनंतर उसकी प्रभवा नाम की रानी शोकातुर हो मनुष्यों के समूह से हरण का मार्ग खोजती हुई घोड़े पर चढ़कर निकली । अनेक योद्धाओं का समूह उसके साथ था । 'क्या होगा ? कैसे राजा का पता चलेगा ?' इस प्रकार अत्यधिक चिंता करती हुई वह बड़े वेग से उसी मार्ग से निकली ॥4-5॥ हरे जाने वाले राजा के बीच में एक तालाब पड़ा सो वह दुष्ट अश्व उस तालाब की कीचड़ में उस तरह फंस गया जिस तरह कि गृहस्थ स्त्री में फंसा रहता है ॥6॥
तदनंतर सुंदरी रानी, वहाँ पहुँच कर और कमल आदि से युक्त सरोवर को देखकर कुछ मुसकराती हुई बोली कि राजन् ! घोड़ा ने अच्छा ही किया ॥7॥ यदि आप इस घोड़े के द्वारा नहीं हरे जाते तो नंदन वन जैसे पुष्पों से सहित यह सुंदर सरोवर कहाँ पाते ? इसके उत्तर में राजा ने कहा कि हाँ यह उद्यान-यात्रा आज सफल हुई जब कि जिसके देखने से तृप्ति नहीं होती ऐसे इस अत्यंत सुंदर वन के मध्य तुम आ पहुँची ॥8-9। इस प्रकार हास्यपूर्ण वार्ता कर पति के साथ मिली रानी, सखियों से आवृत हो उसी सरोवर के किनारे ठहर गई ॥10॥
तदनंतर निर्मल जल में क्रीडा कर, फूल तोड़कर तथा परस्पर एक दूसरे को अलंकृत कर जब दोनों दंपति भोजन करने के लिए बैठे तब इसी बीच में उपवास की समाप्ति को प्राप्त एवं साधु की क्रिया में निपुण मुनिराज राम, उनके समीप आये ।।11-12॥ उन्हें देख जिसे हर्ष उत्पन्न हुआ था, तथा रोमांच उठ आये थे ऐसा राजा रानी के साथ घबड़ा कर उठकर खड़ा हो गया ॥13॥ उसने प्रणाम कर कहा कि हे भगवन् ! खड़े रहिए, तदनंतर पृथिवीतल को शुद्ध कर उसे कमल आदि से पूजित किया ॥14॥ रानी ने सुगंधित जल से भरा पात्र उठाकर जल दिया और राजा ने मुनि के पैर धोये ॥15॥ तदनंतर जिसका समस्त शरीर हर्ष से युक्त था ऐसे उज्ज्वल राजा ने बड़े आदर के साथ उत्तम गंध रस और रूप से युक्त खीर आदिक आहार सुवर्ण पात्र में रक्खा और उसके बाद उत्कृष्ट श्रद्धा ने सहित हो वह उत्तम आहार उत्तम पात्र अर्थात् मुनिराज को समर्पित किया ॥16-17॥ तदनंतर जिस प्रकार दयालु मनुष्य का दान देने का मनोरथ बढ़ता जाता है उसी प्रकार मुनि के लिए दिया जाने वाला अन्न उत्तम दान के कारण बर्तन में वृद्धि को प्राप्त हो गया था। भावार्थ― श्री राम मुनि अक्षीणऋद्धि के धारक थे इसलिए उन्हें जो अन्न दिया गया था वह अपने बर्तन में अक्षीण हो गया था ।।18।। दाता को श्रद्धा तुष्टि भक्ति आदि गुणों से युक्त उत्तम दाता जानकर देवों ने प्रसन्नचित्त हो आकाश में उसका अभिनंदन किया अर्थात् पंचाश्चर्य किये ॥19॥ अनुकूल― शीतल मंद सुगंधित वायु चली, देवों ने हर्षित हो पाँच वर्ण की सुगंधित पुष्पवृष्टि की, आकाश में कानों को हरने वाला नाना प्रकार का दुंदुभि नाद हुआ, अप्सराओं के संगीत की उत्तम ध्वनि उस दुंदुभिनाद के साथ मिली हुई थी, संतोष से युक्त कंदर्प जाति के देवों ने अनेक प्रकार के शब्द किये तथा आकाश में नाना रस पूर्ण अनेक प्रकार का नृत्य किया ।।20-22॥ अहो दान, अहो पात्र, अहो विधि, अहो देव, अहो दाता तथा धन्य-धन्य आदि शब्द आकाश में किये गये ।।23॥ बढ़ते रहो, जय हो, तथा समृद्धिमान होओ आदि देवों के विशाल शब्द आकाश रूपी मंडप में व्याप्त हो गये ॥24॥ इनके सिवाय नाना प्रकार के रत्न तथा सुवर्णादि उत्तम द्रव्यों से युक्त धन की वृष्टि दशों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई पड़ी ॥25॥ विशुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक राजा प्रतिनंदी देवों से पूजा तथा मुनि से देशव्रत प्राप्त कर पृथिवी में गौरव को प्राप्त हुआ ॥26॥ इस प्रकार भक्ति से नम्रीभूत भार्या सहित राजा ने सुपात्र के लिए दान देकर अत्यधिक हर्ष का अनुभव किया और मनुष्य जन्म को सफल माना ॥27॥ इधर श्री राम ने भी आगम में कहे अनुसार प्रवृत्ति कर, एकांत स्थान में शयनासन किया तथा तप से अत्यंत देदीप्यमान हो पृथिवी पर उस तरह योग्य विहार किया कि जिस तरह मानो दूसरा सूर्य ही पृथिवी पर आ पहुँचा हो ॥28॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य विरचित पद्मपुराण में श्रीराम के आहार दान का वर्णन करने वाला एक सौ इक्कीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥121॥