ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 114 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो । (114)
हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो ॥124॥
अर्थ:
द्रव्यार्थिकनय से सभी द्रव्य (अपनी-अपनी पर्यायों से) अनन्य हैं तथा पर्यायार्थिकनय से उससमय उस पर्याय से (द्रव्य) तन्मय होने के कारण, वह अन्य-अन्य होता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैकद्रव्यस्यान्यत्वानन्वयत्वविप्रतिषेधमुद्धुनोति -
सर्वस्य हि वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेषौ परिच्छिदन्ती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति ।
तत्र पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु विशेषेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमव-लोकयतामनवलोकितविशेषाणां तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति ।
यदा तु द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोक-यतामनवलोकितसामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति । द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्य-स्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् ।
यदा तु ते उभे अपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इत-श्चावलोक्यते तदा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता नारकतिर्यग्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते ।
तत्रैकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनं । तत: सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते ॥११४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
वास्तव में सभी वस्तु सामान्यविशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: (१) सामान्य और (२) विशेष को जानने वाली दो आंखें हैं—(१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक ।
इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीवसामान्य को देखने वाले और विशेषों को न देखने वाले जीवों को ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है । और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीव द्रव्य) अन्य-अन्य भासित होता है, क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है,—कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति । (जैसे घास, लकड़ी इत्यादि की अग्नि उस-उस समय घासमय, लकड़ीमय इत्यादि होने से घास, लकड़ी इत्यादि से अनन्य है उसी प्रकार द्रव्य उन-उन पर्यायरूप विशेषों के समय तन्मय होने से उनसे अनन्य है,—पृथक् नहीं है।) और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा और इनके द्वारा (द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक चक्षुओं के) द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तिर्यचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायों में रहने वाला जीवसामान्य तथा जीवसामान्य में रहने वाला नारकत्व, तिर्यचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेष तुल्यकाल में ही (एक ही साथ) दिखाई देते हैं ।
वहाँ, एक आँख से देखा जाना वह एकदेश अवलोकन है और दोनों आँखों से देखना वह सर्वावलोकन (सम्पूर्ण अवलोकन) है । इसलिये सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते ॥११४॥