ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 114 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो । (114)
हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो ॥124॥
अर्थ:
द्रव्यार्थिकनय से सभी द्रव्य (अपनी-अपनी पर्यायों से) अनन्य हैं तथा पर्यायार्थिकनय से उससमय उस पर्याय से (द्रव्य) तन्मय होने के कारण, वह अन्य-अन्य होता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथैकद्रव्यस्य पर्यायैस्सहानन्यत्वाभिधानमेकत्वमन्यत्वाभिधानमनेकत्वं च नय-विभागेन दर्शयति, अथवा पूर्वोक्तसद्भावनिबद्धासद्भावनिबद्धमुत्पादद्वयं प्रकारान्तरेण समर्थयति--
हवदि भवति । किं कर्तृ । सव्वं दव्वं सर्वं विवक्षिताविवक्षितजीवद्रव्यम् । किंविशिष्टं भवति । अणण्णं अनन्यमभिन्नमेकं तन्मयमिति । केन सह । तेन नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवरूपविभावपर्यायसमूहेन केवल-ज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयशक्तिरूपसिद्धपर्यायेण च । केन कृत्वा । दव्वट्ठिएण शुद्धान्वयद्रव्यार्थिकनयेन । कस्मात् । कुण्डलादिपर्यायेषु सुवर्णस्येव भेदाभावात् । तं पज्जयट्ठिएण पुणो तद्द्रव्यं पर्यायार्थिकनयेन पुनः अण्णं अन्यद्भिन्नमनेकं पर्यायैः सह पृथग्भवति । कस्मादिति चेत् । तक्काले तम्मयत्तादो तृणाग्नि-काष्ठाग्निपत्राग्निवत् स्वकीयपर्यायैः सह तत्काले तन्मयत्वादिति । एतावता किमुक्तं भवति । द्रव्यार्थिक-नयेन यदा वस्तुपरीक्षा क्रियते तदा पर्यायसन्तानरूपेण सर्वं पर्यायकदम्बकं द्रव्यमेव प्रतिभाति । यदातु पर्यायनयविवक्षा क्रियते तदा द्रव्यमपि पर्यायरूपेण भिन्नं भिन्नं प्रतिभाति । यदा च परस्परसापेक्ष-नयद्वयेन युगपत्समीक्ष्यते, तदैकत्वमनेकत्वं च युगपत्प्रतिभातीति । यथेदं जीवद्रव्ये व्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु यथासंभवं ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥११४॥
एवं सदुत्पादासदुत्पादकथनेन प्रथमा, सदुत्पाद-विशेषविवरणरूपेण द्वितीया, तथैवासदुत्पादविशेषविवरणरूपेण तृतीया, द्रव्यपर्याययोरेकत्वानेकत्व-
प्रतिपादनेन चतुर्थीति सदुत्पादासदुत्पादव्याख्यानमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन सप्तमस्थलं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[हवदि] है । कर्तारूप कौन है? [सव्वं दव्वं] सभी विवक्षित - अविवक्षित जीवद्रव्य हैं । वे किस विशेषता वाले हैं? [अणण्णं] वे अनन्य - अभिन्न-एक अथवा तन्मय हैं । वे किसके साथ अभिन्न हैं? वे उन नारक, तिर्यंच, मनुष्य वा देव रूप विभावपर्यायसमूह और केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टय शक्ति (गुण) रूप सिद्धपर्याय के साथ अभिन्न हैं । वे इनके साथ किसके द्वारा-किस अपेक्षा से अभिन्न हैं? [दव्वट्ठिएण] शुद्धअन्वय द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा वे इनसे अभिन्न है । इस नय की अपेक्षा वे उनसे अभिन्न क्यों है? कुण्डल आदि पर्यायों में व्याप्त सुवर्ण के समान- भेद का अभाव होने से वे उनसे अभिन्न हैं । [तं पज्जयट्ठिएण पुणो] और वह द्रव्य पर्यायार्थिकनय से [अण्णं] दूसरा-भिन्न अनेक पर्यायों के साथ पृथक्-पृथक् है। पर्यायार्थिकनय से वह पृथक-पृथक् क्यों है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (आचार्य उत्तर देते है) [तक्काले तम्मयत्तादो] घास की अग्नि, लकड़ी की अग्नि, पत्ते की अग्नि के समान अपनी पर्यायों के साथ उस काल में तन्मय होने से वह पृथक्-पृथक् है ।
इससे क्या कहा गया है? अर्थात् इस सब कथन का तात्पर्य क्या है? (इस सब कथन का तात्पर्य यह है कि) द्रव्यार्थिकनय से जब वस्तु की परीक्षा की जाती है, तब पर्यायों के क्रमरूप से सभी पर्यायों का समूह द्रव्य ही ज्ञात होता है । और जब पर्यायार्थिकनय से विवक्षा की जाती है, तब पर्यायरूप से द्रव्य भी भिन्न-भिन्न ज्ञात होता है । और जब परस्पर सापेक्ष दोनों नयों से (प्रमाणदृष्टि से) एक साथ अच्छी तरह देखा जाता है, तब एकता और अनेकता एक साथ ज्ञात होती है ।
जैसे यह जीवद्रव्य में विशेष कथन किया है, वैसा यथासंभव सभी द्रव्यों में जानना चाहिये - यह अर्थ है ॥१२४॥